सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या ( 3 ) | Sursagar Explanation in Hindi

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सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या ( 3)

सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या ( 3 ) | Sursagar Explanation in Hindi


 

सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

लोचन मेरे भृंग भए री लोकलाज बन-घन बेलि तजि शब्दार्थ व्याख्या

लोचन मेरे भृंग भए री 

लोकलाज बन-घन बेलि तजिआतुर है जु गए री ॥ 

स्याम-रूपरस बारिज लोचनतहाँ जाइ लुब्धे री। 

लपटे लटकि पराग-बिलोकनिसंपुट-लोभ परे री ॥ 

हँसनि प्रकास बिभास देखिकै निकसत पुनि तहँ पैठत । 

सूरस्याम अंबुज कर चरननिजहाँ तहां भ्रमि बैठत ॥ 


शब्दार्थ-

भृंग = भ्रमर 

आतुर = उत्सुक । 

बारिज = कमल 

संपुट = पराग 

विभास = आभा 

निकसत =  निकले। 

पैठत = बैठे। 

अम्बुज = कमल 

भ्रमि = भ्रम करकेभ्रमवश ।

 

व्याख्या - 

(अरी सखी!) मेरे नेत्र तो (कृष्ण का रूप-सौन्दर्य देखकर ) भ्रमर बन गये हैं। प्रमाणइन्होंने लोक-लाज रूपी वन-वेल को तज दिया और (निःसंकोच होकर) वहाँ (कृष्ण के रूप-सौन्दर्य पर) मोहित हो गये । कारण ? (कृष्ण के) केश राशि रूपी पराग को देख उससे लिपट गये और पराग के लोभ में पड़ गये। सूर्य (उदय होने पर लाली) प्रकाश आभा को देख ये निकले और पुनः वहीं बैठ गये। कृष्ण के हाथ और चरण तो कमल तुल्य हैं जिनके आस-पास भ्रमण करके ( अथवा कमल का भ्रम मानकर) ये बैठ गये ।

 

विशेष - 

1. अलंकार - (क) सांगरूपक- समस्त पद में। (ख) रूपक - लोकबेलिबारिज लोचनअम्बुज..... चरननि । 

2. 'रीदेशज शब्दावली प्रयोग का सूचक है। 

3. भावसाम्य- 

'लोचन भृंग कोस-रस पागे । 

स्याम कमल-पद सौं अनुरागे ॥'

 

मेरे नैन कुरंग भए , शब्दार्थ व्याख्या


मेरे नैन कुरंग भए । 

जोबन-वन तें निकसि चले येमुरली नाद रए ॥ 

रूप-व्याधकुंडल-दुति ज्वालाकिंकनि घंटा घोष । 

व्याकुल है एकहि टक देखतगुरूजन तजि संतोष ॥ 

भौंह -कमाननैन-सर- साषनिमारनि चितवनि-वारि । 

ठौर रहे नहिं टरत सूर वैमंद हँसनि सिर डारि ॥

 

शब्दार्थ - 

कुरंग = हिरण 

भए हो गये हैं। 

नाद = = ध्वनि। 

रए = मस्त 

व्याध = शिकारी। 

दुति = द्युतिछवि 

है = होकर 

सर = शर 

चारि = चारु 

ठौर = स्थान 

सिर डारि = सिर झुकाना।

 

व्याख्या- 

(कृष्ण के सौन्दर्य के दर्शन करने के लिये) मेरे नेत्र तो हिरण बन गये हैं। प्रमाण? (हिरण की भाँति मेरे) ये नेत्र यौवन-वन से निकलकर चले और (कृष्ण की) वंशी के स्वर को सुनकर मोहित हो गये (अपनी सुधबुध खो बैठे)। सच तो यह है कि कृष्ण का रूप शिकारी है तो कुंडलों की कान्ति अग्नि की ज्वाला तथा किंकणी की घंटा-घोष है जिससे व्याकुल होकर ये नेत्र अपलक दृष्टि से उसी ( कृष्ण-सौन्दर्य) की ओर देखते रहते हैं। यहाँ तक कि गुरुजन की लज्जा भी नहीं करते। कृष्ण की भौंहें कमान हैं जिनसे वे नेत्र (दृष्टि) रूपी बाण साधकर चितवन की मार करते हैं। फिर भी ये नेत्र (सौन्दर्य-मुग्ध होने के कारण) उस स्थान से तनिक भी नहीं हटते और (कृष्ण की) मन्द हँसी (मुस्कान) के सम्मुख सिर झुका देते हैं।

 

विशेष -

 1. अलंकार- (क) सांगरूपक- समस्त पद में। (ख) अनुप्रास - सर साधनिचितवनि चारि । 


नैन भए बस मोहन तैं  शब्दार्थ व्याख्या

नैन भए बस मोहन तैं । 

ज्यौं कुरंग बस होत नाद के टरत नहीं ता गोहन तैं ॥ 

ज्यौं मधुकर बस कमल-कोस केज्यौं बस चंद चकोर । 

तैसेहि ये बस गए स्याम के गुड़ी-बस्य ज्यौं डोर ॥ 

ज्यौं बस स्वाति बूंद के चातकज्यौ बस जल के मीन 

सूरज - प्रभु के बस्य भये येछनु-छिनु प्रीति नवीन ॥ 


शब्दार्थ - 

कुरंग = मृग 

नाद = संगीत की ध्वनि। 

ता = उसके 

गोहन = समीप 

भए = हुए 

गुड़ी = पतंग

मीन = मछली।


व्याख्या - 

मेरे नेत्र ( मन को मोहित करने वाले) कृष्ण के वश में हो गये हैं। जिस प्रकार मृग संगीत ध्वनि के वशीभूत होकर उसके पास से नहीं हटताजिस प्रकार भ्रमर (पराग-लोभ में) कमल-कोष के तथा चकोर ( दर्शनार्थ) चन्द्रमा के वश में हो जाता हैउसी भाँति से नेत्र भी (कृष्ण की वाणीसौन्दर्य- लोभ और दर्शनार्थ) कृष्ण के वश में हो गये हैं ठीक उसी प्रकार जैसे कि पतंग के वश में डोरी हो जाती है। जिस प्रकार (अनन्य प्रेम-भाव से भरकर ) चातक स्वाति (नक्षत्र में होने वाली वर्षा के जल-बूंद के तथा मछली जल के अधीन हो जाती है। उसी भाँति ये नेत्र (सूर के) प्रभु कृष्ण के वश में हो गये हैं तथा क्षण-क्षण में नये प्रेम (भाव) का अनुभव करते हैं।

 

विशेष -

1. यहाँ पर परोक्षतः नायिका के कृष्ण-प्रेम की अनन्यताअटलताएक-निष्ठा तथा पल-पल वर्धित प्रेमानुभूति आदि स्थितियों का अंकन किया गया है। 

2. समस्त पद में उपमा अलंकार का (मालोपमा अलंकार का) कौशल दृष्टव्य है। 

3. समस्त उपमेय-योजना पारस्परिक कवि समयों से सम्बन्धित है। 

4. 'सूरजसूर का ही वास्तविक नाम माना जाता है।


रोम रोम है नैन गए री शब्दार्थ व्याख्या

रोम रोम है नैन गए री। 

ज्यौं जलधर परबत पर बरषतबूंद बूंद है निचटि ए री ॥ 

ज्यौं मधुकर रस कमल पान करि मोतैं तजि उन्मत्त भए री। 

ज्यौं कांचुरी भुअंगम तजहिंफिरि न तकै जु गए सु गए री ॥ 

ऐसी दसा भई री इनकीस्याम-रूप मैं मगन भए री। 

सूरदास प्रभु अगनित - सोभाना जानौं किहिं अंग छए री ॥

 

शब्दार्थ- 

जलधर = बादल 

निचटि = समूह। 

द्रए = द्रवित

मधुकर = भ्रमर 

मोतैं = मुझको। 

उन्मत्त = मस्त 

भुअंगम = सर्प 

तकै = देखे 

छए = मोहित । 


व्याख्या-

(अरी सखी! कृष्ण के रूप-सौन्दर्य को देखने के लिये तो मेरे शरीर का) एक-एक रोम नेत्र बन गया है (अर्थात् मैं रोम-रोम से कृष्ण-सौन्दर्य को देखती हूँ)। जिस प्रकार जल से परिपूर्ण बादल पर्वत पर बरसते हैं और एक-एक बूँद के समूह से द्रवित होते हैंउसी भाँति मेरा रोम-रोम कृष्ण-दर्शन करके द्रवित (आकर्षित - मोहित) हो जाता है। जिस प्रकार कोई भ्रमर कमल रस (पराग) को पीकर तथा उसको छोड़कर उन्मत हो जाता है उसी प्रकार मेरे नेत्र कृष्ण दर्शन का पान करके मस्त हो गये हैं। जिस प्रकार सर्प अपनी केंचुल उतारकर फिर उसको नहीं देखताएक बार छोड़कर चला जाता हैउसी भाँति ये नेत्र मुझको छोड़कर चले गये (कृष्ण सौन्दर्य पर ही टिक गये) और पुनः मेरी ओर नहीं आये। मेरे नेत्रों की जो यह अवस्था हो गयी है कि ये श्याम के रूप में ही मग्न हो गये हैं। (सूर के) प्रभु कृष्ण (के सौन्दर्य) की शोभा तो अगण्य है। न जाने ये उनके किस अंग-सौन्दर्य पर मोहित हो गये हैं?

 

विशेष- 

1. अलंकार (क) पुनरुक्ति रोम-रोमबूंद-बूंद (ख) उपमा-पी.....गए । 

2. भावसाम्य- 

(क) प्रीतम के संग ही उमगि उड़ जएबे कोनाहिं अंग-अंगन अनन्त पंखिया देइ कीजे कहा राम स्याम आनत बिलोकिबे कोबिरचि बिरंच ना अनन्त अंखिया देइ ॥ 

(ग) नैन गए सु फिरे नाहि फेरि ।'

 

नैना घूँघट में न समात शब्दार्थ व्याख्या

नैना घूँघट में न समात

सुन्दर बदन नन्द-नन्दन- कौनिरखिनिरखि न अघात ॥ 

अति रस- लुब्ध महा मधु लम्पटजानत एक न बात । 

कहा कहौं दरसन - सुख मातेओट भरों अकुलात ॥ 

बार बार बरजत हौ हारीतऊ टेव नहिं जात। 

सूर तनक गिरिधर बिनु देखैपलक कलप सम जात ॥ 


शब्दार्थ 

समात = समातेछिपते। 

बदन = मुख 

नन्दन = पुत्र 

माते = मस्त 

अकुलात = = दुःखी 

बरजत = मना करना। 

हाँ = मैं 

तऊ = फिर भी 

टेब  = आदत 

सम = समान। 

 

व्याख्या - 

(कृष्ण के रूप सौन्दर्य को देखने के लिये उत्सुक बन मेरे) ये नेत्र घूँघट में नहीं समाते । नंद के पुत्र कृष्ण का मुख अत्यधिक सुन्दर है जिसको बारम्बार और अधिकाधिक देखकर भी ये नेत्र अघाते नहीं (क्योंकि उसको और भी देखने की इच्छा बनी रहती है)। ये नेत्र तो (कृष्ण के रूप सौन्दर्य के) रस के लोभी तथा (भ्रमर की भाँति ) बहुत बड़े लम्पट हैं और एक भी बात नहीं जानते (कि इनको सबके सामने इतना रूप-लोभी नहीं होना चाहिये। मैं (इनके विषय में और) क्या कहूँये तो सौन्दर्य-दर्शन के सुख में मस्त हैं और तनिक-सी ओट होने पर भी व्याकुल हो जाते हैं। मैं इनको बारम्बार मना करते करते हार गयी हूँ किन्तु फिर भी (कृष्ण दर्शन की) इनकी आदत नहीं जाती। सच तो यह है कि कृष्ण को न देखे हुए तो एक पल भी कल्प के समान बीतता है।

 

विशेष- 

1. यहाँ पर नायिका का वाक्चातुर्य विशेष दृष्टव्य है 

2. अलंकार- (क) पुनरुक्तिनिरखिनिरखिबार-बार । (ख) अनुप्रास महा मधुबार-बार बरजत। (ग) उपमा- सूर.....जात। 

3. भावसाम्य 

(क) ये नैना मेरे ढीठ भए री। 

घूँघट ओट रहत नहिं रोके हरि-मुख देखत लोभि गए री ॥

 

(ख) 'नयनन में नय नाहिनेयाते नयना नाम ।' 

(ग) नैना नेकु न मानहींकितौ कहीं समुझाय 

तन-मन हारे हू हँसे तिनसो कहा बसाय ॥ -बिहारी सतसई

(घ) जैसे मेरी निगाह ने देखा न हो तुझेमहसूस ये हुआ तुझे हर बार देखकर। शाद


जाकी जैसी टेव परी री शब्दार्थ व्याख्या

जाकी जैसी टेव परी री। 

सो तौ टरे जीव के पीछे जो जो धरनी धरी री ॥ 

जैसे चोर तजै नहिं चोरीबरजै वही करी री। 

बरु ज्यौं जाइहानि पुनि पावतबकतहिं बकत मरी री ॥

जदपि व्याध बधै मृग प्रगटहिमृगिनि रहे खरी री। 

ताहूं नाद-बस्य ज्यौं दीन्हौंसंका नहीं करी री ॥ 

जदपि मैं समुझावती पुनि पुनियह कहि कहि जु लरी री। 

सूरस्याम दरसन तैं इकटकटरत न निमिष धरी री ॥

 

शब्दार्थ-

जाकी = जिसकी 

टेव = आदत 

धरनि = धारणआदत 

बरजैं= मना करना 

वरु = फिर भी । 

व्याध = शिकारी 

ताहुँ = उसको 

संका = शंकासन्देह 

निमिष = क्षण।

 

व्याख्या - 

जिसकी जैसी आदत पड़ जाती है वह तो उसी (आदत) के पीछे दौड़ता है जो कि उसने (आदत के रूप में) धारण कर रखा है। जिस प्रकार कोई चोर चोरी करना नहीं छोड़ताउसको (अथवा वह स्वयं) जिस चीज को मना करोवही करता है और फिर भी जाकर बारम्बार हानि उठाता हैचाहे (मना करते समय ) कहते-कहते मर ही जाओ। (यही स्थिति मेरे नेत्रों की है। इन्हें जितना भी कृष्ण-दर्शन के लिये मना कियाये नहीं मानते और बारम्बार आदतवश वही करते हैं अर्थात् कृष्ण-सौन्दर्य को देखते हैं)। यद्यपि शिकारी प्रत्यक्षतः मृग का वध करता है किन्तु मृगी फिर भी वहीं खड़ी रहती है। उसको शिकारी नाद के वश में करता है किन्तु फिर भी वह तनिक भी शंका नहीं करती इसी भाँतियद्यपि मैं वारम्बार समझाती हूँयह कहकर लड़ती हूँ फिर भी सूरश्याम के निरन्तर दर्शन से ये नेत्र क्षण भर को भी नहीं हटते।

 

विशेष- 

1. पूर्वानुरागिनी नायिका की विवशता भरी स्थिति का यह चित्रण एकदम स्वाभाविक बन पड़ा है। अलंकार - (क) पुनरुक्ति जो जोपुनि पुनिकहि। उदाहरण- जैसे.....करी री। 

2. प्रारंभिक तीन पंक्तियाँ सूक्ति वाक्य हैं। 

3. भावसाम्य- 'नैना बैंक न मानहींकिती कह्यौ समुझाई।'

 

अति रस- लंपट नैन भए शब्दार्थ व्याख्या

अति रस- लंपट नैन भए । 

चाख्यो रूप- सुधा रस हरि कौ लुब्धे उतहिं गए ॥ 

ज्यौं विट-नारी भवन नहीं भावतऔरहिं पुरुष रई 

आवति कबहुं होति अति व्याकुल जैसे गवन नई ॥ 

फिरि उतहिं कौ धावति जैसे छूटत धनुष तैं तीर ॥ 

चुभे जाइ हरि-रूप-रोम में सुन्दर स्याम सरीर ॥ 

ऐसे रहत उतहिं कौ आतुरमोसो रहत उदास । 

सूर स्याम के मन बच क्रम भएरीझे रूप प्रकास ॥

 

शब्दार्थ-

लुब्धे = लुब्ध होकर 

विट= कामुकदुराचारी 

रई = मस्त 

गवन = गौना। 

धावति = दौड़ती। 

उतहि = उधर।

 

व्याख्या- 

(कृष्ण के रूप सौन्दर्य पर मुग्ध होने वाले) मेरे नेत्र (सौन्दर्य) रस के लिये अत्यधिक लम्पट हो गये हैं। ये हरि के रूप रूपी अमृत को चखना चाहते हैंइसी से लुब्ध होकर उधर (कृष्ण की ओर) हो गये हैं। जिस प्रकार किसी कामुक या व्यभिचारिणी नारी को घर अच्छा नहीं लगता और वह पर-पुरुष में लिप्त हो जाती है लेकिन कभी-कभी व्याकुल होकर इस प्रकार आती है जैसे कि गौने पर (कोई ) नव वधू (लज्जित होते हुए) आती है लेकिन फिर उसी (पर-पुरुष की ओर ऐसे दौड़ती है जैसे कि धनुष से छूटा हुआ बाण (तेजी से दौड़ता है)। उसी तेजी से ये नेत्र रूपी बाण हरि के रूप-रोम में जाकर चुभते ( अटक जाते) हैं क्योंकि कृष्ण का श्याम शरीर सुन्दर है। इस प्रकार मेरे नेत्र उधर (कृष्ण-सौन्दर्य की ओर) ही आतुर रहते हैं और मुझसे उदास (या तटस्थ) मन-वचन-कर्म अर्थात् सभी प्रकार से ये नेत्र सौन्दर्य - प्रकाश वाले श्याम पर रीझे हुए हैं।

 

विशेष - 

1. पूर्वानुरागवती नायिका की अनन्य प्रेम स्थिति का अंकन है। 

2. अलंकार- (क) रूपक-रूप-सुधा रसहरि-रूप-रोम (ख) उपमा-ज्यों.... तीर (ग) अनुप्रास - सुन्दर स्याम शरीर 

3. भावसाम्य 

(क) मोहन छबि रसखान लखिअब दृग अपने नाहिं ।

ऐंचे आवक धनुष से छूटे सर से जाहिं ॥ 

(ख) भई सखि ये अंखियाँ बिगरैल ..

हरिचन्द्र कुलकानि छांडिकै हरि की भई रखैल ॥ 

(ग) जसु अपजसु देखत नहींदेखत सांवल गात। 

कहा करोंलालच भरे चपल नैन चलि जात ॥


अंखियाँ हरि के हाथ बिकानी शब्दार्थ व्याख्या


अंखियाँ हरि के हाथ बिकानी । 

मृदु मुसुकानि मोल इनि लीन्होंयह सुनि सुनि पछतानी ॥ 

कैसे रहति रहीं मेरे बसअब कछु और भाँति 

अब वै लाज मरति मोहि बैठतबैठी मिलि हरि पाँति ॥ 

सपने की सी मिलनी करति हैंकब आवहिं कब जाति 

सूर मिली ठरि नन्द-नन्दन कौंअनत नहीं पतियाति ॥

 

शब्दार्थ

 विकानी = बिक गयींवश में हो गयीं। 

इनि = इनको 

पांती = पंक्ति पक्ष 

अनत = अन्यत्रकिसी और का पतियाति विश्वास करती है। 


प्रसंग - 

कृष्ण के रूप-सौन्दर्य पर रीझकर गोपिका (नायिका) उनकी ओर न केवल आकर्षित हो गयी वरन् पूर्वानुराग भी करने लगी। इसका कारण वह निःसन्देह अपने नेत्रों को मानती है। इन्हीं नेत्रों की स्थिति को अपनी अंतरंग सखि के सम्मुख स्पष्ट करते हुए वह कहती है

 

व्याख्या- 

(कृष्ण के रूप-सौन्दर्य पर लुब्ध और आकर्षित होकर) मेरी आँखें तो (मन का हरण करने वाले) कृष्ण के हाथों बिक गयी हैं (अर्थात् कृष्ण के वश में हो गयी हैं)। कृष्ण ने केवल अपनी मृदु मुस्कान के मूल्य पर इनको मोल ले लिया हैयह सुनकर मैं पछताती हूँ (कि कितने ही सस्ते में ये आँखें बिक गयीं। (मुझे तो यही आश्चर्य है कि अब तक) ये मेरे वश में किस प्रकार रहती थींकारण यह है कि अब (कृष्ण के वश में होने के उपरान्त तो) ये कुछ और ही प्रकार की ( पराधीन) हो गयी हैं। अब ये कृष्ण की पंक्ति (पक्ष) में बैठी हुयी मुझे देखकर लाज के मारे मरती हैं। अब तो ये मिलन भी स्वप्न के समान (झूठा और क्षणिक) करती हैं। यही मालूम नहीं होता कि ये कब आती हैं और अन्य किसी का विश्वास नहीं करती।

 

विशेष- 

1. यहाँ पर परोक्ष विधि से नायिका की पूर्वानुरागमय स्थिति का सूक्ष्म अंकन किया गया है जो कवि की भाव-चित्रण-कुशलता का परिचायक है। 

2. अंतिम पंक्ति में अनुराग अनन्यता और एकनिष्ठा का अंकन है। 

3. यहाँ पर लोक प्रचलित मुहावरों का स्टीक और सार्थक प्रयोग कवि की भाषा सबलता का परिचय देता है। 

4. अलंकार- (क) अनुप्रास - मृदु .....मोल। (ख) पुनरुक्ति सुनि सुनि (ग) उपमा- सपने... जाति।

5. गोपिका (के माध्यम से प्रकट मूलतः कवि) का वाग्वैदग्ध्य दृष्टव्य है। 

6. 'हरिशब्द का सटीक प्रयोग कवि की शब्द की पकड़ और समुचित प्रयोग का साक्षी है।

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