रासो स्वरुप ,रासो शब्द की व्युत्पत्ति

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रासो स्वरुप ,रासो शब्द की व्युत्पत्ति

रासो स्वरुप | रासो शब्द की व्युत्पत्ति | Raso Swaropp Aur Vyutpatti

रासो स्वरुप , रासो शब्द की व्युत्पत्ति

➽ रासो शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किया है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार गार्सा द तॉसी ने इस शब्द की व्युत्पत्ति राजसूय शब्द से मानी है। उनका कहना है कि चारण काव्यों में राजसूय यज्ञ का उल्लेख है और इसी कारण इनका नाम रासो पड़ा होगा। किन्तु उनका यह मत संगत प्रतीत नहीं होता। पहली बात तो यह है कि इन सभी चरित्र - काव्यों में राजसूय यज्ञ का उल्लेख नहीं है। दूसरी बात अपभ्रंश साहित्य की ऐसी रचनाएँ जहाँ केवल प्रेम का वर्णन है उनका नाम भी रासक हैउदाहरणार्थ संदेशरासक आदि । बीसलदेव रासो में केवल प्रेम का वर्णन है। वहाँ न तो आश्रयदाता की दिग्विजय का उल्लेख है और न ही तत्वसूचक शब्द का संकेत है।

 

➽  कुछ विद्वानों ने रासो शब्द का संबंध रहस्य से जोड़ना चाहा है किन्तु यह ठीक नहीं है। इन ग्रन्थों में कोई गूढ़ दार्शनिक रहस्य नहीं है। दूसरे कुछ लोगों ने राजस्थानी तथा ब्रजभाषा को 'रासोशब्द से जोड़ने का प्रयत्न किया है किन्तु यह भी निराधार है। राजस्थानी एवं ब्रज भाषा में रासो शब्द का अर्थ लड़ाई-झगड़ा है और इस रूप में इस शब्द की कोई सार्थकता इन चरित काव्यों के साथ दृष्टिगोचर नहीं होती है। निःसन्देह कुछ रासो ग्रन्थों में युद्धों और लड़ाई-झगड़ों का वर्णन है पर कुछ ग्रन्थ ऐसे भी हैं जिनमें शुद्ध रूप से प्रेम का वर्णन हैं। जैसे वीरगाथाओं में बीसलदेव रासो तथा अपभ्रंश साहित्य में सन्देश रासक आदि। इनमें युद्धों का अभाव होने पर भी इनका नाम रासो है।

 

➽  नरोत्तम स्वामी ने इस शब्द की व्युत्पत्ति रसिक शब्द से मानी है जिसका अर्थ प्राचीन राजस्थानी भाषा के अनुसार कथा-काव्य मिलता है। उसके अनुसार इस शब्द के रूप इस प्रकार हैं- रसिकरासरासो। परन्तु यह मत युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती। निःसंदेह चारणों द्वारा रचित काव्यों में इस कल्पना की आंशिक सार्थकता सिद्ध हो जाती होकिन्तु उन अपभ्रंश काव्यों का क्या बनेगा जिनका नामकरण रासक या रास है। इससे सिद्ध होता है कि यह शब्द दीर्घकाल से काव्य के अर्थ में एक विशिष्ट रूप में प्रयुक्त होता आ रहा था और उसी अर्थ में चारण काव्यों में इसका प्रयोग हुआ है।

 

➽  आचार्य चन्द्रबली पांडेय ने रासो शब्द का संबंध संस्कृत साहित्य के रासक से माना है। संस्कृत साहित्य में रासक की गणना रूपक अथवा उपरूपक में हुई है। अपने मत के समर्थन के लिए उन्होंने पृथ्वीराज रासो के प्रारंभिक भाग का हवाला दिया है जहाँ नट और नटी की भाँति कवि चन्द और उसकी पत्नी के परस्पर नाटकीय वार्तालाप से ग्रंथ का श्रीगणेश हुआ है। पांडेय जी के अनुसार रासो ग्रन्थों का प्रणयन प्रदर्शन के निमित्त हुआ था । पृथ्वीराज के यश के गायन करने की इस प्रकार प्रथा थी। यह तर्क भी हमें सबल दिखाई नहीं देता है। हिंदी और अपभ्रंश के कई रासो नामधारी ग्रंथ हैं जिनका आरंभ इस नाटकीय पद्धति से नहीं हुआ है किन्तु फिर भी वे रासो नाम से अभिहित किये जाते हैं। 

➽  कुछ विद्वानों ने रासो शब्द का संबंध रास या रासक से जोड़ा है जिसका अर्थ है- ध्वनिक्रीड़ाश्रृंखलाविलासगर्जन और नृत्य इस मत में दूर की कौड़ी पकड़ने का ही प्रयास किया गया है और कुछ नहीं । कतिपय वीर काव्यों में इन गुणों को देखकर यह नामकरण कर दिया गया है। इसका कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं । 

➽  अन्य विद्वानों ने रासो शब्द का संबंध रसिया शब्द से माना है जिसका अर्थ है भद्दा श्रृंगार इस विषय में सबसे पहली बात तो यह है कि रासो ग्रंथों में शृंगार का भद्दा रूप नहीं है और रासो ग्रंथों में ऐकान्तिक रूप से श्रृंगार हो ऐसा भी नहीं है। फिर अपभ्रंश साहित्य के कई ऐसे रासक ग्रन्थ हैं जिनमें केवल धार्मिक उपदेश ही है।

 

➽  पं. रामचन्द्र शुक्ल ने रासो शब्द का संबंध रसायन से माना है जो कि बीसलदेव रासो में काव्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। शुक्ल जी ने अपने मत के समर्थन में बीसलदेव रासो की एक पंक्ति भी उद्धृत की है- "नाल्ह रसायन आरम्भई शारदा तुठी ब्रह्म कुमारि । "

 

➽  आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस संबंध में कहा है कि रासक एक छन्द भी है और काव्य भेद भी। काव्य के इस बंध में अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ करता था। पृथ्वीराज रासो उसी परंपरा का काव्य है। आदिकाल की वीरगाथाओं में चारण कवियों द्वारा निर्मित चरित काव्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है।

 

➽  रास काव्य मूलतः छन्द का समुच्चय है। अपभ्रंश में 29 मात्रा का एक रासो या रास छन्द प्रचलित था । ऐसे अनेक छन्दों के गाने की परिपाटी कदाचित लोक में भी रही होगी। एक रसता के निवारणार्थ बीच-बीच में दूसरे छन्द जोड़ने अथवा गाने की प्रथा चल निकली। सन्देश रासक इसका उदाहरण है। रास काव्य मूल रूप से रासक छन्द प्रधान काव्य रहे होंगे। आगे चलकर रास काव्य का ऐसा रूप निश्चित हो गया जिसमें किसी भी गेय छन्द का प्रयोग किया जा सकता था। भाव की दृष्टि से रास काव्य फिर भी प्रेम प्रधान रहे। हिंदी का बीसलदेव रासो ऐसा ही रास काव्य है जिसमें रासकेतर छन्द का प्रयोग हुआ है फिर भी वह प्रेम-प्रधान है। आगे चलकर काव्य का यह रूप कोमल भावों के अतिरिक्त अन्य विचारों के वाहन का साधन बना। प्रेम भाव के साथ इसमें वीरों की गाथाओं का सम्मिश्रण हुआ। जिस प्रकार अंग्रेजी का सॉनेट मूलतः प्रेम भावों का काव्य था किन्तु आगे चलकर उसे अन्य भावों का भी वाहन बना लिया गया। यही दशा अपभ्रंश और हिंदी के रासो काव्य की समझनी चाहिए। अपभ्रंश में इस प्रकार के कई काव्य हैं जैसे- बाहुबलिराससमररास आदि और हिन्दी में ऐसे रासो काव्यों का प्रतिनिधि है पृथ्वीराज रासो

 

➽  अपभ्रंश के आचार्यों ने दो प्रकार के रास काव्यों का उल्लेख किया है- कोमल और उद्धत। उन्होंने इन दोनों के मिश्रण से बनने वाले रास काव्य की चर्चा की है। यह भेद रास रूपकों के किए गये किन्तु ये रास काव्यों के विषय में भी समान रूप से लागू होते हैं। एकदम युद्ध प्रधान रास काव्य का उदाहरण हिन्दी में हम्मीर रासो तथा अपभ्रंश में बाहुबलिरास है। इन भावों के लिए निश्चित हुआ काव्य का रूप अन्य प्रकार के भावों के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। जिनदत्त सूरि के 'उपदेश रसायन रासमें केवल धर्मोपदेश है। इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि रासो शब्द का प्रयोग सामान्य रूप में प्रयुक्त हुआ है। रास अथवा रसिक नामक एक सामान्य गेय छन्द ने इतने रूप बदले । अस्तुविद्वानों का दूसरा वर्ग अपभ्रंश का नृत्य गीतपरक परंपरा को रासो ग्रंथों का मूल मानता है। उक्त दोनों मत प्रायः मान्य हैं।

 

➽  आधुनिक गवेषणाओं के फलस्वरूप अब हिंदी साहित्य में प्रयुक्त रहस्यात्मक शब्दरास रासक अथवा रासों का अर्थ सही संदर्भों में खुलने लगा है। ईसा से कई शताब्दियों पूर्व रचित वात्स्यायन के कामसूत्र में प्रेमी युगल के परस्परिक अनुराग में विश्वासात्मकता की वृद्धि के लिए कतिपय साधन निर्दिष्ट किये गये हैं-

 

(1) परस्पर प्रीति करैः आत्मभावानुवर्तनैः। 

क्षणात् क्रोध परावृतैः क्षणात् प्रीति विलोकितः ॥ 

(2) हत्तीस क्रीडनकै गायनैः वाटरासकैः। 

राग लोलादनयनैः चन्द्रमंडल वीक्षणैः ॥ का. सू. अधि. 2अ. 10 श्लो. 11-12 


➽ स्त्री-पुरुष के परस्पर प्रीतिकर आत्मानुप्रेरित आलिंगनादि क्षणिक प्रणय कलहजन्य क्रोध से पराङ्मुख प्रेमी-प्रेमिका के आनन्दप्रद परस्पर प्रीति कारक विलोकन आदि से पारस्परिक उत्तरोत्तर प्रेम में वृद्धि होती है।

 

➽ हल्लीसक क्रीड़न आदि देशीय खेलों से परिपूर्ण लय ताल रसात्मक गीतों से (हल्लीसक को गायनात्मक नृत्य गिद्धा कहा जा सकता है। कृष्णनेता युक्त गोपी समुदाय का रास नृत्य) लाट व रासक देशीय श्रवण प्रियमधुर गीतों से (लाट से कदाचित प्राक्कालीन काश्मीर तथा रासक से उससे संबद्ध क्षेत्रों त्रिगर्तसप्तसिंधु उत्तर प्रदेश. राजस्थान व मध्य प्रदेश के कतिपय अंचल) परस्पर प्रेम से भीगे चंचलनयन कोरों से दूध धुली मधुर-मादक चाँदनी और चंद्रमंडल के नजारों से ओतप्रोत हृदयहारी मधुर गीतों से प्रेम में प्रगाढ़ वृद्धि होती है। शहरों की लंबी यात्रा में जैसे नट नागरक से नागर शेष रह गया वैसे ही रासक का अवशेष रास ही रह गया जिसका मुख्य लक्ष्य प्रणयात्मक गीतों से क्रमश: प्रेमी युगल का प्रेम विवर्धन था। आगे चलकर ऐतिहासिक उथल-पुथल के युग शृंगार प्रधान रासक रासात्मक गीतों में प्रणय कलह का स्थानापन्न वीर रस हो गया जिसका प्रधान लक्ष्य वीर यशोमयी गाथाओं की चर्चा अनिवार्य थी वह शनै: शनै: श्रृंगारात्मकता का अभिन्न अंग बनता चला गया । किन्तु इस संदर्भ में स्मरणीय बात यह है कि रासो या रास नामधारी काव्यों में शृंगार की स्वतंत्र चर्चा भी होती रही उदाहरणार्थ बीसलदेव रासो संदेश रासक आदि। और कतिपय महनीय कृतिका में इन दोनों रसों का भव्य समन्वय भी चलता रहा। कदाचित् यही कारण है कि रासरासोनामधारी जैन कवियों की कृतियों में श्रृंगारिक रति के साथ शान्त रसोन्मुख निवृत्तियी विरति का भी समावेश होने लगा। वीर रस प्रधान पृथ्वीराज रासो में वीर तथा श्रृंगारात्मक रसों की झिलमिलाहट दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त इन विभिन्न रसाप्लुत रासो नामधारी ग्रंथों में प्राचीन भारतीय काव्य की विशाल परंपराओंरूढ़ियों एवं मर्यादाओं का सम्यक् परिपालन किया गया है। 

➽  इस संदर्भ में अनेक संभ्रान्त व सामान्य विद्वानों के मतों का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। नानाविध विद्वानों द्वारा विभिन्न संदर्भों में चर्चित रासो शब्दभारतीय इतिहास के एक अतीव लंबे दौर की यात्रा करते हुए हम यहाँ तक पहुँचे हैं। अस्तुः इतना तो निश्चित है कि इस शब्द की दीर्घकालीन यात्रा का आरंभ विन्दु कामसूत्र में प्रयुक्त रासक शब्द में सन्निहित है और यह शब्द अपने गर्भ में अनेक पड़ावों के बदलावों को समाहित किये हुए हैं। शब्दों की उच्चावच भाषा भी कितनी मनोरंजन होती हैं। ऊपर हम लाट देश की चर्चा कर चुके हैं। प्राचीन काम में काश्मीर लाट देश की संज्ञा से अभिहित होता था और वह अपने सुगायन के लिए प्रसिद्ध था। काव्यशास्त्रीय विकास इस बात का साक्षी है कि संस्कृत कृतियों के प्रणयन के लिए विभिन्न मार्ग पद्धतियां वैदर्भीगौड़ी और पांचाली प्रचलित थी किन्तु कालान्तर में सुगायन की योग्यता के कारण इस लाटी रीति का उक्त काव्य की पद्धतियों-वैदर्भीगौड़ीपांचाली आदि में परिगणन कर लिया गया है। कामसूत्र में विशेष के रूप में प्रयुक्त लाट रासकैः का प्रयोग उक्त तथ्यों को अभिध्वनित करता है।


➽  रास या रासो के संबंध में स्वनामधन्य स्व. डॉ. गणपति चन्द्र के 'हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहासमें से कतिपय अंश समुद्धरणीय है-रास काव्य की परंपरा का अध्ययन आरंभ करने से पूर्व हमें रासो की व्युत्पत्ति एवं अर्थ स्पष्ट कर लेना चाहिए। इस शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में विद्वानों में गहरा मतभेद रहा है। गार्सा दा तॉसी ने इसका संबंध 'राजसूयसे स्थापित किया है तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बीसलदेव रासो में बार-बार प्रयुक्त रसायन शब्द से रास या रासो की व्युत्पत्ति सिद्ध की है किन्तु अब ये दोनों ही प्रयास अमान्य समझे जाते हैं। इधर दशरथ शर्माडॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी और डॉ. माताप्रसाद गुप्त प्रभृति विद्वानों ने संस्कृत के रासक से ही रास का संबंध सिद्ध किया है। प्राकृत अपभ्रंश के नियमानुसार रासक से रासअरासउ रास आदि रूप विकसित हो जाते हैं जबकि राजस्थानी में प्रायः अकारान्त संज्ञाएँ ओकारान्त हो जाती हैंअतः इसमें रास रासा के स्थान पर रासो का प्रयोग होना स्वाभाविक है। इस प्रकार रासरासा रासु रासो आदि शब्द मूलतः रासक नृत्य विशेष छन्द विशेष और गायन विशिष्ट काव्य के ही परिवर्तित और विकसित रूप हैं। 

➽  डॉ. गुप्त ने आगे चलकर संकेतित किया है कि " संस्कृत साहित्य में रासक संज्ञा का प्रयोग प्रायः एक ही समय तीन अर्थों में होता रहा है- (क) गेय काव्यों, (ख) नृत्य विशेष के लिएऔर (ग) रूपक - विशेष के भेद के लिए।" इससे सहज अनुमेय है कि प्रेमीयुगल के प्रीति वर्धक गायनात्मक रासक का प्रयोग नृत्य और अभिनय के साथ होता रहा होगा। हम मंडलीबद्ध नृत्य का उदाहरण गोपीजन-कान्ह के रूप में दे चुके हैं और सप्त सिन्धु प्रदेश में प्रचलित गिद्धा के वर्तमान स्वरूप की चर्चा कर चुके हैं। "संघपति समरा रास" नामक काव्य में रास के पद में गुनने एवं नाचने का उल्लेख किया गया है। बीसल देवरासो में दो प्रकार की नृत्य मंडलियों के द्वारा बांसुरी वादन ताल और घुंघरू के साथ रास प्रकाशित करने की विधि का उल्लेख किया गया है 


गावणहार माँडड़ रंगाई रास कई (सम) यह बँसली बाई । 

ताल कई समचई घूंघरीमोहिली माँडली छीटा होइ । 

बारली मांडली सांघजांरास प्रकास ईणी विधि हो । 


➽  आगे चलकर डॉ. गुप्त लिखते हैं- "रासक काव्य विशेष प्रकार के नृत्य एवं अभिनय आदि के लिए लिखे जाते थे इसलिए उनमें छन्द- वैविध्य का विशेष ध्यान रखा जाता था। इस बात का निर्देश एक और नवीं दसवीं शताब्दी के आचार्यों ने तथा दूसरी ओर बारहवीं सदी के कवि अब्दुर्रहमान ने किया है। यथा विरहांक में लिखा है- “ जिसमें बहुत से अडिल्लादुवहअमात्रारड्डा और डोसा छन्द होते हैंऐसी रचना रासक कहलाती हैं।संभवत: इसी तथ्य को ध्वनित करते हुए दसवीं सदी के कवि स्वयंभू ने लिखा है जिस काव्य में छत्ता छप्पय पद्धडिया तथा अन्य रूपकों (वृत्तों) का (छन्दों) के कारण जन साधारण के मन का अभिराम होता हैवह रासाबंध काव्य कहलाता है" संदेश रासक के रचयिता का भी यही अभिमत है- " कह बहुरूवि जिबद्धउ रासउ भासिमइ " विविध छन्दों में निबद्ध रचना रासक भणित होती है। अस्तु! छन्दों के वैविध्य को रासक काव्य का अनिवार्य लक्षण समझना भ्रान्ति होगीरागात्मकता तो उसका एक अनिवार्य घटक है ही! डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपने 'हर्ष चरित के सांस्कृतिक अध्ययननामक बहुमूल्य पुस्तक में लिखा है-" बाण के हर्षचरित (7वीं सदी) में राजा हर्षवर्धन के जन्मोत्सव पर स्त्रियों के द्वारा ऐसे अश्लील रासक पदों के गाये जाने का उल्लेख है जिन्हें सुनकर विट लोग (नागरिक की शरण में रहने वाले आमोद-प्रमोद प्रिय वट् वोट विदूषक आदि नर्म-सचिव) ऐसे हुलस रहे थेमानो कानों में अमृत रस घोला जा रहा हो " ऐसी स्थिति में यह सहज अनुमेय है कि स्त्रियाँ गाने के साथ-साथ नृत्य एवं अभिनय भी करती होंगी। महाकवि बाण के हर्षचरित में मंडलाकार रासक नृत्य भी उल्लिखित है।

 

➽  12वीं सदी के आचार्य हेमचन्द्र अपनी रचना काव्यानुशासन के " अपभ्रंश भाषा के ग्राम्य रूप की चर्चा करते हुए कहा है कि इसमें रासकडोम्बिका आदि श्रेणी के लोक प्रचलित गेय और अभिनेय काव्य लिखे जाते हैं। " खैर इतनी विस्तृत चर्चा से एक बात तो नितान्त रूप से स्पष्ट है कि रासक में गायननृत्यअभिनय और मनोरम वादन जैसे प्रीतिवर्धक तत्त्व समाविष्ट थे जो कामसूत्रकार के समय से लेकर मध्यकालीन नानाविध भाषाओं के काव्यों में यत्किंचित् परिवर्तित रूप में विद्यमान रहे।

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