पृथ्वीराज रासो का काव्य-सौंदर्य | Poetry-beauty of Prithviraj Raso

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पृथ्वीराज रासो का काव्य-सौंदर्य

पृथ्वीराज रासो का काव्य-सौंदर्य | Poetry-beauty of Prithviraj Raso


पृथ्वीराज रासो का काव्य-सौंदर्य 

भले ही रासो की प्रामाणिकता के संबंध में विद्वानों में मतभेद है, किंतु इसकी साहित्यिक गरिमा को सबने मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। रासो को चाहे एक सफल महाकाव्य कहा जाये अथवा विशालकाय काव्य कहा जाये, इन दोनों रूपों में इसका साहित्यिक सौष्ठव अक्षुण्ण है। इसमें प्रधानता दो रस हैं-वीर और शृंगार और दोनों का सुंदर परिपाक हुआ है। पृथ्वीराज रणबांकुरा भी है और सलोना लुभावना जवान भी। चंद ने शोभा एवं सौंदर्य के चित्रण में अपूर्व कल्पना शक्ति से काम लिया है। डॉ. हजारीप्रसाद इस संबंध में लिखते हैं- " शोभा चाहे प्रकृति की हो या मनुष्य की हो, परंपरा प्रचलति रूढ़ उपमानों के सहारे ही निखरी है। अधीनस्थ सामंतों की स्वामिभक्ति और पराक्रम अत्यंत उज्ज्वल रूप में प्रकट हुए हैं।" पृथ्वीराज और जयचंद के विरोध का कारण चाहे संयोगिता अपहरण हो या न हो किंतु कवि ने रसराज की अभिव्यक्ति के लिए सुंदर प्रसंग ढूँढ़ निकाला है। युद्धों का मूल कारण किसी नारी को कल्पित करके जहाँ एक ओर प्रेम-चित्रण के प्रसंगों को खड़ा किया है यहाँ विशुद्ध द्वेष की अभिव्यक्ति को भी क्षीण नहीं होने दिया है। पृथ्वीराज का गोरी को बार-बार क्षमा कर देना भले ही इतिहाससम्मत न हो किंतु इससे नायक के चरित्र की उदारता का अभीष्ट प्रभाव पाठकों के हृदयपटल पर अंकित हो जाता है। 

 

वर्णनात्मकता - 

वस्तु-वर्णन में रासोकार ने एक सफल कवि हृदय का परिचय दिया है। नगर, उपवन, वन, सरोवर, दुर्ग, सेना और युद्ध आदि के वर्णन अनुपम बन पड़े हैं। उदाहरणार्थ युद्ध का वर्णन देखिए-

 

न को हार नहि जित्त, रहे रहहिं सूरवर 

धर उप्पर धर परत करत, अनि युद्ध महाभर ॥ 

 

 

इस प्रकार रासो में स्थिर तथा गतिशील दोनों प्रकार के दृश्यों का अंकन हुआ है। भाव-व्यंजना- रासो में वीर और श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति अत्यंत भव्य रूप से हुई है। वीर रस का एक दर्पपूर्ण चित्र फड़कती हुई ओजस्विनी भाषा में देखिए- 

 

बजय घोर निसान रान चौहान यहुं दिसि । 

सकल सूर सामन्त समर बल जंत्र मंत्र तिसि ॥ 

उटिठ् राज पृथ्वी राज बाग लग्ग वीरनट। 

कढ़त वेग मनोवेग लगत बीज झट्ट घट्ट । 

 

 

पद्मावती के सौंदर्य-चित्रण में शृंगार रस की छटा दर्शनीय बन पड़ी है 


मनहु कला ससभान कला सोलह सों बन्निय। 

बाल वैस ससि ता समीप अमृत रस पिन्निय ।। 

विगसि कमल स्विग भ्रमर धेनु खंजन म्रिग लुट्टिय । 

हीर कील अरु बिंब मोती नख सिख अहि घुट्टिय ॥ 

छप्पनि गयंद हरि हंस गति बिह बनाय संचै संचिय। 

पद्मिनी रूप पद्मावतिय मनहुं काम कामिनी रचिय ॥

 

➽ कवि चंद ने शृंगार रस के अन्य अंगों- वयःसंधि, यौवनागम्, अनुराग, प्रथम मिलन और व्रीड़ा आदि का भी सुंदर वर्णन किया है। वीर और श्रृंगार रस के अतिरिक्त अन्य रसों की अभिव्यंजना भी राम्रो में प्रसंगानुसार हुई है। रौद्र और  भयानक रसों का चित्रण तो स्थान-स्थान पर है, कहीं-कहीं पर हास्य रस के भी सुंदर छींटे हैं। रासो में शांत रस का प्रायः अभाव है। रासोकार ने भाव सौंदर्य में वृद्धि के लिए अनुप्रास, यमक श्लेष, वक्रोक्ति, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, भ्रमअतिशयोक्ति आदि अलंकारों का भी सुंदर प्रयोग किया है। वैसे रासो जैसे विशाल काव्य में प्रायः सभी अलंकार मिल जाते हैं। इससे रासोकार का काव्य-शास्त्र के गढ़ ज्ञान का परिचय मिलता है।

 

➽ रासो में 68 प्रकार के छंद पाए जाते हैं और कहीं-कहीं छंद परिवर्तन में अस्वाभाविकता भी आ गई है। कुछ भी हो, रासोकार में सर्वत्र एक महाकवि की सी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। यदि रासोकार वीर रस के मूल भाव की व्यक्तिगत राग-द्वेष पर आधारित न करके उसे व्यापक राष्ट्रीय चेतना पर आधारित करता तो अच्छा होता। दूसरे, रासो में वर्णित प्रेम-भाव में अभीष्ट गहनता भी नहीं आ पाई है। किंतु इन त्रुटियों के लिए चंद को दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह युग संकुचित राष्ट्रीयता और सामंती विलासिता का था। वस्तुतः रासो और उसके कर्ता कवि चंद का महत्त्व हिंदी साहित्य में अक्षुण्ण है। 

 

➽ 'डॉ. विपिनबिहारी त्रिवेदी ने रासो और रासोकार का मूल्यांकन करते हुए निम्नांकित शब्दों में भले ही कुछ अतिशयोक्ति से काम लिया है फिर भी उसमें बहुत कुछ सत्य है-"हिंदी के आदि कवि चंदवरदाई (चिंद बलछिउ ) का पृथ्वीराज रासो 12वीं शाती के दिल्ली और अजमेर के पराक्रमी हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय तथा उसके महान कान्यकुब्जेश्वर जयचंद गहड़वाल, गुर्जरेश्वर, भीमदेव, चालुक्व और गजनी के अधिपति सुल्तान शहाबुद्दीन गोरी के राज्य, रीति-नीति, शासन व्यवस्था, सैनिक, सेना, सेनापति, युद्ध-शैली दूत, गुप्तचर, व्यापार मार्ग आदि का एक प्रमाण, समता-विषमता की श्रृंखलाओं से जुड़ा हुआ, ऐतिहासिक अनैतिहासिक वृत्तों से आच्छादित, पौराणिक कथाओं से लेकर कल्पित कथाओं का अक्षय तूणीर, प्राचीन काव्य-परंपराओं और नवीन का प्रतिपादक, भौगोलिक वृत्तों की रहस्यमय गुफा, सहस्रों हिंदू-मुस्लिम योद्धाओं के पराक्रम का मात्र कोश, प्राकृत अपभ्रंशकालीन सार्थक अभिव्यंजना करने में सक्षम, सफल छंदों की विराट पृष्ठभूमि हिंदी गुजराती और राजस्थानी भाषाओं के संक्रांतिकालीन रचना, गौड़ीय भाषाओं की अभिसंधि का उत्कृष्ट निदर्शन, समकालीन युग का सांस्कृतिक प्रमाण उत्तर भारत का आर्थिक मानचित्र, विभिन्न मतावलम्बियों के दार्शनिक तत्वों का आख्याता तथा मानव की चित्तवृत्तियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषक, यह अपने ढंग का एक अप्रतिम महाकाव्य है, परंतु हिंदी रचनाओं में संभवतः सबसे अधिक विवादग्रस्त है। "

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