प्रारंभिक अवस्था में भाषा की प्रकृति |Nature of language in the early stages

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प्रारंभिक अवस्था में भाषा की प्रकृति

Nature of language in the early stages


प्रारंभिक अवस्था में भाषा की प्रकृति

आज की किसी भी भाषा को लें, उसका अध्ययन करें और फिर पीछे उसके इतिहास का वहाँ तक अध्ययन करते जाएं जहाँ तक सामग्री मिले। इस अध्ययन के आधार पर भाषा के विकास का सामान्य सिद्धांत निकाल लें। उन सिद्धांतों के प्रकाश में आज की भाषा की तुलना उसके प्राचीनतम उपलब्ध रूप से करें और देखें कि कौन-सी बातें आज की भाषा में नहीं हैं, पर प्राचीन में हैं। इसके बाद हम यह आसानी से कह सकते हैं कि वे विशेषताएँ यदि भाषा के प्राचीनतम उपलब्ध रूप में दस प्रतिशत हैं तो भाषा के बिल्कुल प्रारंभ में सत्तर या अस्सी प्रतिशत रही होंगी।

 

उदाहरण के लिए, हिंदी (खड़ीबोली) को लें। इसके अध्ययन के उपरान्त पुरानी हिंदी, अपभ्रंश, प्राकृत, पालि, संस्कृत और वैदिक संस्कृत का अध्ययन करके विकास के सिद्धांतों पर विचार करें। फिर खड़ी बोली की तुलना वैदिक संस्कृत से ध्वनि, व्याकरण के रूप, शब्द समूह, वाक्य आदि के विचार से करके वैदिक संस्कृत की वे विशेषताएँ निश्चित करें जो या तो खड़ी बोली में बिल्कुल नहीं हैं, या हैं भी तो बहुत कम। प्राचीन भारतीय

 

भाषा में निश्चित ही उन विशेषताओं का विशेष स्थान रहा होगा, जो घटते घटते वैदिक संस्कृत में कुछ शेष थीं और खड़ी बोली तक आते-आते प्रायः नहीं के बराबर रह गई हैं। इसी प्रकार किये गये अध्ययन के आधार पर भाषाओं की प्रारंभिक प्रकृति पर यहाँ अत्यन्त संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है।

 

1 प्रारंभिक अवस्था में भाषा की प्रकृति

 

(क) ध्वनि-

किसी भाषा के इतिहास के अध्ययन से यह पता चलता है कि ध्वनियों एवं ध्वनि संयोगों में, धीरे-धीरे जैसे-जैसे भाषा आगे बढ़ती है, सरलता आती जाती है। इस बात पर कुछ विस्तार से ध्वनि के अध्याय में विचार किया जायेगा। यहाँ इस सरल होने से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आरंभिक भाषा में आज की विकसित भाषाओं की तुलना में ध्वनियाँ बहुत कठिन रही होंगी। यहाँ कठिन से आशय उच्चारण में कठिन संयुक्त व्यंजन (जैसे आरंभ में प्स, वन, हा आदि) या मूल ध्वनि आदि हैं। प्राचीन और पिछड़ी अनेक अफ्रीकी तथा अन्य भाषाओं में 'क्लिक' ध्वनियाँ अधिक हैं। इससे यह परिणाम निकाला जा सकता है कि आरंभ की भाषा में क्लिक ध्वनियाँ भी कदाचित् अधिक रही होंगी। वैदिक संस्कृत और हिंदी की तुलना से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि अपेक्षाकृत अब शब्द सरल एवं छोटे हो गये हैं। अन्य भाषाओं में भी यही बात मिलती है। इससे यह ध्वनि निकलती है कि भाषा की आरंभिक अवस्था में शब्द अपेक्षतया बड़े एवं उच्चारण की दृष्टि से कठिन रहे होंगे। होमरिक ग्रीक तथा वैदिक संस्कृत में संगीतात्मक स्वराघात की उपस्थिति के यथेष्ट प्रमाण मिलते हैं। अफ्रीका की असंस्कृत भाषाओं में यह बात पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है, पर अब धीरे-धीरे उसका लोप हो रहा है। इससे स्पष्ट है कि आरंभिक अवस्था में लोग बोलने की अपेक्षा गाते ही अधिक होंगे, अर्थात् आरंभिक भाषा में संगीतात्मक स्वराघात (सुर) बहुत अधिक रहा होगा।

 

(ख) व्याकरण - 

प्रारंभिक भाषा में शब्दों के अपेक्षाकृत अधिक रूप रहे होंगे, जो बाद में सादृश्य या ध्वनि परिवर्तन आदि के कारण आपस में मिलकर कम हो गये। भाषा के ऐतिहासिक अध्ययन में हम देखते हैं कि आधुनिक भाषाओं की तुलना में पुरानी भाषाओं में सहायक क्रिया या परसर्ग आदि जोड़ने की आवश्यकता कम या नहीं के बराबर होती है। इसका आशय यह है कि आरंभिक भाषा संश्लेषणात्मक रही होगी, अर्थात् सहायक क्रिया या परसर्ग इत्यादि जोड़ने की उसमें बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं रही होगी। अपने में पूर्ण नियमों की उस समय कमी रही होगी, और अपवादों का आधिक्य रहा होगा। उन लोगों का मस्तिष्क व्यवस्थित न रहा होगा, अतः भाषा में भी व्यवस्था का अभाव रहा होगा। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बिल्कुल आरंभ में व्याकरण या भाषा-नियम नाम की कोई चीज ही न रही होगी।

 

(ग) शब्द-समूह-

भाषा का जितना ही विकास होता है, उसकी अभिव्यंजना शक्ति उतनी ही बढ़ती जाती है। । साथ ही सामान्य और सूक्ष्म भावों के प्रकट करने के लिए शब्द बन जाते हैं। इसका आशय यह है कि आरंभिक भाषा में अभिव्यंजना - शक्ति अत्यल्प रही होगी, और सूक्ष्म तथा सामान्य भावों के लिए शब्दों का एकान्त अभाव रहा होगा। आज भी कुछ असंस्कृत भाषाएँ हैं जो लगभग इसी अवस्था में हैं। उत्तरी अमेरिका की चेरोकी भाषा में सिर धोने के लिए, हाथ धोने के लिए, शरीर धोने के लिए अलग-अलग शब्द हैं, पर 'धोने' के सामान्य अर्थ को प्रकट करने वाला एक भी शब्द नहीं है। टस्मानिया की मूल भाषा में भिन्न-भिन्न प्रकार के सभी पेड़ों के लिए अलग-अलग शब्द हैं, पर 'पेड़' के लिए कोई शब्द नहीं है। उनके पास कड़ा, नरम, ठंडा और गरम आदि के लिए भी शब्द नहीं है। इसी प्रकार जुलू लोगों की भाषा में लाल गाय, काली गाय और सफ़ेद गाय के लिए शब्द हैं, पर गाय के लिए शब्द नहीं है। इससे यह स्पष्ट परिणाम निकलता है कि आरंभ में शब्द केवल स्थूल और विशिष्ट के लिए ही रहे होंगे, सामान्य और सूक्ष्म के लिए नहीं। 

 

ऊपर की बातों से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि आरंभ के कुछ दिनों के बाद शब्दों का बाहुल्य हो गया होगा। कुछ वर्तमान असभ्य भाषाओं के आधार पर इस बाहुल्य का एक और कारण यह भी दिया जा सकता है कि वे लोग अंधविश्वासी रहे होंगे, अतः सभी शब्दों को सर्वदा प्रयोग में लाना अनुचित माना जाता रहा होगा। उन्हें भय रहा होगा कि देवता या पित्र आदि कुपित न हो जायें, अतः एक ही वस्तु या कार्य के लिए भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न शब्द प्रयोग में आते रहे होंगे।

 

(घ) वाक्य-

भाषा वाक्य पर आधारित रहती है। वाक्य के शब्दों का विश्लेषण करके हमने उन्हें अलग-अलग कर लिया है और उनके नियमों का अध्ययन कर व्याकरण बनाया है। यह क्रिया भाषा और उनके साथ हमारे विचारों के बहुत विकसित होने पर की गई है। आरंभ में इन शब्दों का हमें पता न रहा होगा और वाक्य इस इकाई के रूप में रहे होंगे। शब्दों के रूप में उनका 'व्याकरण' या विश्लेषण नहीं हुआ रहा होगा। उत्तरी अमेरिकावासियों की कुछ बहुत पिछड़ी भाषाओं में कुछ दिन पूर्व तक वाक्यों में अलग-अलग शब्दों की कल्पना तक नहीं की गई थी। 

(ङ) विषय- 

अपने विकास की आरंभिक अवस्था में लोग भावना प्रधान रहे होंगे। तर्क या विचार की वैज्ञानिक श्रृंखला से वे अपरिचित रहे होंगे। पद्यात्मकता की ही प्रधानता रही होगी। यही कारण है कि संसार की सभी भाषाओं में पद्य या काव्य बहुत प्राचीन मिलता है, किंतु गद्य नहीं। इसी प्रकार गीत आदि की भी प्रधानता रही होगी। गीतों में भी स्वाभाविक और जन्मजात भावना के कारण प्रेम, भय, क्रोध आदि के चित्र ही अधिक रहे होंगे।

 

निष्कर्ष - 

भाषा अपने प्रारंभिक रूप में संगीतात्मक थी। उसमें वाक्य शब्द की भाँति थे। अलग-अलग शब्दों में वाक्य के विश्लेषण की कल्पना नहीं की गई थी। स्पष्ट अभिव्यंजना का अभाव था । कठिन ध्वनियाँ अधिक थीं। स्थूल और विशिष्ट के लिए शब्द थे। सूक्ष्म और सामान्य का पता नहीं था। व्याकरण सम्बन्धी नियम नहीं थे। केवल अपवाद ही अपवाद थे। इस प्रकार भाषा प्रत्येक दृष्टि से लँगड़ी और अपूर्ण थी।

 

भाषा की उत्पत्ति के संबंध में हमें अभी तक कोई निश्चित उत्तर नहीं प्राप्त हो सका । हाँ.. एक सीमा तक समन्वित रूप अवश्य मान्य हो सकता है। यों परोक्ष मार्ग के आधार पर भाषा की प्रारंभिक अवस्था के विषय में जो बातें ऊपर कही गई हैं, वे निश्चित रूप से काफी सही हैं।

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