भक्तिकालीन प्रतिनिधि साहित्यकार |कबीरदास जन्म प्रमुख रचनाएँ काव्यगत विशेषताएँ| Bhakti Kal Ke Pramukh Sahitya Kaar

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भक्तिकालीन प्रतिनिधि साहित्यकार  (Bhakti Kal Ke Pramukh Sahitya Kaar)


भक्तिकालीन प्रतिनिधि साहित्यकार |कबीरदास जन्म प्रमुख रचनाएँ काव्यगत विशेषताएँ|  Bhakti Kal Ke Pramukh Sahitya Kaar


कबीरदास जन्म प्रमुख रचनाएँ काव्यगत विशेषताएँ

 

जन्मः 

कबीरदास का जन्म संवत् 1455 में हुआ था। कुछ विद्वान इनका जन्म 1456 में मानते हैं .

प्रमुख रचनाएँ

 कबीर की एक ही प्रामाणिक रचना है बीजक जिसके तीन भाग है- सारवी, शब्द, रमैणी ।

 

हिन्दी साहित्य की भक्तिकालीन काव्य-धारा के निर्गुण पंथी कवियों में कबीरदास का स्थान सर्वोच्च है। वे एक महान विचारक होने के साथ-साथ प्रतिभा सम्पन्न कवि भी थे। उन्होंने सैकड़ों वर्षों से चली आ रही रूढ़ियों को तोड़ डाला। वे एक सच्चे संत कवि और समाज सुधारक थे।

 

कबीरदास काव्यगत विशेषताएँ

 

कबीरदास संत पहले थे कवि बाद में कविता उनके लिए साधन थी, साध्य नहीं। उन्होंने प्रसिद्धि प्राप्ति के लिए काव्य सजन नहीं किया, बल्कि अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए काव्य सजन किया। समाज-सुधारक एवं उपदेशक के रूप में उनके क्रान्तिकारी विचारों के दर्शन होते है। कबीरदास बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके काव्य की विशेषताएं निम्नलिखित हैं

 

(1) निर्गुण ईश्वर में विश्वास, (2) समाज सुधारक, (3) गुरू महिमा का वर्णन, (4) क्रान्तिकारी विचारक, (5) सदाचार पर बल (6) रहस्यवाद, (7) भक्ति भावना, (8) प्रेम भावना, (9) माया के प्रति सावधान, (10) जाति-पाति की भावना का खण्डन आदि ।

 

कबीरदास एक साधु संत कवि आदि सभी रूपों में थे। समाज सुधारकों में उनका प्रथम स्थान है। उन्होंने व्यावहारिक ज्ञान को सुन्दर रूप दिया। कबीर निर्गुण काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी भक्ति भावना में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आती है।

 

नाम स्मरण 

कबीर की भक्ति में नाम का महत्त्व अत्यधिक है। तुलसी के लिए जिस प्रकार "राम तैं अधिक राम कर नामू" है, उसी प्रकार कबीर के लिए भी नाम ब्रह्म है, किन्तु यह नाम स्मरण हाथ में मनका लेकर नहीं करना चाहिए, यह तो मन द्वारा किया जाता है-

 

"माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं । 

मनुआँ तो दस दिसि फिरै, सो तो सुमरिन नाहिं ।। "

 

गुरु की महत्ता पर बल

 

कबीर की भक्ति में सर्वाधिक महत्त्व गुरू को दिया गया है। सतगुरू की महान् कृपा है, जो भक्त पर अमित उपकार करता है। वह भक्त में अनन्त दष्टि उघाड़ देता है, जिससे वह अनन्त ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता है। वह अपने शिष्य के हाथ में ऐसा ज्ञान-दीपक थमा देता है कि वह सन्मार्ग पर सहजतया चल सकता है। कबीर की दृष्टि में गुरू का स्थान गोविन्द से भी उच्चतर है, क्योंकि गोविन्द की पहचान तो गुरू ही करता है। कहा भी गया है-

 

"गुरू गोविन्द दोऊ खड़े काके लाग पाइ 

बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताइ ।। "

 

माधुर्य भाव

 

कबीर की आत्मा निराकार ब्रह्म के लिए उसी प्रकार छटपटाती है, जिस प्रकार कोई प्रिय अपने साकार प्रेमी के लिए विकल होता है। राम से बिछुड़ने पर कबीर को अहर्निश तीव्र वेदना होती है। उसे रात दिन एक क्षण भी सुख नहीं मिलता

 

"वासरि सुख ना रैणि सुख, ना सुख सुपनै माहिं ।

 कबीर विछुट्या राम सूँ। ना सुख धूप न छाँहि । । ”

 

भक्त कबीर की एक ही अभिलाषा है और वह है प्रियतम के दर्शन। यह दर्शन वे अपना सर्वस्व लुटा देने पर भी करना चाहते है-

 

"यहु तन जारौँ मसि करौं, ज्यों धुआँ जादू सरग्गि । 

मति वै राम दया करै, बरसि बुझाने अग्नि ।।"

 

आचरण की शुद्धता

 

कबीर की भक्ति में सदाचार का महत्त्व अत्यधिक है। आचरण की अशुद्धता ईश्वर मिलन में बाधक है। कनक और कामिनी के पीछे दौड़ने वालों को उस लौ की प्राप्ति कहाँ 

"एक कनक अरू कामिनी दुर्गम घाटी दोइ ।

 

'कामिनी' की तो सभी सन्तों ने बुराई की है। पर यहाँ 'कामिनी' का अर्थ सामान्य नारी से नहीं लिया जाना चाहिए। 'कामिनी वह नारी है जो काम वासना में लिप्त रहती है। कामिनी कबीर के लिए काली नागिन के समान है। वे कहते है। कि नारी की झाँई पड़ने से ही भुजंग अन्धा हो जाता है, किन्तु जो सदा ही नारी के साथ रहते हैं उनकी क्या गति होगी

 

"नारी की झाँई परत, अन्धा होत भुजंग। 

कबिरा उनकी कौन गति, नित नारी के संग ।। "

 

आचरण की शुद्धता पर सत्संगति का बहुत प्रभाव पड़ता है यदि असाधु का संग हो जाए तो भक्ति-मार्ग अवरूद्ध ही हो जाएगा।

 

"कबिरा संगति साधु की, हरै और की व्याधि । 

संगति बुरी असाधु की, आठौं पहर उपाधि ।। "

 

ईश्वर की एकता

 

परम्परागत हिन्दुओं से कबीर का यही विरोध है कि उनका बहुदेववाद में तनिक भी विश्वास नहीं। हिन्दुजन, अपने इष्ट की न जाने कितने नामों से आराधना करते है। राम, कृष्ण, शिव, महेश, देवी, दुर्गा, भवानी आदि भक्त कबीर इन सबके पीछे एक ही ईश्वर की कल्पना करते हैं। कबीर का ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, निराकार एवं निर्गुण है। एक स्थल पर तो उन्होंने राम-रहीम, बिसिमिल-बिसंभर, कृष्ण- करीम की एकता प्रतिपादित की है

 

"हमारे राम रहीम करीमा कैसौ अलह राम सति सोई । 

बिसमिल मेंटि बिसम्भर एकै और न दूजा कोई ।। "


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