स्वामी विवेकानन्द जीवन परिचय | Swami Vivekananda Short Biography in Hindi

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स्वामी विवेकानन्द जीवन परिचय 
(Swami Vivekananda Short Biography in Hindi)

स्वामी विवेकानन्द जीवन परिचय | Swami Vivekananda Short Biography in Hindi
 

स्वामी विवेकानन्द जीवन परिचय 

 

  • जनमानस में स्वामी विवेकानन्द की छवि प्रमुखतः श्री रामकृष्ण परमहंस के सन्यासी शिष्य और शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता का शंखनाद करने वाले विजेता के रूप में है । परन्तु उनका इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण योगदान आलस्य और अन्धकार में डूबी हुयी राष्ट्रीय चेतना को झकझोर कर जगाने का रहा है। वे सन्यासियों और अध्यात्ममार्गियों के प्रेरणास्रोत तो हैं हीपरन्तु उससे अधिक वे इस राष्ट्र के युवाओं के प्रेरणास्रोत रहे हैंजिन्हें उन्होंने साहस एवं आत्मबल का सम्बल तथा आधुनिक बौद्धिक दृष्टि का दान दिया है। इस राष्ट्र के सर्वांगीण पुनर्जागरण के लिए इतिहास सदैव उनका ऋणी रहेगा। आश्चर्य नहीं है कि उनका जन्म दिवस आज युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

 

  • स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था । उनका बचपन का नाम नरेन्द्र दत्त था । उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकील थे। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी अत्यन्त धर्मपरायण महिला थीं। बचपन से ही नरेन्द्र एक कुशाग्र बुद्धि एवं जिज्ञासु प्रवृत्ति के बालक थे। छात्र जीवन में उन्होंने विशेषकर दर्शनइतिहासविज्ञानतथा कला का अध्ययन किया । साहित्य और संगीत में भी उन्हें दक्षता प्राप्त थी । एक मेधावी छात्र होने के साथ-साथ वह खेलों एवं शारीरिक व्यायाम में भी रुचि रखते थे । स्वस्थ शरीर स्वस्थ मन का आधार होता हैनरेन्द्र इसको अच्छी तरह समझते थे।

 

  • भारत के इतिहास में 19वीं सदी को पुनर्जागरण काल कहा जाता है। बंगाल के बौद्धिक परिवेश में इस समय एक समन्वय देखने को मिलता है भारतीय संस्कृति की - पुरातन वैदिक परम्परा तथा पाश्चात्य विज्ञान की आधुनिकता का समन्वय । नरेन्द्र अत्यन्त ही जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे और पाश्चात्य विज्ञान के तर्कवाद से प्रभावित थे। एक बार कक्षा में विलियम वर्ड्सवर्थ की कोई कविता पढ़ायी जा रही थी जिसमें समाधि का वर्णन है। मनुष्य की आत्मा और परम ईश्वरीय सत्ता के मिलन की एक विशिष्ट स्थिति समाधि की अवस्था है। नरेन्द्र को इस प्रश्न ने परेशान करना शुरू किया कि क्या वास्तव में ईश्वर होता हैक्या उसको अनुभव किया जा सकता हैनरेन्द्र ने जब यह प्रश्न अपने अध्यापक से किया तो उन्होंनें कहा कि श्री रामकृष्ण परमहंस नामक एक साधु से मिलकर उनको यह आभास हुआ है कि ऐसा सम्भव है। बसइसके बाद जिज्ञासु नरेन्द्र श्री रामकृष्ण परमहंस के पास जा पहुँचेजो कलकत्ता से ग्यारह किलोमीटर दूर दक्षिणेश्वर के मन्दिर में रहते थे। श्री रामकृष्ण ने नरेन्द्र से सीधे सपाट शब्दों में कहा हाँमैं ईश्वर को वैसे ही देखता हूँजैसे तुम्हें देख रहा हूँपरन्तु उससे भी अधिक मूर्त रूप में। इस घटना के बाद नरेन्द्र श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन गये ।

 

  • सन् 1884 में पिता की मृत्यु के पश्चातमात्र 25 वर्ष की आयु में नरेन्द्र ने सन्यास ग्रहण कर लियाएक नये नाम के साथ - विवेकानन्द । अक्सर कहा जाता है कि सन्यास जीवन और जगत से एक तरह का पलायन हैकिन्तु यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। जगत का रहस्य एवं सत्य जानने के लिये सन्यासी साधना की एक अवस्था में स्वयं को संसार से अलग कर लेता हैऔर एकान्त में आध्यात्मिक प्रश्नों का अध्ययनचिन्तन और ध्यान करता है। कुछ वैसे ही जैसे आप परीक्षा के समीप आते ही सारे परिवार से अलग एक कमरे में एकाग्रचित होकर अध्ययन करते हैं। सन्यासी भी जब ज्ञान प्राप्त कर लेता हैजगत के रहस्य को समझ लेता है तब वापस संसार में आकर लोगों के हित के लिये उस ज्ञान का प्रचार एवं प्रसार करता है। महात्मा बुद्ध और आदि शंकराचार्य भी वर्षों तक जंगलों और पहाड़ों में विचरते रहेध्यान करते रहेऔर अन्त में ज्ञान प्राप्त कर जनकल्याण के निमित्त उस ज्ञान के प्रचार प्रसार हेतु संसार में वापस लौटे।

 

  • विवेकानन्द के चरित्र की एक विशेष बात है कि वे गुरू का सम्मान तो करते थेवे गुरू से सन्देह व्यक्त करने या प्रश्न पूछने में कभी संकोच नहीं करते थे । एक परन्तु बार का प्रसंग है कि उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस से कहा- "कोई ईश्वर नहीं है और समाधि की अवधारणा भी मिथ्या है”। यह सुनकर मुस्कराते हुए परमहंस जी ने उन्हें अपने अगूठे से छुआ और गुरू का स्पर्श मिलते ही विवेकानन्द को पूरा ब्रह्माण्ड घूमता हुआ प्रतीत हुआ। इस अनुभूति का वेग इतना अधिक था कि विवेकानन्द उसे सम्भाल नहीं पा रहे थे और वे घबराकर चिल्लाने लगे। यह समाधि के क्षणमात्र का अनुभव था कई दिनों तक वे इस अनुभूति के आनन्द का अनुभव करते रहे।

 

  • स्वामी विवेकानन्द का जीवन ऐसे कई प्रेरणादायक प्रसंगों से भरा हुआ है। पिता की मृत्यु के बाद एक बार उनका परिवार आर्थिक संकट से जूझ रहा था। परिवार की सारी जिम्मेदारी विवेकानन्द के कन्धों पर थी। कुछ मित्रों के कहने पर वह श्री रामकृष्ण परमहंस के पास गये और उनसे अपने परिवार के संकट को दूर करने के लिये कहा । श्री रामकृष्ण ने उनसे स्वयं मन्दिर में जाकर माँ काली से प्रार्थना करने को कहा । विवेकानन्द तीन बार मन्दिर में गये और हर बार माँ काली के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते थे । मन्दिर से बाहर आकर उनको याद आता था कि वह तो कुछ माँगने आये थे परन्तु हर बार माँ काली के सामने आकर भूल जाते थे। वह समझ गये कि यह उनके गुरू का ही कार्य हैऔर वह उन्हें समझाना चाहते थे कि अपने व्यक्तिगत दुखों को लेकर उस परमसत्ता के सामने रोनागिड़गिड़ाना क्षुद्रता है।

 

  • सन् 1886 में श्री रामकृष्ण परमहंस के समाधिस्थ होने के बाद विवेकानन्द ने बेलूर मठ की स्थापना कीऔर उसके बाद भारत - भूमि के चप्पे-चप्पे के भ्रमण पर निकल पड़े। इसी दौरान उन्हें ज्ञात हुआ कि शिकागो में विश्वधर्म सम्मेलन होने जा रहा है। उस समय वह कन्याकुमारी में एक शिला पर बैठे थे। अचानक उनको आभास हुआ कि मानों स्वयं उनके गुरू उनसे इस सम्मेलन में भाग लेने को कह रहे हों। इसी क्षण को यादगार बनाने के लिये बाद में कन्याकुमारी की उसी शिला पर भव्य विवेकानन्द स्मारक का निर्माण हुआजिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। यह बात १८६३ की है। कुछ मित्रों एवं शुभचिन्तकों की सहायता से स्वामी जी अमेरिका पहुँच गये। उस विशाल सभागार में अनेक धर्मगुरू अपने-अपने धर्म के बारे में व्याख्यान दे चुके थे । परन्तु ज्यों ही स्वामी विवेकानन्द ने अपने वक्तव्य का प्रथम वाक्य बोला- "मेरे अमरीका के भाइयों और बहनों"कर्णभेदी तालियों से सभागार दो मिनट तक गूंजता रहा। उनके आकर्षक व्यक्तित्व एवं सारगर्भित व्याख्यान ने लोगों को सम्मोहित कर दिया। उसके बाद वहाँ लोग उनको ही सुनने आते थे। आज भी लोग इन्टरनेट पर उनके इस व्याख्यान को प्रेमपूर्वक सुनते हैंजिसका सार है कि सभी धर्म प्रेमअहिंसासहिष्णुता तथा विश्वबन्धुत्व का संदेश देते हैं। स्वामी जी के आध्यात्मिक ज्ञान के समक्ष सारा विश्व नतमस्तक हो गया । 

  • अपने मात्र उनतालिस वर्ष के जीवन काल में स्वामी जी ने जो कुछ भी भारत के युवाओं में एक नयी चेतना की स्थापना के लिये किया वह सदैव अनुकरणीय है । कई लोगों की मान्यता है कि 4 जुलाई 1902 को सायं 9 बजे जब स्वामी जी अपने प्राण त्यागे तब वे समाधि और ध्यान की गहरी अवस्था में थे। कुछ घण्टों पूर्व हीअपराह्न 1 बजे से 4 बजे तकस्वामी जी ने ब्रह्मचारियों की एक कक्षा में शुक्ल यजुर्वेद तथा पाणिनीय व्याकरण पर एक लम्बा व्याख्यान दिया था। यह स्वामी जी के संस्कृत भाषावेदान्त और भारतीय संस्कृति के प्रति गहरे अनुराग को प्रकट करता है। स्वामी विवेकानन्द का यह अन्तिम कार्य ही उनकी अन्तिम शिक्षा है।

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