सन्त फ्रांसिस ऑफ असीसी का जीवन परिचय | Saint Francis of Assisi Details in Hindi

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सन्त फ्रांसिस ऑफ असीसी का जीवन परिचय 
(Saint Francis of Assisi Details in Hindi)
सन्त फ्रांसिस ऑफ असीसी का जीवन परिचय  | Saint Francis of Assisi Details in Hindi

सन्त फ्रांसिस ऑफ असीसी का जीवन परिचय 

 

  • सन्तफ्रांसिस का जन्म सन 1181  में इटली के असीसी नगर में एक समृद्ध परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम जोवान्नी डी बर्नार्डोनी था। उनकी माता का नाम पाइका ड बूर्लमॉन्ट था। उनके पिता पिएट्रो डी बर्नार्डोनी रेशम के व्यापारी थे और वे चाहते थे कि उनका पुत्र इस व्यापार को आगे बढ़ाये युवा फ्रांसिस शौकीन तो थे, मगर धन-दौलत के प्रति उनमें कोई विशेष आसक्ति नहीं थी । वे प्रायः उदारता पूर्वक अपने मित्रों की मदद किया करते थे।

 

  • मध्यकालीन युग में यूरोप के हर छोटे छोटे देश प्रभुत्व के लिए हमेशा आपस में लड़ा करते थे। परिणाम स्वरूप उनके युवाओं में राष्ट्रभक्ति कूट कूट कर भरी हुई थी, और वे सभी सेना में शामिल होकर अपने देश की सेवा के लिए आतुर रहते थे। फ्रांसिस भी इसी भाव से असीसी की सेना में भर्ती हो गये। परन्तु एक दिन पड़ोसी राष्ट्र के साथ युद्ध के दौरान फ्रांसिस को ईश्वर की वाणी सुनायी पड़ी कि किसी की जान लेना जघन्य पाप है। फ्रांसिस ने अपने हथियार डाल दिए और युद्ध लड़ने से मना कर दिया। नतीजा यह हुआ कि उन्हें देशद्रोही करार करते हुए जेल की कालकोठरी में डाल दिया गया। वर्षों बाद जेल से रिहा होने के पश्चात जब फ्रांसिस घर वापस आ रहे थे, तो वे रास्ते में सैन डेमिआनों के अति जीर्ण गिरिजाघर में प्रार्थना करने के लिए रुके। यहाँ एक बार फिर उन्हें इस गिरिजाघर का जीर्णोद्धार करने का ईश्वरीय आदेश प्राप्त हुआ। परन्तु जीर्णोद्धार अकेल हाथों से तो किया नहीं जा सकताय उसके लिए धन की भी आवश्यकता होती है। फ्रांसिस को एक उपाय सुझायी पड़ा और वे अपने पिताजी की दुकान पर बैठने लगे । व्यापार में जो लाभ होता, उसे वे जीर्णोद्धार के काम में लगा देते। पिताजी को जब इसका पता चला तो वे आग-बबूला हो उठे। उन्होंने न केवल फ्रांसिस को घर से निकाल दिया, बल्कि पुत्र के साथ अपने सभी सम्बन्ध विच्छेद कर लिए । फ्रांसिस के लिए अब परमपिता परमेश्वर ही उनके पिता थे और उनके चरणों में उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।

 

  • अब दया और करुणा के भाव से फ्रांसिस का हृदय ओतप्रोत था । जीजस क्राइस्ट की भाँति, फ्रांसिस ने भी कुष्टरोगियों की सेवा का व्रत उठाया, और असीसी शहर के बाहर स्थित कुष्टाश्रम के रोगियों की सेवा-सुश्रुषा में लग गये। इसके साथ ही फ्रांसिस ने साधना की प्राचीन परम्परा के अनुसार निर्धनता से जीवन यापन करने का निर्णय लिया। अपरिग्रह या धन एवं अनावश्यक वस्तुओं के त्याग से सांसारिक वासनाओं से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। ऐसी प्राचीन मान्यता है कि संसार की सत्ता से मुक्ति ही निर्वाण है, मोक्ष है। गरीबी से जीवन यापन करना ईसाई धर्म में श्रेष्ठतम सदाचारों में गिना जाता है। बाइबल में लिखा है कि सुई के छेद में से ऊँट निकल जाय, यह सम्भव हो सकता है, मगर धनवान व्यक्ति का स्वर्ग में प्रवेश कतई सम्भव नहीं है। 


  • रोमन कैथलिक सम्प्रदाय की तीन ईंजलिक आधारशिलाओं में निर्धनता का जीवन प्रमुख हैय अन्य दो हैं - ब्रह्मचर्य एवं आज्ञाकारिता । आज भी इस सम्प्रदाय के अनगिनत साधक अपरिग्रह का जीवन व्रतपूर्वक जीते हैं, और इस परम्परा के अलग अलग रूप विभिन्न धर्मों यथा, हिन्दू, बौद्ध, जैन और इस्लाम 1 में पाये जाते हैं। टॉल्सट्वाय मदर टेरेसा, पोप फ्रांसिसय बुद्ध, कबीर, नानक, गाँधी और रामकृष्ण परमहंस इस सादगीपूर्ण जीवन के उदाहरण हैं.  


  • जैसे जैसे फ्रांसिस भौतिक जगत की अनावश्यक वस्तुओं और प्रलोभनों का त्याग करते गये, वैसे वैसे उन्हें प्राप्त होने वाले ईश्वरीय संदेशों की निरन्तरता और तीव्रता बढ़ती गयी। यह संदेश उन्हें हमेशा अहम् या स्व का अधिक से अधिक त्याग करने की प्रेरणा देते। इनसे उन्हें यह भी पता चलता था कि ईश्वर उन्हें किस पथ पर ले जाना चाहता है। धीरे धीरे उनकी आध्यात्मिक चेतना एक दृढ़ स्थिर और स्पष्ट आकार लेने लगी। उनके आसपास के लोगों को उनमें एक अलौकिक आकर्षण दिखायी देने लगा। इस साधारण सी वेशभूषा वाले मसीहा के उद्बोधन में जो दिव्यता झलकती थी, वह चर्च के परिधान से विभूषित पादरियों में दूर दूर तक नहीं थी । धीरे धीरे फ्रांसिस के अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। उनके प्रथम बारह शिष्यों में व्यापारी, कृषक, मोची, पण्डित, शूरवीर और अभिजात्य वर्ग के लोग शामिल थे, ठीक वैसे ही जैसे जीजस क्राइस्ट की शिष्य-मण्डली में थे। अपने आराध्य क्राइस्ट की भाँति इन्होंने भी असीसी के लोगों को ईश्वर का शुभ संदेश देना प्रारम्भ कर दिया। 
  • फ्रांसिस के इन बारह शिष्यों ने एकमत से निर्णय लिया कि वे प्रभु ईशा मसीह के पवित्र संदेश के अनुसार बिना किसी वस्तु का संग्रह किए सादगी एवं ब्रह्मचर्य का जीवन जियेंगे । परन्तु प्रभु के सन्देश का प्रचार करने के लिए उन्हें चर्च की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था। इसी उद्देश्य से सन १२०६ में फ्रांसिस तत्कालीन गद्दी पर विराजमान पोप इनोसेन्ट से अपना संघ स्थापित करने की अनुमति प्राप्त करने के लिए मिले। उन्होंने बताया कि यह संघ यीशु के बताये गये दो प्रमुख सदाचारों – भिक्षाटन एवं कठोर आत्मसंयम पर आधारित होगा। अट्ठाइस वर्ष के युवा फ्रांसिस की 1 संकल्पशक्ति देख कर पोप इनोसेन्ट अत्यन्त प्रभावित हुए और इस नये संघ की स्थापना की सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी। 

  • संघ की स्थापना के पश्चात फ्रांसिस ने प्रभु के संदेश को विश्व के कोने कोने में पहुँचाने के लिए पोप की अनुमति प्राप्त की। इस अभियान में फ्रांसिस ने येरुशलम, मोरक्को और ट्युनिस की यात्रा की। अपने मृदु स्वभाव के कारण वे हर जगह लोकप्रिय हुए, और अपने धर्म के प्रचार प्रसार में उन्होंने आशातीत सफलता प्राप्त की । इस कार्य में उन्हें एक लम्बी अवधि तक विदेश में प्रवास करना पड़ा। इस दौरान उनके संघ के भिक्षुओं की संख्या कई गुनी बढ़ गयी। संघ के आदर्शों से भटक कर अनेक भिक्षु आरामतलबी और विलासिता का जीवन जीने लगे थे। फ्रांसिस ने वापस आ कर संघ की यह स्थिति देखी तो उन्हें बहुत कष्ट हुआ। पहले तो उन्होंने इन भटके हुए भिक्षुओं को समझा बुझा कर सन्मार्ग पर लाने की कोशिश की, परन्तु जब उनके समझाने का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा तो फ्रांसिस ने अपने को संघ से अलग कर लिया। अपना शेष जीवन फ्रांसिस ने अपनी छोटी सी कुटिया के एकान्त में उपवास प्रार्थना और लेखन करते हुए बिताया । 

  • प्राचीन काल से प्रमाण मिलते हैं कि भक्त के मन, प्राण और शरीर में उसके आराध्य के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। ईसाई धर्म में भक्तों के शरीर पर यीशु की सूली पर शारीरिक यातना के लक्षण दिखायी देते हैं जिन्हें स्टिगमेटा कहा जाता है। जीवन के अन्तिम काल में फ्रांसिस की देह पर भी यीशु की सूली के लक्षण दिखने लगे थे। कठोर साधना में एकाग्रचित्त फ्रांसिस अपने शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दे रहे थे। परिणाम स्वरूप उनकी सेहत गिरने लगी, और अन्ततः 3 अक्टूबर 1226 को मात्र 45 वर्ष की आयु में फ्रांसिस ने अपना देहत्याग कर दिया।

 

  • मनसा, वाचा, कर्मणा, सन्त फ्रांसिस पूर्णरूपेण अपने आराध्य प्रभु यीशु के अनुयायी थे। प्रभु को समर्पित उनका जीवन ही उनकी शिक्षा है। आपने देखा कि किस तरह एक बार फ्रांसिस को अपने जीवन की दिशा के दर्शन हुए तो उस मार्ग पर वे बिना डिगे, बिना डगमडाये, जीवन पर्यन्त चलते रहे। इससे हमें उनके दृढ़ विश्वास और श्रद्धा का पता चलता है। यह वे मूल्य हैं, जिनके बिना अर्थवत्तापूर्ण जीवन की डगर पर एक कदम भी नहीं चला जा सकता। समर्पण की इस राह पर फ्रांसिस ने अपने माता - पिता, घर-परिवार, धन-दौलत सभी का पूर्णरूपेण त्याग कर दिया। हम चाहें कि अपनी एक जेब में संसार की मौज-मस्ती रखें और दूसरी में धर्म एवं ईश्वर तो यह कतई सम्भव नहीं है यही शिक्षा हमें सन्त फ्रांसिस के जीवन से मिलती है। फ्रांसिस को केवल मानवता से ही नहीं, बल्कि सभी जीव-जन्तुओं, प्रकृति तथा सम्पूर्ण सृष्टि से प्यार था । इसीलिए सन्त फ्रांसिस को पर्यावरण और सम्पूर्ण प्राणि जगत के संरक्षक सन्त होने का सम्मान प्राप्त है। उनके जीवन से हमें सादगीपूर्ण और सत्यनिष्ठा का जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है।

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