आदिकालीन कविता की प्रवत्तियाँ |आदिकालीन काव्यगत प्रवत्तियों का आंकलन | Aadikalin Kavita aur unki Pravartiya

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आदिकालीन कविता की प्रवत्तियाँ

आदिकालीन कविता की प्रवत्तियाँ |आदिकालीन काव्यगत प्रवत्तियों का आंकलन | Aadikalin Kavita aur unki Pravartiya

आदिकालीन कविता की प्रवत्तियाँ 

आदिकालीन हिंदी कविता की प्रवत्तियों का अध्ययन करने की सुविधा को ध्यान में रखते हुए इसे चार भागों में विभाजित किया जा सकता है।

 

1. विचारात्मक प्रवृत्तियाँ 

2. वस्तुपरक प्रवत्तियाँ 

3.भावात्मक प्रवत्तियाँ 

4. शिल्पनात्मक प्रवत्तियाँ 



आदिकालीन कविता की विचारात्मक प्रवत्तियाँ

 

(क) आध्यात्मिक क्षेत्र में ब्रह्म का निर्गुण और सगुण रूप

 आध्यात्मिक क्षेत्र को परिपूरित करने के लिए इस काल के रचनाकारों ने ब्रह्म के निर्गुण और सगुण रूप को मान्यता प्रदान की है। सिद्धों और नाथों तथा जैनियों ने ब्राह्मण धर्म के विरोध में सगुण ब्रह्म के स्थान पर निर्गुण ब्रह्म को अपनाने का आग्रह किया है। 

सिद्धों ने तंत्र और मंत्र को अपनाने का आग्रह किया है वही नाथों ने योग को महत्ता प्रदान की है। नाथों का योग सामान्य स्तर का नहीं है। चारण कवि चन्दवरदाई और श्रीकृष्ण के उपासक विद्यापति ने सगुण ब्रह्म की साधना के लिए भक्ति को अपनाने का आग्रह किया है। विद्यापति ने उमा - शिव को स्तुतिपरक पदों में पूजा है। शेष पदों में उन्होंने श्री कृष्ण को आराध्य माना है।

 

(ख) धार्मिक भावनाः 

सिद्धों ने रूढ़ियोंपाखण्डोंमिथ्याचारों का खुलकर विरोध किया है। नाथों ने कायासाधना को महत्त्व दिया और इन चीजों एवं कार्यों का विरोध किया क्योंकि इनसे साधना में एकाग्रता नहीं आतीएकाग्रता आती है योग साधना के द्वारा। चारण कवियोंजैन कवियों और विद्यापति ने भी इन ब्राह्य आडम्बरों का विरोध किया और धर्म को लोक से और मानव से जोड़ने का सराहनीय कार्य किया. 

 

(ग) साहित्यिक क्षेत्र

 सिद्धों की रचनाओं एवं ग्रन्थों में प्रतीकों और उलटबासियों के माध्यम से रहस्यवाद उद्घाटित हुआ है। वह संसार की व्यावहारिक भाषा में व्यक्त नहीं हो सकता। आत्मा और परमात्मा के मिलन की अभिव्यक्ति जहाँ सिद्धों ने प्रतीकों से की हैवहीं नाथो ने पारिभाषिक शब्दावलियों से सिद्धों ने उलटबासियों का भी प्रयोग किया है।

 

आदिकालीन कविता की वस्तुपरक प्रवत्तियाँ

 

(क) सामंतवादी स्थिति का आंकलनः 

सिद्धों नाथों ने सामंतवादी समाज और संस्कृति का आंकलन करते हुए अपने मत प्रस्तुत कर दिये हैं। उनका समाज से कुछ लेना-देना नहीं था । वे पहुँचे हुए साधक थे। जैन और चारण कवियों ने राजाओं के आश्रय में रहकर उनके समाज और संस्कृति को खुली आँखों से देखा था और उसे कविता में ढाला भी था। इस वर्णन में सच्चाई का बखान अधिक था और काल्पनिकता कम ।

 

(ख) युद्धों का वर्णन 

सिद्धों नाथों ने न तो युद्धो को महत्त्व दिया है और न सामान्य जनजीवन को। इस कार्य में केवल चारण रचनाकार ही निपुण थे ।

 

(ग) नारी के प्रति दष्टिकोण

सिद्ध कवियों ने पहले तो नारियों की घुसपैठ का विरोध किया लेकिन बाद में तांत्रिक साधना के तहत इनको भी स्थान देना प्रारम्भ कर दिया। बाद में नैतिक बंधन इतने ढीले हो गये थे कि व्यभिचारपरक बातों का खुलासा होता चला गया।

 

(घ) प्रकृति का वर्णनः

सिद्धोंनाथों ने प्रकृति को साधना का अंग नहीं बनने दिया। उन्होंने प्रकृति का प्रयोग कहीं-कहीं प्रतीक रूप में अवश्य किया है। जैन कवियों ने प्रकृति को नारी का प्रतीक माना है जो साधना में विघ्न पैदा करती है।

 

आदिकालीन कविता की भावात्मक प्रवृत्तियाँ

 

(क) विरह की अनुभूतिः 

सिद्धों और नाथों ने साधना के स्तर पर विरह को महत्त्वपूर्ण माना है। आत्मा परमात्मा से अलग होकर जो दुःख की अनुभूति करती है उसे ही विरह कहा है। यह विरह आध्यात्मिक साधना का अंग बनकर इन रचनाओं में व्यक्त हुआ है। जैन कवियों की आध्यात्मिक रचनाओं में भी विरह का यही रूप मिलता है।

 

(ख) नारी रूप चित्रणः 

सिद्ध साहित्यकारों ने अन्त में भिक्षुणियों को प्रवेश दिलाकर नारी की उपस्थिति को दर्ज करा दिया है। इन नारियों के आगमन से भोग को स्थान मिला जिससे उसमें विकृतियाँ आ गयी। इन विकृतियों के कारण ही इस साहित्य का विकास अवरूद्ध हो गया। नाथों ने नाटियों से अपने आप को दूर रखा। जैन कवियों ने साधना के क्षेत्र मे साध्वियों के रूप में नारियों को प्रवेश दिलाकर उसे पथ भ्रष्ट कर दिया। स्त्री के विभिन्न अंगों के स्पष्टीकरण के लिए इन कवियों ने प्राकृतिक उपमानों का भरपूर तरीके से उपयोग किया है। चारण कवियों की रचनाओं में नारीत्व चित्रण की प्रधानता देखी जा सकती है।

 

(ग) नायिका-भेद वर्णनः 

नायिका-भेद का मिश्रण रास ग्रंथों और मैथिली काव्य की एक विशेषता है। रास - ग्रंथों में जिन नायिकाओं को स्थान मिला है वे गहस्थिक रूप में है। इन्हें ही शास्त्रीय परिपेक्ष्य मे स्वकीया नायिका कहा गया है। परकीया नायिका को विद्यापति ने विशेष महत्त्व प्रदान किया है।

 

आदिकालीन कविता की शिल्पनात्मक प्रवत्तियाँ

 

(क) भाषिक प्रयोग: 

शिल्प एक प्रक्रिया है वह भी गतिशील जो कि रचना की सजनात्मकता को सार्थकता प्रदान करती हैं। शिल्प का प्रयोग बहुत कुछ भाषा के रचाव पर निर्भर करता है। रचनाकार शिल्प को मध्य नजर रखकर लोक जीवन से उन सार्थक शब्दों का चुनाव करता है जो उनके वस्तुलोक और भावलोक को समद्ध करते हैं। सिद्धोनाथोंजैन कवियोंचारण कवियों आदि ने शब्दों का गठन इसी स्तर पर किया है।

 

(ख) छंद-प्रयोग: 

सिद्धों की रचनाओं में सजित चर्चागीत गेय पदों के रूप में प्रकट होते हैं। प्रत्येक चर्चागीत के प्रारम्भ में किसी न किसी राग का उल्लेख मिलता है। इन चर्चागीतों में माश्रिक छंदों का प्रयोग किया गया है।

 

(ग) अलंकार - प्रयोग:

 सिद्धों की रचनाओं में अन्त्यानुप्रासउपमाउत्प्रेक्षारूपक आदि अलंकारों का प्रयोग देखने में आता है। नाथ साहित्य में इन अलंकारों के अतिरिक्त श्लेषवक्रोक्तिप्रतीकअपहनुति और उभयालंकार के उदाहरण भरे पड़े हैं। मैथिली साहित्य में शब्दालंकार के साथ अर्थालंकार का प्रयोग भी मिलता है। 


आदिकालीन काव्यगत प्रवत्तियों का आंकलन इस प्रकार किया जा सकता है

 

संदिग्ध प्रामाणिकता 

भाषा शैली और विषय सामग्री की दष्टि से इस काल की रचनाओं के संबंध में कहा जा सकता है कि इसमें निरन्तर कई शताब्दियों तक परिवर्तन होता रहा है। परिवर्तन का यह कार्य इतनी अधिक मात्रा में हुआ है कि इनका मूल रूप भी दब गया है। खुमान रासो में सोलहवीं शती की सामग्री का समावेश कर लिया गया है। पथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता आज तक भी संदिग्ध है। इसी प्रकार बीसलदेव रासोदरमाल रासो आदि की प्रामाणिकता भी संदेह के घेरे में है।

 

ऐतिहासिकता का अभाव 

इन रचनाओं में इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तियों को लिया गया हैकिन्तु उनका वर्णन शुद्ध इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। डा० रामकुमार वर्मा का मानना है कि- "यद्यपि ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण भी उसमें प्राप्त होता हैपर उनका विस्तार और वर्णन कल्पना के सहारे ही किया जाता थातिथि पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था । "

 

युद्धों का सजीव चित्रण 

आदिकालीन कवि अपने आश्रयदाताओं के साथ युद्ध क्षेत्र में जाते और युद्ध करते थे। इसलिए इनके द्वारा वर्णित युद्ध अत्यन्त सजीवमार्मिक और यथार्थ बन पड़े हैं।

 

आश्रयदाताओं की अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसा 

इस काल में अधिकांश साहित्य की रचना राज्याश्रित कवियों के द्वारा हुई है। कवियों ने अपने • आश्रयदाता को ही सर्वश्रेष्ठ वीरपराक्रमी सम्राट अनुपम दानवीरदढप्रतिज्ञ सिद्ध कर उनका अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन किया है। डा० रामकुमार वर्मा के अनुसार, "कवि का आदर्श अधिकतर अपने चरित-नायक के गुण वर्णन तक ही सीमित रहता था।"

 

संकुचित राष्ट्रीयता 

अपने आश्रयदाता को ही सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ मानने और घोषित करने के कारण ही इन कवियों की राष्ट्रीय भावना केवल अपने आश्रयदाता के छोटे-छोटे राज्यों की सीमाओं तक ही सिमटकर रह गयी थी। वीरता का आदर्श रूप निम्न पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है

 

बारह बरिस लौं कूकर जीयेंऔर तेरह लौं जिए सियार । 

बरिस अठारह छत्री जीयेंआगे जीवन को धिक्कार ।। जन-जीवन की उपेक्षा

 

इन ग्रंथों में सामंती जीवन उभर आया है। कवि अपने आश्रयदाताओं की वीरता और रसिक- वत्ति तक ही सीमित रहे हैंइसलिए इनमें तत्कालीन जन-जीवन उपेक्षित रहा है।

 

आदिकालीन काव्य के रूप 

आदिकालीन रचनाएँ प्रबन्ध और मुक्तक दोनों रूपों में मिलती है। प्रथम वर्ग का सर्वाधिक प्राचीन उपलब्ध ग्रंथ है 'पथ्वीराज रासोऔर दूसरा ग्रंथ 'बीसलदेव रासो'। आदिकाल में हमें वीर गीत और वीर- प्रबन्ध काव्य दोनों प्रकार के ग्रंथ मिलते हैं।

 

वीर और भंगार रस का समन्वय 

आदिकालीन साहित्य में प्रायः वीर और भंगार रस का सुन्दर सामंजस्य है। उस समय स्त्रियाँ ही प्रायः पारस्परिक वैमनस्य का कारण हुआ करती थी। इसलिए वीर गाथाओं में उनके रूप का वर्णन करनाकवियों को अभिष्ट था। युद्ध के समय ही नहींशांति के समय भी वीरों के विलास-प्रदर्शन में श्रंगार का आकर्षण चित्रित किया गया है।

 

भाषाओं के विविध रूप 

आदिकालीन रचनाओं के दो रूप ही प्रधान मिलते हैं- अपभ्रंश और अपभ्रंश प्रभावित पिंगल अतिरिक्त युद्ध वर्णनों में एक ऐसी भाषा के दर्शन होते हैं जिसे विद्वानों ने 'डिंगलकहा है। डा० रामकुमार वर्मा ने लिखा है, ' यह वीर रस के लिए बहुत उपयुक्त थीइसलिए इसका प्रयोग इस काल में बड़ी सफलता के साथ हुआ।"

 

छंदों का बहुमुखी प्रयोग

 

छंदों का जितना बहुमुखी प्रयोग इस साहित्य में हुआ हैउतना इसके पूर्ववर्ती साहित्य में नहीं हुआ। दोहातोटकतोमरगाथागाहाआर्या सट्टकउल्लाला और कुंडलियाँ आदि छंदों का प्रयोग बड़ी कलात्मकता के साथ किया गया है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार रासो के छंद जब बदलते हैं तो श्रोता के चित्त में प्रसंगानुकूल नवीन कम्पन्न उत्पन्न करते हैं।

 

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आदिकालीन साहित्य अपभ्रंश साहित्य के समान्तर विकसित हुआ है। काव्य-शैलियोंकाव्य रूपों आदि की विशाल परम्पराओं के अध्ययन की दष्टि से इस काल के साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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