पाश्चात्य दृष्टि में मूल्य ह्रास - कारण एवं निदान |प्राचीन ग्रीस के प्रमुख विचारक | Prachin Greece Ke Vicharak

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पाश्चात्य दृष्टि में मूल्य ह्रास - कारण एवं निदान

प्राचीन ग्रीस के प्रमुख विचारक

पाश्चात्य दृष्टि में मूल्य ह्रास - कारण एवं निदान |प्राचीन ग्रीस के प्रमुख विचारक  | Prachin Greece Ke Vicharak


 

सामान्य परिचय 


  • मूल्यों के ह्रास के विषय में आपने भारतीय दृष्टिकोण देखा कि किस तरह धर्म की ग्लानि या धर्म का अभाव ही अधर्म की उत्पत्ति अथवा मूल्यों के हास का मूल है। मूल्य ह्रास की प्रक्रिया सार्वभौमिक है, वह हर राष्ट्र, हर संस्कृति की समस्या है। इस समस्या को पश्चिम में किस तरह देखा गया है, इसका अध्ययन हम प्रस्तुत इस आर्टिकल में करेंगे।

 

  • जिस तरह वेद, पुराण, रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति का आदिकाल है, उसी तरह प्राचीन ग्रीक दर्शन पाश्चात्य संस्कृति का आदिकाल है। भारत में जिन अर्थों में धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है, लगभग उन्हीं अर्थों में पश्चिम में अंग्रेजी के virtue शब्द का प्रयोग है। अनेकों शब्दकोशों को खंगालने के बाद अपतजनम शब्द के लिए जो निकटतम अनुवाद प्राप्त होता है, वह है सद्गुण और सदाचार। इस लिए - प्राचीन ग्रीस (यूनान) से लेकर आधुनिक पाश्चात्य परम्परा तक पाश्चात्य दर्शन में विवेचना का मूल प्रश्न है कि मनुष्य के लिए सर्वोत्कृष्ट सदाचार या सद्गुण क्या है, उसकी प्राप्ति का मार्ग क्या है, और पथभ्रष्ट हुए मनुष्यों के दुर्गुणों या दुराचार का कारण क्या है?

 

  • इस आर्टिकल में हम पश्चिम के बारह दार्शनिकों के मूल्य-विषयक मत के बारे में संक्षेप में मगर सारगर्भित अध्ययन करेंगे। साथ ही पश्चिम के अत्यन्त प्राचीन तथा महत्वपूर्ण दस्तावेज मूसा के दस धर्मादेश' पर भी एक निगाह डालेंगे।

 

पाश्चात्य परम्परा के अध्ययन की आवश्यकता

 

  • आज के युग में वैश्विक बाजार तन्त्र और आधुनिक टेक्नॉलजी ने विश्व को एक गाँव में तब्दील कर दिया है। और इस गाँव में रहना है, तो गाँव के तौर-तरीके तो जानने ही होंगे। किसी भी समाज के तौर-तरीके, रीति-रिवाज उसके शासक वर्ग से प्रभावित होते हैं। हमारे राज्य में यदि वामपन्थी दल में सत्ता में है, तो उनकी मान्यताएं माननी होंगी, यदि दक्षिणपन्थी सत्तारूढ़ हैं, तो उनके अनुसार चलना होगा। हमारा देश यदि अंग्रेजों का उपनिवेश है, तो अंग्रेजी संस्कृति सर्वोपरि है, यदि फ्राँसीसी उपनिवेश हुआ तो फ्राँसीसियों का चाल-चलन अपनाना हमारी व्यावहारिक आवश्यकता है। आज के सन्दर्भ में यह नकारा नहीं जा सकता कि इस वैश्विक गाँव में प्रभुत्व तो पश्चिम का ही है। इसलिए पश्चिम के विचारों से भिज्ञता हमारी व्यावहारिक अनिवार्यता है।

 

  • परन्तु ज्ञान के मार्ग में हमें एक और बात का बोध होना चाहिए। हर संस्कृति के ज्ञान की एक अपनी विशिष्ट भूमि है, और एक भूमि के जीव या वनस्पति किसी दूसरी भूमि पर पूर्ण जीवन्तता से विकसित नहीं हो सकते। देवदार के वृक्ष का सौन्दर्य निःसन्देह अनुपम है, परन्तु वह हिमालय की उचाइयों पर ही हो सकता है, पहाड़ की तलहटी में नहीं । इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण नें बहुत पहले आगाह किया था -

 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । 

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। ( गीता, ३.३५ )

 

  • अपना धर्म, अपनी संस्कृति, अपने रीति-रिवाज कितने भी टेढ़ें- मेढ़े हों, विजातीय संस्कृति में महारत पाने से लाख गुना अच्छे हैं। अपने घर में नल ठीक काम नहीं कर रहा है, तो उसे ठीक कर लीजिए, पड़ोसी का नल मत उखाड़ के लाइए क्योंकि वह आपके यहाँ फिट ही नहीं होगा। इसीलिए सनातन मान्यता है कि विदेशी को गुरू मत बनाइए। अरस्तू कितने भी बड़े दार्शनिक हों, वह टॉम और जोजफ के गुरु हो सकते हैं, भगवान दास के नहीं । अपने पूर्वजों की बात आपको जितनी सुगमता से ग्राह्य हो सकती है, उस तरह सारी उम्र साधने के बाद भी पाश्चात्य विचारकों की बातें पूरी तरह पल्ले नहीं पड़ती। भारतवर्ष के अंग्रेजी साहित्य के तमाम पुरोधा विद्वानों को जीवन के अन्तिम पड़ाव में शरण रामायण और श्रीमद्भागवत में मिली न कि शेक्सपीयर में।

 

  • इस बोध के साथ यदि पाश्चात्य दर्शन का अध्ययन किया जाय, तो वह अत्यन्त आनन्ददायक है। भारतीय दर्शन की सनातन मान्यता रही है "एक सद्विप्रा बहुधा - वदन्ति" । सत्य हो या ईश्वर, वह तो एक ही है। जन्म-मृत्यु, हर्ष - शोक हों या गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त, वे अंग्रेज या हिन्दुस्तानी हिन्दू या मुसलमान, मनुष्य या घोड़ा - सबके लिए एक ही हैं। हाँ, यह जो सत्य है, उसका वर्णन विद्वान लोग भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। बुद्ध हों या यीशु उनका अपने चेलों को यह सत्य समझाने का तरीका अलग अलग है। लेकिन वर्णन-भेद वस्तु भेद स्थापित नहीं करता। किस कालखण्ड में किसने और किसके लिए बोला, यही वर्णन की भिन्नता के मूल में है। और जब बुद्धि भेद ही भेद देखनें में तल्लीन हो - हिन्दू और मुसलमान में क्या भेद है, कुत्ता और बिल्ली में क्या भेद है। तो यह भेद इतना गहरा जाता है कि लोग नफरत और -हिंसा पर उतर आते हैं। परन्तु यही बुद्धि जब सनातन, सार्वभौमिक, एक को साधने लगती है, तो सारे भेद गौण हो जाते हैं। फिर तो पुरुष हो या स्त्री, आदमी हो या गायकृष्ण हों या मोहम्मद, भारतीय दर्शन हो या पाश्चात्य, सभी के केन्द्र में वही एक सार्वभौमिक सत्य प्रकाशमान दिखता है। सार्वभौमिक सत्य की तलाश ही स्वाध्याय के वैश्विक विस्तार का मूल है।

 

सर्वोत्कृष्ट मानव मूल्य; मूल्यह्रास के कारण एवं निदान

 

  • पाश्चात्य चिन्तन की विवेचना के पूर्व आवश्यक है कि वहाँ प्रयुक्त होने वाली प्रमुख शब्दावली को समझ लिया जाय पाश्चात्य मान्यता है कि Happiness जीवन का एकमात्र परम उद्देश्य है। शब्दकोश में हैपिनेस का अर्थ सुख या प्रसन्नता है। "एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" के आलोक में यदि इसी विचार को भारतीय चिन्तन में तलाशें, तो हमें आनन्द शब्द मिलता है। उपनिषद् कहता है कि हमारी उत्पत्ति आनन्द में है, आनन्द में ही हम अवस्थित हैं, और आनन्द में ही हमारा विलय है। इसी प्रकार Virtue शब्द का अर्थ सदाचार मिलता है, परन्तु वर्च् उपनिषद् के श्रेयस के अधिक करीब दिखती है। ऐसे ही, Morality का अनुवाद नैतिकता है; लेकिन नैतिकता तो नीति से बनी है जैसे राजनीति, या नीतिशास्त्र । पश्चिम का Moral Order शाश्वत ईश्वरीय विधान में निहित है, इसलिए उसे धर्म के रूप में ही परिभाषित किया जाना उचित होगा। इस कड़ी में हमारा अन्तिम शब्द Reason या Rationality है, जो अपने मूल भाव में प्रायः प्रयुक्त तर्क या बौद्धिक विश्लेषण जैसे शब्दों से अधिक विवेक शब्द के निकट है। विवेक सत् और असत् का ज्ञान है।

 

  • किसी भी दार्शनिक चिन्तन का प्राथमिक प्रश्न है कि मानव जीवन का प्रयोजन क्या है? हम क्यों और क्या करने के लिए पैदा हुएँ हैं धरती पर ? हम क्या ढूँढ़ रहे हैं, क्या पाना चाहते हैं? किसलिए इतनी भागदौड़ इतना संघर्ष, इतना परिश्रम ? क्या मानव जीवन का उद्देश्य सर्वजीवन के उद्देश्य से इतर है, या दोनों एक ही होने चाहिए? पाश्चात्य दर्शन का सम्पूर्ण नीतिविचार इन्हीं प्रश्नों के उत्तर की तलाश है।

 

  • पाश्चात्य परम्परा को इतिहास के तीन कालखण्डों में विभाजित किया जाता है प्राचीन ग्रीस, मध्यकालीन और आधुनिक युग । इस परम्परा की सम्पूर्ण जड़ें प्राचीन ग्रीस के चिन्तन में अवस्थित हैं। मध्यकालीन और आधुनिक चिन्तन उन्हीं जड़ों का वृक्ष-विस्तार है। वैसे तो एक अद्भुत, अद्वितीय गुरु-शिष्य परम्परा के सुकरात, प्लेटो और अरस्तू ग्रीक दर्शन के मूलभूत स्तम्भ कहे गये हैं, परन्तु सुकरात के पूर्व और अरस्तू के के बाद भी यूनान में श्रेष्ठ विचारक रहे हैं। इस आर्टिकल की विषयवस्तु के परिप्रेक्ष्य में सम्पूर्ण परम्परा के विहंगावलोकन हेतु हम यहाँ केवल कुछ अत्यन्त प्रसिद्ध विचारकों का उल्लेख करेंगे।

 

प्राचीन ग्रीस के प्रमुख विचारक -

 

1 डिमॉक्रिटस (460-370 ईसा पूर्व)

 

  • सुकरात से पूर्व प्रसिद्ध विचारकों में डिमॉक्रिटस का नाम आता है, जिन्हें आधुनिक परमाणु विज्ञान का जनक कहा जाता है। डिमॉक्रिटस मानते थे कि सुख या आनन्द की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र परम उद्देश्य है, परन्तु यह सुख धन-सम्पदा से नहीं प्राप्त होता इसके लिए संयम और सामञ्जस्य के साथ एक समरसतापूर्ण जीवन जीने की कला आनी चाहिए।

 

2 सुकरात ( 470-366 ईसा पूर्व)

 

  • सुकरात का मानना था कि ज्ञान की प्राप्ति ही मानव जीवन का सर्वोत्कृष्ट कर्म है। ज्ञान की उपस्थिति में ही सर्वोपरि श्रेयस्कर सदाचार हैय तथा सदाचार और सुख अभिन्न रूप से साथ चलते हैं। केवल सदाचारी व्यक्ति को ही सुख की प्राप्ति सम्भव हैय दुराचारी अनिवार्य रूप से सदैव दुखी जीवन के नर्क में जीने के लिए अभिशप्त है। केवल ज्ञान से सत् और असत् का विवेक प्राप्त होता है। सद्बुद्धि से ही सदाचार सम्भव है। सुकरात कहते थे कि कोई व्यक्ति जानबूझ कर पापमार्गी नहीं होता, न कोई अनजाने मे अच्छा होता है। जो जिसको सही लगता है, वही करना मनुष्य की फितरत में है। परन्तु जो गलत को सही बताती है, वही दुर्बुद्धि है। जो चोरी करते हैं, रिश्वत लेते हैं, हत्या करते हैं, जो आतंकवादी हैं, उन्हें भी लगता है कि वे सही कर रहें हैंय क्योंकि बिना स्वयं के सही होने की आस्था के किसी भी कार्य को सम्पादित करने के लिए आवश्यक संकल्पशक्ति पैदा ही नहीं हो सकती। पापकर्म को धर्म समझने की विभीषिका से केवल ज्ञान ही मुक्ति दिला सकता है। इसीलिए सुकरात का अटूट विश्वास था कि ज्ञान में ही मनुष्य की सभी बुराइयों का निदान है।

 

  • "मैं तुम्हें यह बात अच्छी तरह से समझाना चाहता हूँ," सुकरात ने कहा, "कि धन से सदाचार नहीं प्राप्त होता, बल्कि सदाचार से ही धन और अन्दर बाहर की सभी सम्पदाएं प्राप्त होती हैं।" ठीक यही बात अपने सम्पूर्ण विस्तार में भारतीय चिन्तन में कही गयी है- "विद्या रूपं धनं शौर्य कुलीनत्वं अरोगता । राज्यं स्वर्गश्च मोक्षश्च सर्व धर्मात् अवाप्यते ।। "

 

3 प्लेटो ( ४२८ – ३४८ ईसा पूर्व )

 

  • प्लेटो अपने महान गुरु सुकरात के श्रेष्ठतम शिष्य हैं। पाश्चात्य परम्परा में उनके जैसा दूसरा कोई नहीं है। वे पाश्चात्य परम्परा की आधारशिला और सर्वोच्च शिखर दोनों एक साथ हैं। प्लेटो मानते हैं कि सृष्टि की संरचना मूल रूप में आध्यात्मिक और न्यायसंगत है। इन्द्रियों की सूझबूझ में रचा बसा भौतिक जगत शाश्वत का केवल एक चलायमान छायाचित्र है। यह छायाचित्र क्षणभंगुर और चलायमान हैय इसका मूल्य दो कौड़ी के बराबर भी नहीं है। केवल वही मूल्यवान है, जो शाश्वत है। प्लेटो का मानना था कि शरीर एक कारागार है जिसमें आत्मा कैद पड़ी हैय इसलिए इस मिट्टी के संसार से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हो खुले आकाश में उड़ान भरना आत्मा का परम उद्देश्य है। शाश्वत के ध्यान में भावसमाधिस्थ हो जाना ही मानव जीवन की चरम गति है। सब कुछ छोड़छाड़ कर तपस्वियों का जीवन जीने की पाश्चात्य धारा ( asceticism) के जनक प्लेटो ही हैं।

 

  • विवेक (Reason) ही दिखा सकता है कि सदाचार क्या है, धर्म (Virtue) क्या है, क्योंकि विवेक ही आध्यात्मिक शिखरों पर उड़ान भरने में सक्षम है। इसलिए विवेक का वरण करना और उसे चरमोत्कर्ष तक ले जाना ही मानव जीवन का श्रेष्ठतम कर्म है। प्लेटो कहते थे कि विवेक, साहस और संयम व्यक्ति को ईमानदार बनाते हैं। जिसके पास यह तीनों होते हैं, ऐसा व्यक्ति न तो चोरी कर सकता है, न विश्वासघात और न ही राष्ट्रद्रोह, या इनसे मिलते जुलते अन्य पापकर्म । गुरू की सीख दोहराते हुए, प्लेटो भी कहते हैं कि केवल ऐसा ही व्यक्ति सुख का अधिकारी है।

 

4 अरस्तू ( ३८४ - ३२२ ईसा पूर्व)

 

  • प्लेटो के शिष्य अरस्तू अपनी गुरू परम्परा को आगे बढ़ाते हुए स्थापित करते हैं कि मनुष्य के लिए सर्वोच्च शुभ आत्मबोध है। अपने स्वभाव और स्वधर्म का प्राकट्य ही किसी भी व्यक्ति या वस्तु के लिए एकमात्र शुभ कर्म है। हर व्यक्ति और वस्तु का एक वैशिष्ट्य है, जो उसे औरों से अलग करता है, इसी का बोध प्राप्त होना ही जीवन का उद्देश्य है। अरस्तू के मतानुसार जब व्यक्ति श्रेष्ठत्व से अभिप्रेरित हो सभी के कल्याण के लिए राष्ट्रसेवा को समर्पित हो, तभी उसे आत्मबोध की प्राप्ति सम्भव है। चिन्तन, मनन और ध्यान में निमग्न होना ही मनुष्य के लिए सर्वोच्च सुख, सर्वोच्च आनन्द है। इससे अधिक मूल्यवान मनुष्य के लिए और कुछ नहीं है। उसके लिए जो निकृष्ट है, उसमें प्रमुख हैं अहित करने का भाव, बेशर्मी, ईष्या, परस्त्रीगमन, चोरी और हत्या । जिस तरह श्रेष्ठ कर्मों का वरण मनुष्य का धर्म है, वैसे ही इन नीचकर्मों का त्याग भी उसका धर्म है। 

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