नास्तिक दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा | Concept of human form in atheistic philosophy

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नास्तिक दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा

नास्तिक दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा | Concept of human form in atheistic philosophy
 

नास्तिक दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा

  • आस्तिक दर्शन के विपरीत नास्तिक दर्शन वेदों को प्रमाण के रूप में नहीं स्वीकार करते है। भारतीय परम्परा में नास्तिक दर्शन का अर्थ ईश्वर की सत्ता में अविश्वास नही होता है। इसके अन्तर्गत चार्वाकबौद्ध एवं जैन दर्शन को रखा जाता है। चार्वाक दर्शन एक भौतिकवादी दर्शन है जिसके अनुसार जड़ पदार्थ की ही सत्ता को स्वीकार किया गया है। इसी से जगतप्राणचेतना की उत्पत्ति की व्याख्या की गयी है। इसी परिप्रेक्ष्य में चार्वाक के अनुसार मानव स्वरूप को समझा जा सकता है।

 

  • मानव स्वरूप की वस्तुवादी धारणा के आधार पर चार्वाक के मानवस्वरूप सम्बन्धी विचारों को समझा जा सकता है। मानव स्वरूप सम्बन्धी चार्वाक के मत को 'शरीरात्मवादकहा जा सकता है जिसके अनुसार "मनुष्य चेतना से युक्त शरीर मात्र है।" चार्वाक प्रत्यक्ष को ही एकमात्र प्रमाण मानते है इसलिए वे चेतना के अस्तित्व को तो स्वीकार करते है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष होता है लेकिन किसी सार्वभौम चेतना या आत्मा को स्वीकार नहीं करते क्योंकि वह हमारे प्रत्यक्ष का विषय नही होता है।

 

  • चार्वाक के अनुसार मानव शरीर एवं ज्ञानेन्द्रियों चार तत्त्वों - पृथ्वीजलअग्नि एवं वायु के योग से बनी है। इन्हीं भौतिक तत्वों में चेतना की उत्पत्ति होती है और इसी से शरीर में सक्रियता एवं निष्क्रियता उत्पन्न होती है। चार्वाक ने शरीर को ही आत्मा अर्थात् मानव स्वरूप के रूप में समझा है क्योंकि उनके अनुसार "मै मोटा हूँ", "मैं पतला हूँ”, "मैं गोरा या काला हूँ" जैसे कथनों से यही सिद्ध होता है कि मनुष्य जिसे 'मैंकहते है वह शरीर ही है क्योंकि मोटापतलागोरा या काला होना शरीर के धर्म है। शरीर के सन्दर्भ में मानव स्वरूप को समझने के कारण चार्वाक की मूल्य की अवधारणा भी शरीर के संदर्भ में ही समझी जा सकती है। उनकी दृष्टि शरीर कोइन्द्रियों को जो सुखकारी हो वहीकल्याणकारी है। चार्वाक की दृष्टि में प्रेयसऐंद्रिक सुख को प्राप्त करना ही मानव के लिए उचित एवं शुभ है. 

 

  • जैन दर्शन चार्वाक के इस मत को स्वीकार नहीं करते है कि शरीर ही आत्मा या वास्तविक मनुष्य है। वे शरीर एवं आत्मा दोनों के भेद को स्पष्टतः स्वीकार करते हैं और चार्वाक द्वारा प्रतिपादित शरीर एवं चेतना की एकता का निषेध करते है। जैन दर्शन चार्वाक के विपरीत आत्मा के अस्तित्व मानते है और इसी के आधार उनके मानव स्वरूप को समझने में सहायता मिलती है।

 

  • जैन दर्शन गुणों जैसे चेतनासुखस्मृतिसंदेह आदि के आधार पर आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते है और कहते है कि शरीर भी एक मशीन है और जिस प्रकार किसी भी मशीन को चलाने के लिए एक चालक की आवश्यकता होती है ठीक वैसे ही शरीर रूपी मशीन के संचालन हेतु भी हेतु कोई न कोई चालक होना चाहिए और इसी चालक को वे आत्मा के रूप में मानते है क्योंकि जब तक यह चालक शरीर से युक्त रहता है तब तक वह क्रिया करता रहता है। इतना ही नहीं हमें विभिन्न विषयों का ज्ञान भी होता है। प्रश्न यह है कि यह ज्ञान कौन प्राप्त करता है। क्या इन्द्रियाँ स्वयं ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हैक्या वस्तुतः आखें देखती है या कान सुनता है आदि स्पष्ट है कि ज्ञान में इन्द्रियों का निश्चित ही योगदान है। जैन दर्शन मानता है कि 'जीवकी सभी क्रियाएँ उसके द्वारा किये गये कर्मों के परिणाम है। वस्तुतः 'जीवअपने स्वभाव सेशुद्ध दृष्टि से अनन्त दर्शनएवं 'अनन्त सामर्थ्यआदि गुणों से युक्त होता है जिसकी अभिव्यक्ति उसके आवरणीय कर्मों के प्रभाव के कारण नही होती है। जैन दर्शन जीव में दो ही मुख्य गुणों 'चेतनाया 'अनुभूतितथा उपयोग (चेतना के फल) को स्वीकार करता है।

 

  • बौद्ध दर्शन के अनुसार मानव स्वरूप को समझने के लिए उनके आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त - जिसे प्रायः अनात्मवाद के रूप में अभिहित किया जाता हैकी विवेचना की जा सकती है। बौद्ध दर्शन के ऊपर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि वे 'आत्माका निषेध करते है। इस सम्बन्ध में यह कहना अयुक्तिपूर्ण न होगा कि बुद्ध ने आत्मा (या ईश्वर को भी) किसी वस्तुस्थितिघटना के रूप में समझने का निषेध किया है क्योंकि वस्तुतः आत्मा ( या ईश्वर भी) किसी वस्तु स्थिति या घटना के समान नही है बल्कि यह वे प्रत्यय है जो मनुष्य के वास्तविक स्वभाव को समझने में सहायक है। यदि हम आत्मा को किसी ऐसी 'वस्तुके रूप में समझते है जो हमारे शरीर में उसी तरह निवास करती है जैसे कि हमारे शरीर में अन्य इन्द्रियाँ या अन्य अंग है तो निश्चित ही बुद्ध ने इसका सशक्त रूप से खण्डन किया है।

 

  • बुद्ध किसी नित्यअविनाशी आत्मा की सत्ता का निषेध करते है और कहते है कि ऐसी आत्मा में विश्वास करना भ्रम है। 'व्यक्तिकी सत्ता बुद्ध ने निश्चित ही स्वीकार की है लेकिन उसे पाँच स्कन्धों-रूपवेदनासंज्ञासंस्कार एवं विज्ञान का संघात् माना है। इन्हें क्रमशः शरीरअनुभूति प्रत्यक्ष इच्छा एवं विचार के रूप में भी समझा जा सकता है। यह सभी पाँच स्कन्ध क्षणिक एवं परिवर्तनशील है। बुद्ध दर्शन के अधिकांश विद्वानों नेइस आधार पर कि सभी स्कन्ध क्षणिक एवं परिवर्तनशील है और आत्मा इन्हीं का संघात् हैयह मान लिया कि बुद्ध के अनुसार आत्मा भी क्षणिक एवं परिवर्तनशील है । वस्तुतः ऐसा नही है ।

 

  • बुद्ध का मानना था कि यदि किसी व्यक्ति को तीर लगा है और सहायता के पूर्व यह जानने को हठ करें कि तीर कहाँ से आयाकिसने और क्यों चलायायह किस धातु का बना है तो यह जानकारी प्राप्त होते होते वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा और यह ज्ञान उसके किसी काम नहीं आयेगा। इसी प्रकार इस चराचर जगत में सभी मनुष्य दुःखी हैपीड़ित है इसलिए किसी भी तत्वमीमांसीय विवेचना के स्थान पर सर्वप्रथम उनके दुःख के कारण की विवेचना करके उन्हें उससे मुक्त होने का मार्ग बताना अत्यन्त आवश्यक हैऔर यह तभी सम्भव है जब हम किसी शाश्वत् स्थायी आत्मा कीवस्तुओं के समान सत्ता का निषेध करें। हमें जीवन एवं मनुष्य की विवेचना ठीक उसी प्रकार से करनी है जैसी कि वे वास्तव में हैन कि किसी प्रत्ययवादी विचार धारा के अनुरूप क्योंकि इससे समस्याओं के विकृत विवेचन से इंकार नहीं किया जा सकता है।

 

  • यदि हम बुद्ध द्वारा निर्दिष्ट अवटांगिक मार्ग का अनुसरण करते है तो हमारे व्यवहार में 'अहिंसाकरूणा का आविर्भाव सहज ही होगाहमें इसके लिए सचेतन प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।

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