कैवल्य (मोक्ष) प्राप्ति के उपाय |Kavilya (Moksh) Prapti Ke Upay

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कैवल्य (मोक्ष) प्राप्ति के उपाय

कैवल्य (मोक्ष) प्राप्ति के उपाय |Kavilya (Moksh) Prapti Ke Upay

कैवल्य (मोक्ष) प्राप्ति के उपाय 

इस संसार के सभी मनुष्य दुःखों से छूटकर आनन्द को प्राप्त करना अथवा मुक्ति में जाना चाहते हैंकिन्तु यह मुक्ति का आनन्द अनायास ही प्राप्त नहीं हो जाता है अपितु इस मोक्षानन्द अथवा कैवल्य को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को बड़े प्रयत्न करने पड़ते हैं। विषय भोगों का त्याग करते हुए जन्म जन्मान्तरों की साधना में लीन रहने अथवा भक्त द्वारा भक्ति भाव से कठोर तप को करने का उद्देश्य कैवल्य अर्थात मुक्ति सुख को प्राप्त करना होता है। यह कैवल्य कैसे प्राप्त होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में महापुरुषों एवं विद्धानों ने अलग-अलग विचारों एवं मार्गों का उपदेश किया है। सृष्टि के आदि ग्रन्थ वेदों में जहाँ शुद्ध ज्ञानशुद्ध कर्म एवं शुद्ध उपासना को कैवल्य प्राप्ति के मूल साधन के रुप में वर्णित किया गया है तो वही महर्षि पतंजलि ईश्वर प्राणिधानक्रियायोग एवं अष्टांग योग को कैवल्य प्राप्ति के साधनों के रूप में वर्णित करते हैं।

 

महर्षि पतंजलि योग सूत्रों में कैवल्य प्राप्ति के उपायों में योग साधना को प्रमुख स्थान देते हैं। योग साधना में अनेक बाधाओं को दूर करने के लिए वे अनेक उपायों का उल्लेख भी करते हैं। द्रष्टा और दृश्य का जो संयोग हैवही प्रकृति जन्य विकारों को जन्म देकर जीव को बंधन में बाँधता है। इन सांसारिक बंधनोंक्लेशोंदुःखों से छूटने का उपाय क्या हैइसके विषय में महर्षि ने अनेको उपाय बताए हैं। योगी को साधना में अनेक अन्तराय कष्ट डालते एवं बाधा उत्पन्न करते हैंउनमें पंच क्लेश प्रमुख हैं। इन क्लेशों को तपस्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान के अभ्यास से तनु अर्थात निर्बल बना कर साधना पथ पर आगे बढा जा सकता है।

 

मनुष्य को योग साधना के पथ पर गमन हुए कैवल्य प्राप्ति हेतु किन साधनों का अभ्यास करना चाहिएइस विषय को समझाते हुए महर्षि पतंजलि स्पष्ट करते हैं कि उच्च कोटि के साधक ईश्वर प्राणिधान से कैवल्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होंजबकि मध्यम कोटि के साधकों को तपस्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान (कियायोग) के द्वारा अपनी साधना को आगे बढाना चाहिए तथा निम्न कोटि के साधकों को अपनी साधना का प्रारम्भ अष्टांग योग से करना चाहिए। अष्टांग योग की साधना मानव की समस्त शारीरिकमानसिकआध्यात्मिक वृत्तियों का परिस्कार करती हैं। अहिंसासत्य अस्तेयब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामक पाँच 'यमऔर शौचसंतोषतपस्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान नामक पाँच नियमों में स्थित होने अथवा सिद्ध करने से साधक बाह्य और आन्तरिक शुद्धि को प्राप्त होकर ईश्वर की शरणागति में स्थित होने लगता है। साधक जिस रीति से बिना हिले-डुले स्थिर भाव से सुखपूर्वक बिना किसी प्रकार की पीड़ा के बहुत समय तक बैठ सके वही उस साधक के लिए आसन है। आसनों के नियमित अभ्यास से साधक शारीरिक स्तर पर स्थिरता एवं सुख की अनुभूति करता है। तत्पश्चात श्वास और प्रश्वास की गति में विच्छेद हो जाना अथवा नियंत्रण प्राप्त कर लेना प्राणायाम है। 


प्राणायाम का अभ्यास करने से जब मन और इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती है। तब इन्द्रियों की बाह्य प्रवृत्ति का सब ओर से समेट कर मन में लीन करने के अभ्यास का नाम प्रत्याहार कहलाता है। इस प्रकार इन बहिरंग साधनों के द्वारा जब योगी अपनी स्थिति को उच्च बना लेता है तब वह अन्तरंग साधनों के द्वारा कैवल्य या मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। मन को ध्यान के विषय पर केन्द्रित करने का नाम ही धारणा है। जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाए उसी में चित्त के एकाग्र हो जाने को ध्यान कहते हैं। ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येयाकार में परिणत हो जाता है उसके अपने स्वरूप का अभाव सा हो जाता है अर्थात साधक स्वरुप शून्य होकर पूर्ण रुपेण अपने ध्येय में ही लीन हो जाता हैसाधक की यह अवस्था समाधि कहलाती हैं। तात्पर्य यह है कि जब योगाभ्यास द्वारा बुद्धि शुद्ध हो जाती है तो वह उस प्रकृति में लय होने लगती हैजिसमें से उसका विकास हुआ था। पुरुष को भी यह ज्ञान हो जाता है कि मन इत्यादि से उसका सम्बन्ध अज्ञान पर आधारित था। उस सम्बन्ध के समाप्त होते ही पुरुष कैवल्य प्राप्त कर लेता है क्योंकि संयम ( धारणाध्यानसमाधि) का फल सूक्ष्म विषय को शीघ्र ग्रहण करने की प्रज्ञा उत्पन्न कर लेता है अर्थात साधक को प्रज्ञा बुद्धि की प्राप्ति होती है। यह प्रज्ञा साधक को कैवल्य की और ले जाती है।

 

इस प्रकार अष्टांग योग की साधना से जीवात्मा ईश्वर के आनन्द को प्राप्त करता हुआ अपने मूल स्वरूप में स्थित हो जाता है जीवात्मा की यही अवस्था कैवल्य की अवस्था है। इस प्रका महर्षि पतंजलि योगसूत्रों में कैवल्य के स्वरूप एवं साधनों को स्पष्ट रुप में समझाते हैं। अब अन्य वैदिक ग्रन्थों में कैवल्य प्राप्ति के साधनों पर विचार करते हैं।

 

कैवल्य अर्थात मुक्ति के उपायों या साधनों का उल्लेख करते हुए मुक्तिकोपनिषद् में कहा कि जिस प्रकार मदमस्त हाथी अंकुश के बिना वश में नहीं आता उसी प्रकार चित्त को वश में करने के लिए अध्यात्म विद्या का ज्ञानसत्संगतिवासनाओं का भली-भांति परित्याग तथा प्राणवायु का निरोध प्राणायाम ये प्रबल उपाय हैं।

 

महोपनिषद् मोक्ष के साधनों को द्वारपाल के नाम से सम्बोधित करती हुई कहती है कि जैसे द्वारपाल की आज्ञा के बिना अन्दर प्रवेश नहीं कर सकते ऐसे ही मोक्षपरायण इन साधनों के बिना मोक्ष पथ पर आरूढ़ नहीं हो सकते। शम अर्थात मनोनिग्रहविचारसंतोष एवं सत्संग ही मोक्ष द्वार के चार द्वारपाल हैंयदि इनमें से किसी एक का भी आश्रय प्राप्त कर लिया जाए तो शेष द्वारपाल सहजतापूर्वक स्वयमेव ही अपने वश में हो जाते हैं। आगे कहा कि समय एवं देश के अनुसार शास्त्रानुकूल आनन्दपूर्वक यथाशक्ति सत्संग में ही विचरण करते हुए इस मोक्ष पथ के क्रम का तब तक ज्ञानीजन चिंतन करते रहेंजब तक उन्हें आत्मिक विश्रान्ति न मिल जाए । मुक्ति की अभिलाषा रखने वाले के लिए यहाँ कहा कि जो पुरुष मुक्ति की आकांक्षा करता हैवह जीव तथा ईश्वर के वाद-विवाद में बुद्धि को भ्रमित न करेवरन् उसे दृढ़तापूर्वक ब्रह्मतत्व का ही निरन्तर चिंतन करना चाहिए और जो इस प्रकार दृढ़तापूर्वक उसका चिंतन करता हैउसके ज्ञान नेत्र खुल जाते हैं तब उस ब्रह्म का साक्षात्कार होते ही मनुष्य के हृदय की गांठे खुल जाती हैंसभी संशय समाप्त हो जाते हैं और समस्त कर्म (प्रारब्धादि) क्षीणता को प्राप्त हो जाते हैं।

 

जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण के अनुसार चित्तवृत्ति का प्राणायाम द्वारा निरोध करना चाहिए क्योंकि प्राणायाम की महिमा अनन्त है क्योंकि प्राण और मन का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। इस ग्रन्थ में मन में दृढ़ संकल्प रूपी प्राणियों की कल्याण कामनातपदम और कर्म का वर्णन और उपासना को मोक्ष के उपाय के रुप में वर्णित किया गया । ई


शावास्योपनिषद् में कहा गया

 

अविधाया मृत्युं तीर्त्वा विधायाऽमृतमश्नुते ।। ईशोपनिषद् 14 )

 

अर्थात हम अविद्या (अज्ञान) रुपी मृत्यु को पार करके ज्ञान (विद्या) से अमृतत्व प्राप्त करें । श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा गया कि जो धीर जन अपने (स्वयं) में स्थित उस ब्रह्म का दर्शन कर लेते हैंउन्हीं को शाश्वत सुख अर्थात मोक्ष प्राप्त होता है। योग कुण्डल्युपनिषद् में कहा कि जो निरन्तर अपनी आत्मा में रमण करता है वह विज्ञानी कृत-कृत्य हो जाता हैउसे सांसारिकता से मुक्ति मिल जाती है। योग चूडामणि उपनिषद के अनुसार जो साधक ओंकार का जप करता है वह पाप रूपी भवंर में नहीं फसतावह कमल पत्र के समान संसार से अलिप्त रहता है।

 

नारद परिव्राजकोपनिषद् में मोक्ष के अधिकारी के लक्षण बताते हुए कहा कि इन्द्रियों को वश में रखनेराग-द्वेष का नाश करने तथा किसी भी प्राणी की हिंसा न करने से मनुष्य अमृतत्व (मोक्ष) का अधिकारी हो जाता है। शतपथ ब्राह्मण कहता है कि यह पुरुष ही वह वैश्वानर अग्नि है जिसको जो व्यक्ति पुरुष के रूप में स्थित जानता है वह मृत्यु को जीतकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। त्रिपाविभूति उपनिषद् में मोक्ष साधनों में गुरु के उपदेश का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया कि जैसे जन्मान्ध को रूप का ज्ञान नहीं होताउसी प्रकार गुरु के उपदेश के बिना करोड़ों कल्पों में भी तत्व ज्ञान नहीं होता है। सद्गुरु की कृपा से अविलम्ब ही तत्वज्ञान हो जाता है । छान्दोग्योपनिषद् मोक्षोपाय के विषय में कहती है कि इस लोक में आचार्यवान पुरुष ही सत् को जानता हैउपनिषद् में अन्यत्रा कहा कि आचार्य कुल से वेदों को पढ़करगुरु की दक्षिणा देकर समावर्तन द्वारा कुटुम्ब में आकर स्वाध्याय में रत रहकर और धार्मिक विद्वानों के सत्संग से सब इन्द्रियों को वश में करकेअहिंसाबुद्धि से सब प्राणियों को देखता हुआ और आयु प्रर्यन्त इस प्रकार का व्यवहार करता हुआ विद्वान ही ब्रह्म लोक अर्थात मोक्ष को प्राप्त होता है। 


ब्रह्मबिन्दूपनिषद् में स्पष्ट कहा कि जिस प्रकार घी के लिए दूध का मंथन किया जाता है वैसे ही विज्ञानमय ब्रह्म की प्राप्ति के लिए मन को मथनी बनाकर सदा मंथन चिंतन और विचार करते रहना चाहिए। तदनन्तर ज्ञानदृष्टि प्राप्ति करके अग्नि के समान तेजोमय ब्रह्म का इस प्रकार अनुभव करें कि परब्रह्म मैं हूँ। कठोपनिषद् में कहा कि जब सम्पूर्ण कामनाएँ छूट जाती है उस समय वह मृत्यु अमर हो जाता है और इस शरीर से ही ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है।

 

न्यायसूत्रों पर भाष्य करते हुए आचार्य वात्स्यायन कहते हैं कि जब तत्व ज्ञान द्वारा मिथ्या ज्ञान का नाश हो जाता है तो उसके परिणामस्वरूप सभी दोष दूर हो जाते हैं। दोषों के समाप्त होने पर कर्म करने की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती हैइस प्रवृत्ति के समाप्त हो जाने पर जन्म का बंधन टूट जाता हैजन्म-मरण के चक्र के रुक जाने के फलस्वरूप दुःखों की आत्यान्तिक निवृत्ति हो जाती है। अपने स्वरूप में स्थित जीवात्मा शरीर से उठकर परम ज्योति को प्राप्त करके अपने स्वरूप से प्रकट हो जाता है। निर्विष्य से ऋतम्भरा प्रज्ञा उद्भूत होती है जिसका परिणाम 'विवेक ख्यातिकी प्राप्ति के रूप में प्राप्त होता है। निरन्तर विद्यमान विवेक ख्याति से परम वैराग्य का उदय होता है इससे धर्ममेध समाधि सिद्ध होती है। सर्वद्रष्टा परमात्मा के स्वरूप में जीवात्मा की जो निर्विषय स्थिति है उसे स्वरूप स्थिति या स्वरूपा अवस्था नाम दिया जाता हैयही मोक्ष अर्थात कैवल्य की अवस्था है।

 

श्रीमद्भागवत पुराण में मुक्ति के उपायों में योग साधना को प्रमुख स्थान दिया गया है। भागवत में स्थान-स्थान पर अष्टांग योग का उपदेश दिया गया है, साथ ही ईश्वर प्राणिधान अर्थात ईश्वर भक्ति को भी वर्णित करते हुए कहा गया कि किसी प्रकार के फल की इच्छा न कर सर्वविध सुखों की इच्छा रखने वाला या उदार बुद्धि होने के कारण केवल मोक्ष चाहने वाला पुरुष तीव्र भक्ति योग से निरुपाधिक पूर्ण परब्रह्म परमेश्वर की आराधना करें। इस ब्रह्म को श्रद्धाभक्तिनित्य योगाभ्यास और विरक्ति भाव में स्थित होकर स्थिर चित्त से आसानी से अनुभव किया जा सकता हैइसमें तनिक भी संदेह नहीं। भागवत कहती है कि ब्रह्म को प्राप्त करने के उपाय अनेक हैं यथा अनेक शुभकर्मों से यज्ञों सेदानों सेतप सेस्वाध्याय से तत्व विचार से मन और इन्द्रियों की जय सेकर्म-संन्यास सेअष्टांग योग सेभक्तियोग से प्रवृत्ति और निवृत्ति लक्षण धर्मों सेआत्म तत्व ज्ञान सेदृढ़ वैराग्य से इन सभी से स्वप्रकाश भगवान को साधक पाता है और समाधिपर्यन्ते योग में आरूढ़ होकर आत्मतत्व का साक्षात्कार करता है। इसी प्रकार आचार्य निम्बार्क मोक्ष के उपायों में पाँच साधन मुख्य मानते हैं कर्मविद्या या ज्ञानउपासनाप्रपत्ति (आत्म समर्पण) तथा गुरुपासत्ति। किन्तु इन साधनों में भी ईश्वर की भक्ति अनिवार्य हैं। आचार्य निम्बार्क भक्ति को ईश्वर के प्रति एक विशेष प्रकार का प्रेम मानते हैं।

 

आचार्य शंकर प्रसिद्ध ग्रन्थ 'विवेक चूडामणिमें भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का सबसे बड़ा उपाय मानते हैं। वल्लभाचार्य यद्यपि मोक्ष प्राप्ति के साधनों में निष्काम कर्मज्ञान और अष्टांग योग का मूल्य स्वीकारते हैं। परन्तु उनका दृढ़ मत है कि ईश्वर की भक्ति और आत्मसमर्पण मोक्ष प्राप्ति के उत्कृष्ट साधन है। उनकी दृष्टि में ज्ञान मार्ग की अपेक्षा भक्ति मार्ग ईश्वर प्राप्ति का श्रेष्ठ मार्ग है।

 

सुप्रसिद्ध ग्रन्थ गीता ईश्वर प्रणिधान को अर्थात ईश्वर के प्रति पूर्ण सर्मपण के भाव या भक्तियोग को मोक्ष प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन मानती है। गीता के चतुर्थ अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्मयोग का उपदेश करते हुए कहते हैं कि जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता हैजो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता जो सफलता और असफलता दोनों में स्थिर रहता है वह कर्म करता हुआ कभी नहीं बंधता और जो पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित है उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। जो व्यक्ति ब्रह्म में पूर्णतया लीन रहता हैउसे अपने आध्यात्मिक कर्मों से अवश्य ही भगवत् धाम की प्राप्ति होती हैक्योंकि उसमें हवन आध्यात्मिक होता है और हवि भी आध्यात्मिक होती है। योगीराज श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि ब्रह्म प्राप्ति या मोक्ष प्राप्ति के लिए द्रव्ययज्ञतपयज्ञ योग यज्ञज्ञान यज्ञ स्वाध्याय यज्ञ आदि का अनुष्ठान कर यती लोग ऐसे दृढ़ व्रतधारी यज्ञों को करते रहते हैं। प्राणायाम के द्वारा प्राणों पर संयम करके और मन पर संयम करके स्वच्छ हृदय से उसका ध्यान करते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए जो अनेक विध यज्ञ ब्रह्म के मुख में विस्तारित हैं उनको कर्मजन्य जानकर जीव मुक्त हो जाता है। कृष्ण भगवान कहते हैं कि जो हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न हुए संदेह को ज्ञान रूपी तलवार से काट डालता है वह मोक्ष प्राप्ति के लिए खड़ा हो जाता है।

 

मनु महाराज मनुस्मृति नामक ग्रन्थ में मोक्षोपाय का उल्लेख करते हुए लिखते हैं। कि वेदपाठजपज्ञानइन्द्रिय निग्रहअहिंसागुरु की शुश्रूषा करना यह सब कर्म बड़े कल्याणकारी है। इन शुभ कर्मों में से प्रत्येक कर्म मनुष्य के मोक्ष हेतु अत्यन्त कल्याण करने वाले हैं। किन्तु सब कर्मों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिए क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है और अविद्या का नाश करती है जिससे अमृत अर्थात मुक्ति प्राप्त होती है। मनु महाराज ब्राह्मण वृत्ति वाले मनुष्य के लिए कहते हैं कि तप - विद्या यह दोनों ब्राह्मण के मोक्ष के श्रेष्ठ उपाय हैं क्योंकि तप से पाप का नाश और विद्या से मोक्ष मिलता है। जो मनुष्य वेद तथा शास्त्रों के अर्थ को सत्योचित रीति से अर्थात तत्त्व से जानने वाला हैवह मोक्ष के योग्य होता है।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नामक ग्रन्थ में जीव की मुक्ति अर्थात कैवल्य के विषय में कहते हैं

कि परमेश्वर की उपासना करके अविद्या आदि क्लेशों तथा अधर्माचरण आदि दुष्ट गुणों को निवारण करके शुद्धि विज्ञान और धर्मादि शुभ गुणों के आचरण से आत्मा की उन्नति करके जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।

 

अन्यत्रा महर्षि दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में मोक्षोपायों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि परमेश्वर की आज्ञा पालनेअधर्मअविद्या कुसँगकुसंस्कारबुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्य भाषणपरोपकार विद्या पक्षपात रहित न्याय धर्म की वृद्धि करने पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अर्थात योगाभ्यास करनेविद्या पढ़ने-पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करनेसबसे उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपात रहित न्याय धर्मानुसार ही करें इत्यादि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वराज्ञा भँग करने आदि काम से बंध जाता है। स्वामी दयानन्द मोक्ष प्राप्ति के उपायों में योगाभ्यास का भी स्पष्ट उल्लेख करते हैं।

 

स्वामी विवेकानन्द कर्मयोग नामक ग्रन्थ में बंधन से मुक्त होने का एक मात्र उपाय समस्त नियमों के बाहर चले जाना अर्थात कार्य-कारण श्रृंखला से बाहर हो जाना मानते हैं। स्वामी जी मृत्यु से छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय जीवन के प्रति आसक्ति का त्याग करना मानते हैं। प्रिय पाठकोंकैवल्य के विषय में आधुनिक युग के योगी श्री अरविन्द कहते हैं कि व्यक्तिगत मोक्ष प्राप्त करना कोई बहुत बड़ा लक्ष्य नहीं है। श्री अरविन्द का लक्ष्य केवल मानव का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि का मोक्ष है। यह केवल आध्यात्म योग द्वारा ही सम्भव है। 


अध्यात्म योग क्या हैइस पर विचार करते हुए श्री अरविन्द लिखते हैं कि आध्यात्म योग का अर्थ ज्ञान के दृष्टिकोण से यह अनुभूति प्राप्त करना है कि सभी वस्तुएंजिन्हें हम देखते हैं या नहीं देखते हैंजिनकी हमें चेतना है अर्थात मनुष्यवस्तुएँ हम स्वयंविभिन्न घटनाएँदेवतादानवदेवदूतये सब दिव्य ब्रह्म है। श्री अरविन्द के आध्यात्म योग के तीन सोपान हैं प्रथम सोपान आत्म समर्पण का संकल्प करना । आध्यात्म योग का द्वितीय सोपान स्वयं के शरीर द्वारा किये गए कार्यों के प्रति भी स्वयं को आसक्त न करना अर्थात उन्हें तटस्थ भाव से देखते रहना है और तीसरा सोपान संसार में सर्वत्रा ईश्वर को देखना है। इस सोपान पर साधक यह अनुभव करता है कि विचित्राता और विभिन्नताओं से भरा यह जगत जिसे अब तक में ब्रह्म से भिन्न समझ रहा थासार रूप से ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्म के स्वरुप की सर्वत्र अनुभूति करते हुए उसमें लीन हो जाना ही मोक्ष अथवा कैवल्य है ।

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