योग दर्शन के अनुसार चित्त के भेद | Distinctions of mind according to yoga philosophy

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योग दर्शन के अनुसार चित्त के भेद

 

योग दर्शन के अनुसार चित्त के भेद | Distinctions of mind according to yoga philosophy

योग दर्शन के अनुसार चित्त के भेद

योगदर्शन के अनुसार चित्त के निम्न दो भेद है-

 

  1. कारण चित्त 
  2. कार्य चित्त

 

इन दोनों का विवेचन निम्नानुसार है 

(1) कारण चित्त 

  • कारण चित्त को आकाश के समान विभु अर्थात् सर्वव्यापक माना गया हैतथा यह हमेशा पुरुष अर्थात् आत्मा से सम्बन्धित होता है तथा शरीरों में कार्यरूप चित्त के माध्यम से पाप -  पुण्य कर्मों के अनुसार अभिव्यक्त होता है। 

(2) कार्य चित्त

  • कार्य चित्तकारण चित्त के समान एक नहीं वरन् अनन्त होते है। कार्य चित्त अलग - अलग जीवों में अलग अलग होते है। कार्य चित्त घटाकाशमठाकाश इत्यादि की तरह भिन्न भिन्न जीवो में भिन्न भिन्न होने के कारण अलग - प्रतीत होते है। 
  • जीवों के सुख दुःख का कारण यह कार्य चित्त ही है। मृत्यु के बाद जब - अलग मनुष्य शरीर का चित्त पशु शरीर में प्रविष्ट होता है अर्थात् जब कोई व्यक्ति मनुष्य योनि के उपरान्त पशु योनि को प्राप्त होता है तो उसका चित्त पहले की तुलना में सीमित हो जाता है। यह सीमित होने वाला और फैलने वाला चित्त ही कार्य चित्त कहलाता है। चित्त मूल रूप से विभू ही है किन्तु वासनाओं के कारण सीमित होकर कार्य चित्त का रूप धारण कर लेता है।

 

  • प्रिय रीडर आप लोगों को यह जान लेना चाहिए कि योग साधना का प्रमुख उद्धेश्य चित्त को उसके वास्तविक स्वरूप में लाना है। और चित्त का यर्थाथ स्वरूप अनन्तअसीमितसर्वव्यापक या विभू है। सत्कर्मसचिनन्तसद्व्यवहार इत्यादि के द्वारा चित्त की सीमा फैलती जाती हैऔर अनन्तः चित्त अपने विशुद्ध स्वरूप में स्थिर हो जाता है।

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