अभ्यास एवं वैराग्य |अभ्यास तथा वैराग्य का उद्धेश्य |अभ्यास क्या है?| Abhyaas Evam Varigaya

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अभ्यास एवं वैराग्य ,अभ्यास तथा वैराग्य का उद्धेश्य ,अभ्यास क्या है?

अभ्यास एवं वैराग्य |अभ्यास तथा वैराग्य का उद्धेश्य |अभ्यास क्या है?| Abhyaas Evam Varigaya


अभ्यास एवं वैराग्य 

 

  • इस आर्टिकल में आप अभ्यास वैराग्य का अध्ययन करेंगे, अभ्यास वैराग्य का उद्धेश्य का विस्तृत अध्ययन करेंगे। महर्षि पतंजलि ने योग साधना की प्राप्ति चित्त की वृत्तियो के सर्वथा अभाव के द्वारा ही प्राप्त हो सकती हैं। चित्त जो कि मन, बुद्धि व अहंकार का सम्मिलित रूप है। चित्त शान्त जलाशय की भाँति है। परन्तु हमारे चित्त में वृत्ति रूपी लहरें इस शान्त जलाशय को तरंगित करती रहती है। लहरो के कारण जिस प्रकार मनुष्य चन्द्रमा का प्रतिबिम्व उस जलाशय में नहीं देख पाता, उसी प्रकार मनुष्य इन वृत्तियों की वासना रूपी तरंगो के निरन्तर उठते रहने के कारण आत्म तत्व का बोध नही कर पाता है। योग के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता । इन वृत्तियों की तरंगो को सर्वथा रोक देने से ही हम आत्म तत्व के दर्शन कर पाते है। महर्षि पतंजलि ने समस्त योग का सार एक ही सूत्र में कि चित्त की वृत्तियों का सर्वथा अभाव ही योग हैं। इन चित्त की वृत्तियो रखा का निरोध (अभाव) अभ्यास और वैराग्य से होता हैं।

 

महर्षि पतंजलि ने वर्णन किया है कि साधक को भटकाने वाला उसका अपना चित्त ही है, व चित्त की वृत्तियाँ ही है। इन चित्त की वृत्तियों के निग्रह से, निरोध से ही योग सधता हैं। पर यह अभ्यास वैराग्य से सम्भव है। चित्त की स्थिरता के लिए बार बार प्रयत्न करना ही अभ्यास है। मन को किसी एक ध्येय पर स्थिर करने की चेष्टा बारम्वार करना अभ्यास है। तथा वैराग्य अर्थात बिना राग के, जिसे यह कहा जा सकता है कि जिस मनुष्य को कोई आसक्ति नहीं है। महर्षि पतंजलि ने देखें गये तथा सुने गये विषयो के प्रति तृष्णा का अभाव हो जाना ही वैराग्य कहा है। 


  • वैराग्य शब्द भारतीय अध्यात्म में चिर परिचित शब्द है । वैराग्य अर्थात बिना राग के, यह कहा जा सकता हैं। मनुष्य को विषय भोगो के प्रति कोई भी आसक्ति ना हो वही वैराग्य है भोगो की वासना का क्षय आत्म ज्ञान से ही हो पाता है। संसार से दुःखी हो कर उससे दूर भागना वैराग्य नहीं कहा जा सकता। विवेक ज्ञान द्वारा जब सत असत की पहचान, सही गलत की ठीक समझ, उचित अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान व अविनाशीतत्व का बोध होने लगे तो समझना चाहिए कि वैराग्य सधने लगा। चित्त की वृत्तियों को रोकने के लिए एक साधन अभ्यास है तथा दूसरा वैराग्य है।

 

अभ्यास तथा वैराग्य का उद्धेश्य -

 

अभ्यास तथा वैराग्य की साधना महर्षि पतंजलि ने उच्च कोटि के साधको के लिए चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिए बतायी है। महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र में वर्णन किया है- 

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।' 1/2

 

अर्थात चित्त की वृत्तियों का सर्वथा अभाव या इन चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रूक जाना ही 'योग' है। यह योग साधना संकल्प की साधना । यह योग शास्त्र ऐसा अनुशासन है, जो मनुष्य के शरीर, इन्द्रिय, मन आदि को पूर्ण रूप से अनुशासित करने वाला विज्ञान है। 

जिसका वर्णन महर्षि पतंजलि ने प्रथम सूत्र में व्यक्त किया है - 

'अथयोगानुशासनम् ।' - पा० योo सू० 1/1

 

  • अर्थात अब योग का अनुशासन अब साधक के जीवन में वह पुण्य समय आ गया है जब मनुष्य एक निश्चित कार्य पद्धति का अनुशरण कर स्वयं पर अनुशासन कर जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

 

  • अभ्यास वैराग्य का उद्धेश्य चित्त वृत्तियों का निरोध कर जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति करना है। महर्षि पतंजलि ने जीवन के लक्ष्यों को पूर्ण करने के लिए अभ्यास पर बल दिया है, पर ममुक्षु साधक के लिए अभ्यास व वैराग्य की साधना बतायी है। जिससे जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। महर्षि पतंजलि ने चित्त वृत्ति निरोध के लिए अभ्यास और वैराग्य की साधनायें बताई हैं।

 

'अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।' पा० यो० सू० 1 / 12 


अर्थात अभ्यास और वैराग्य द्वारा उन चित्त वृत्तियों का निरोध होता है। प्रिय विद्यार्थियो अब प्रश्न उठता है कि यह अभ्यास क्या है? जिससे चित्त की वृत्तियो का निरोध होता है। तो आइये अध्ययन करे कि अभ्यास क्या है। 


अभ्यास क्या है? -

 

चित्त की स्थिरता के लिए किये जाने वाला प्रयत्न अभ्यास है। महर्षि पतंजलि ने अभ्यास का वर्णन इस प्रकार किया है - 

'तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ।' - पा० यो० सू० 1/13 


अर्थात चित्त की स्थिरता के लिए जो निरन्तर प्रयत्न किया जाता है, वही अभ्यास है।

 

प्रिय विद्यार्थियो इसे इस प्रकार समझा जा सकता है, कि मनुष्य का चित्त चंचल है, जो रजोगुण, तमोगुण वृत्तियों के कारण ही विषयो मे रमण करता रहता हैं। किन्तु सतोगुण वृत्ति के उत्पन्न होने पर चित्त की चंचलता दूर हो जाती है, तथा चित्त शान्त होता है। इसी स्थिति को एकाग्रता कहते हैं। इसी एकाग्रता को हमेशा बनाये रखने के लिए जो पूर्ण इच्छा शक्ति के साथ निरन्तर प्रयत्न किया जाता है। उसी का नाम 'अभ्यास' है। इस संसार के कठिन से कठिन दुसाध्य कार्य भी अभ्यास से पूरे हो जाते है। जैसा कहा भी गया है -

 

"करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। 

रसरी आवत जात है सिल पर परत निसान।"

 

अर्थात अभ्यास करते करते एकदम जड़मति भी सुविज्ञ तथा सुजान हो जाते हैं जैसे कोमल रस्सी से कठोर सिल (पाषाण) पर भी निशान पड़ जाते है, उसी प्रकार अभ्यास के बल पर मनुष्य कठिन से कठिन कार्य भी करने में समर्थ हो जाता । अभ्यास के बल पर मनुष्य ही नही वरन् पशु पक्षी भी असम्भव से असम्भव कार्य को सम्भव कर देता है। अब प्रश्न उठता है कि अभ्यास किसका किया जाए। चित्त की एकाग्रता को स्थिर बनाये रखने के लिए योगानुष्ठान करने चाहिए। योग साधना में लगे रहना चाहिए। योग के अनुष्ठान, क्रियायोग व अष्टॉग योग व अभ्यास व वैराग्य है। इन अनुष्ठान करने से ही मनुष्य को समाधि की प्राप्ति होती है। 

 

प्रिय विद्यार्थियों इन अनुष्ठान को करने के लिए अभ्यास करना चाहिए। यह अभ्यास किस प्रकार दृढ़ हो महर्षि पतंजलि ने दृढ़ता के निम्न उपाय बताये है। 


अभ्यास में दृढ़ता के उपाय

 

महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद के 14वें सूत्र में अभ्यास में दृढ़ता के उपाय बताये है। जो निम्न प्रकार से है -

 

'सतु दीर्घकाल नैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ।

 

अर्थात वह अभ्यास दीर्घ काल तक निरन्तर श्रद्धापूर्वक सत्कार पूर्वक किये जाने पर दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार अभ्यास की सफलता के लिए निम्न बातो का होना आवश्यक है। निम्न उपायो को अपनाने पर ही अभ्यास दृढ़ अवस्था वाला होता है। ये उपाय निम्न है. -

 

  • पहला दीर्घ काल (लम्बा समय), 
  • दूसरा - निरन्तरता, 
  • तीसरा - भाव भरी श्रद्धा, 
  • चौथा - दृढ़ निष्ठा ।

 

यदि साधना के अभ्यास में ये चार तत्व हो तो अवश्य ही चमत्कारी परिणाम देखने को मिलते हैं।

 

पहला - दीर्घ काल (लम्बा समय ) 

  • महर्षि पतंजलि ने आत्म तत्व की प्राप्ति के लिए चित्त के बार - बार यत्न पूर्वक रोकने का निरन्तर अभ्यास करने के लिए कहा है। परन्तु यह अभ्यास सिर्फ एक या दो महिने के लिए नहीं दीर्घ काल तक करना है। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य शुरू शुरू में तो उत्साह के साथ अभ्यास करते है। परन्तु बाद में एक महिने - दो महिने, एक साल, दो या पाँच साल में ही साधना को छोड़ बैठते है । कुछ मनुष्य दीर्घ काल तक अभ्यास करते है। परन्तु उनमें निरन्तरता नहीं होती हैं। कुछ महिने अभ्यास करने के बाद छोड़ दिया, फिर शुरू की फिर कुछ दिन छोड़ी, इस तरह अभ्यास करने से अभ्यास में दृढ़ता नहीं आती है। इसे लम्बे समय तक धैर्य व दृढ़ विश्वास के साथ करने से ही अभ्यास दृढ़ अवस्था वाला होता है। 

 

दूसरा निरन्तरता 

  • महर्षि पतंजलि ने नैरन्तर्य का अर्थ खण्ड रहितता से लिया है । इसका अर्थ यह है कि साधक को साधना की नियमितता को बनाये रखना चाहिए। योगागों का अभ्यास प्रतिदिन करें। उसकी नियमितता खण्डित ना हो। अभ्यास में आलस्य व प्रमाद नहीं करना चाहिए, तथा किसी भी प्रकार का व्यवधान नही करना चाहिए, तथा अभ्यास निरन्तर चलते रहना चाहिए। 

 

तीसरा - भाव भरी श्रद्धा

  • अभ्यास में दृढ़ता के लिए भाव भरी श्रद्धा का होना आवश्यक है। यदि साधक किसी तरह अपनी साधना में दीर्घ काल व निरन्तरता अपनाता हैं परन्तु भाव भरी श्रद्धा ना हो तो साधना सिद्ध नही हो पाती है। बार - बार चित्त में व्यग्रता व सन्देह उत्पन्न होता है, कि यह साधना पूर्ण हो भी पायेगी या नहीं, या यह साधनासही भी है या नहीं। कभी गुरू के प्रति संदेह, कभी साधना के प्रति । इस प्रकार का चंचल मन और डगमगाती श्रद्धा से साधक की साधना पूर्ण नही हो पाती है। अतः अभ्यास की दृढ़ता के लिए साधक को साधना के प्रति भाव भरी श्रद्धा का होना आवश्यक है।

 

चौथा दृढ़ निष्ठा – 

  • योगानुष्ठान के अभ्यास में बल व प्राण लाने के लिए दीर्घ काल, निरन्तरता, भाव भरी श्रद्धा तथा अडिग निष्ठा का होना बहुत जरूरी है। साधना पथ पर बिना थके, बिना रुके भाव भरी श्रद्धा के साथ तथा समर्पित भावना व दृढ़ निष्ठा के साथ अभ्यास करते जाना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास की दृढ़ता के इस उपायो को अपनाने से साधक अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुॅच पाता है। 

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