शूद्रक की नाटककला | Shudrak Ki Natya Kala

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 शूद्रक की नाटककला  (Shudrak Ki Natya Kala)

शूद्रक की नाटककला | Shudrak Ki Natya Kala

शूद्रक की नाटककला

 

  • कला की दृष्टि से 'मृच्छकटिकनिःसंदेह एक सुन्दर तथा सफल नाटक है। शूद्रक ने संस्कृत साहित्य में शायद पहिली बार मध्यम श्रेणी के लोगों को अपने नाटक का पात्र बनाया है। संस्कृत का नाटक उच्च श्रेणी के पात्रों के चित्रण में तथा तदनुकूल कथानक के गुम्फन में अपनी भारती को चरितार्थ मानता हैपरन्तु शूद्रक ने इस क्षुण्ण मार्ग का सर्वथा परित्याग कर अपने लिए एक नवीन पंथ का ही अविष्कार किया है। उसके पात्र दिन-प्रतिदिन हमारे सड़कों पर और गलियों में चलने फिरनेवालेरक्तमांस से निर्मित पात्र हैंजिनके काम को जाँचने के लिए न तो कल्पना को दौड़ाना पड़ता है और न जिनके भावों को समझने के लिए मन के दौड़ की जरूरत होती है।


  • मृच्छकटिक की इसीलिए शास्त्रीय संज्ञा 'संकीर्ण प्रकरणकी हैक्योंकि इसमें लुच्चे लबारोंचोर-जुआरोंवेश्या-विटों का आकर्षण वायु-मण्डल हैजहाँ धौल-धुपाड़ों की चौकड़ी सदा अपना रंग दिखाया करती है। आख्यान तथा वातावरण की इस यथार्थवादिता और नैसर्गिकता कारण ही मृच्छकटिक पाश्चात्य आलोचकों की विपुल प्रशंसा का भाजन बना हुआ है। यहाँ कथावस्तु की एकता का भंग नहीं हैयद्यपि वर्षाकाल नाटक के व्यापार में शैथिल्य अवश्य ला देता है। शूद्रक का कविहृदय स्वयमापतित वर्षाकाल की मनोहरता से रीझ उठता है और वह कथा के सूत्र को छोड़कर उसमें मनोहर वर्णन में जुट जाता है सिवाय इस वर्णनात्मक विषय के विभित्र घटनाओं के सूत्रों का एकीकरण बड़ी सुन्दरता से किया है। 'दरिद्र-चारूदतके समान इसमें केवल एकात्मक प्रणयाख्याम नहीं हैप्रत्युत उस के साथ एक राजनैतिक आख्यान का भी पूर्ण सामंजस्य अपेक्षित है। शूद्रक ने इन दोनों आख्यानों को एक अन्विति को एक उन्विति के भीतर रखने का पूर्ण प्रयास किया और इसमें उनमें इन्हें पूर्ण सफलता भी मिली है। पात्रों के विषय में यह भूलना न चाहिए कि वे किसी वर्ग - विशेष के प्रतिनिधि ('रिप्रिजेन्टेटिव) न होकर स्वयं व्यक्तिहै । वे 'टाइपनहीं हैंप्रत्युत 'व्यक्तिहै । 


  • मृच्छकटिक के अमेरिकन भाषान्तरकार डॉ) राइडर ने ठीक ही कहा है कि इस नाटक के पात्र 'सार्वभौम' (कास्मोपालिटन) हैअर्थात् इस विश्व के किसी भी देश या प्रान्त में उनके समान पात्र आज भी चलते-फिरते नजर आते है । इसके सार्वभौम आकर्षण का यही रहस्य है। यूरोप या अमेरिका की जनता के सामने इस नाटक का अभिनय सदा सफल इसलिए हो पाया है कि वह इसके पात्रों से मुठभेंड़ अपने ही देश में प्रतिदिन किया करती है। इनमें पौरस्त्य चाकचिक्य की झाँकी का अभाव कभी भी इन्हें दूरदेशस्थ पात्रों का आभास भी नहीं प्रदान करता ।


  • डाक्टर कीथ भले ही इन्हें पूरे 'भारतीयहोने की राध देंपरन्तु पात्रों के चरित्र में कुछ ऐसा जादू है कि वह दर्शकों के सिर पर चढ़कर बोलने लगता है। आज भी माथुरक जैसे सभिक तथा उसके सहयोगियों का दर्शन कलकत्ता तथा बम्बई की ही गलिया में नहीं होता हैप्रत्युत लण्डन के ईस्ट एण्ड में भी वे घूमते-घामते घौले-घप्पड़ जमाते नजर आते हैजहाँ का 'जुआड़ियों का अड्डा' (गैम्बलिंग डेन) आज भी पुलिस की नजर बचाकर दिन दहाडे चला करता है । तात्पर्य यह है कि शूद्रक के पात्र मध्यम तथा अधम श्रेणी के रोचक पात्र हैजिनका इतना यथार्थ चित्रण संस्कृत के रूपकों में फिर नहीं हुआ। शूद्रक की नाटककला वस्तुतः श्लाघनीय है स्पृहणीय है ।

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