शूद्रक का जीवन परिचय | मृच्छकटिक की रचना का समय | Shudrak Biography in Hindi

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शूद्रक का जीवन परिचय Shudrak Biography in Hindi

 

शूद्रक का जीवन परिचय Shudrak Biography in Hindi


शूद्रक का जीवन परिचय प्रस्तावना 

  • मृच्छकटिक के रचियता शूद्रक हस्तिशास्त्र में परम प्रवीण थेभगवान शिव के अनुग्रह से उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ थाबड़े ठाट बाट से उन्होने अश्वमेघ यज्ञ किया थाअपने पुत्र को राज्य सिहांसन पर बैठा दस दिन तथा सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर अन्त में अग्नि प्रवेश किया । 


  • शूद्रक युद्धों से प्रेम करते थेप्रमाद रहित थेतपस्वी तथा वेद जानने वालों में श्रेष्ठ थेराजा शूद्रक को बड़े हाथियों के साथ बाहुयुद्ध करने का बड़ा शौक थाउनका शरीर था शोभनउसकी गति थी मतंग के समान नेत्र थे चकोर की तरहमुख था पूर्ण चन्द्रमाँ की भाँति तात्पर्य यह है कि उनका समग्र शरीर सुन्दर था। वे द्विजो में थे। 


आप इस आर्टिकल में इन विषयों पर जानेंगे -

  • शूद्रक कौन थे इसका उल्लेख करेंगे 
  • शूद्रक के पुत्र कौन थेपरिचय देंगे। 
  • शूद्रक का जन्म स्थान कहाँ हैनिर्णय करेंगे। 
  • शूद्रक की मुख्य कृति के विषय में परिचय देंगे। 


 

शूद्रक का जीवन परिचय  (Shudrak Biography in Hindi)

 

  • मृच्छकटिक के रचियता शूद्रक का कुछ परिचय ग्रन्थ के आरम्भ (1। 4. 1। 5) में ही जीवन परिचय मिलता है। उसके अनुसार शूद्रक हस्तिशास्त्र में परम प्रवीण भगवान शिव के अनुग्रह से उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ थाबड़े ठाट बाट से उन्होने अश्वमेध यज्ञ किया थाअपने पुत्र को राज्य सिहांसन पर बैठा दस दिन तथा सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर अन्त में अग्नि में प्रवेश किया। 


  • वह युद्धों से प्रेम करते थेप्रमाद रहित थेतपस्वी तथा वेद जानने वालों में श्रेष्ठ थे, राजा शूद्रक को बड़े हाथियों के साथ बाहुयुद्ध करने का बड़ा शौक थाउनका शरीर था शोभनउसकी गति थी मतंग समान नेत्र थे चकोर की तरहमुख था पूर्ण चन्द्रमाँ की भाँति । तात्पर्य यह है कि उनका समग्र शरीर सुन्दर था । वे द्विजो में मुख्य थे प्रतीत होता है की किसी अन्य लेखक ने यहाँ जान बूझ कर कह दिया है 'शूद्रकोऽग्निप्रविष्टस्वयं लेखक की लेखनी इस भूतकाल का प्रयोग कैसे कर सकती है। निः संदेह यह अंश प्रक्षेप है।

 

  • शूद्रक नामक राजा की संस्कृत साहित्य में खूब प्रसिद्धि है। जिस प्रकार विक्रमादित्य के विषय - में अनेक दंतकथायें है उसी प्रकार शूद्रक के विषय में भी है। कादम्बरी विदिशा नगरी में कथा सरित्सागर में शोभावती तथा वेतालपंचविंशति में वर्धमान नामक नगर में शूद्रक के राज्य करने का वर्णन पाया जाता है। 


  • कथा सरित्सागर का कथन है कि किसी ब्राह्मण ने राजा को आसन्नमृत्यु जानकर उसे दीर्घ जीवन की आशा में अपने प्राण निछावर कर दिये थे। हर्षचरित में लिखा है शूद्रक चकोर राजा चन्द्रकेतू का शत्रु था। राजतरंगिणीकार स्थिर निश्चलता के दृष्टान्त के लिये शूद्रक का स्मरण करते है। स्कन्दपुराण के अनुसार विक्रमादित्य के सत्ताईस वर्ष पहले शूद्रक ने राज्य किया था। 


  • प्रसिद्ध है की कालिदास के पूर्ववती रामिल तथा सोमिल नामक कवियों ने मिलकर 'शूद्रक कथानामक कथा लिखी थी। अतः शूद्रक इसके कर्ता नहीं है बहुत है से लोग तो शूद्रक की सत्ता में ही विश्वास नहीं करते। परन्तु ये सब श्रान्त धारणाऐं हैं। तथ्य यह प्रतीत होते है कि विक्रमादित्य के समान ही शूद्रक भी ऐतिहासिक क्षेत्र से उठकर कल्पना जगत के पात्र माने जाने लगे थे। और जिस प्रकार ऐतिहासिक लोग प्रथम शतक में विक्रमादित्य के अस्तित्व के विषय में ही सन्देहशील थे उसी प्रकार शूद्रक के विषय में भी आधुनिक शोध में दोनों ही ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध होते हैं। ऐसी दशा में शूद्रक को मृच्छकटिक का रचियता न मानने वाले डा० सिल्वाँ लेवी तथा कीथ मत स्वयं ध्वस्त हो जाता है। पिशेल ने जो दण्डी को इसका रचियता होने का श्रेय दिया है वह भी कालविरोध होने से भ्रान्त प्रतीत होता है। शूद्रक ऐतिहासिक व्यक्ति थे और वे ही मृच्छकटिक के यथार्थ लेखक थे। 

 

शूद्रक का का जन्म समय

  • जन्म समय पुराणों में आन्ध्रभृत्य कुल के प्रथम राजा शिमुक का वर्णन मिलता है। अनेक - भारतीय विद्वान राजा शिमुक के साथ शूद्रक की अभिन्नता को अंगीकार कर इनका समय विक्रम की प्रथम शताब्दी में मानते है। यही यह अभिन्नता सप्रमाण सिद्ध की जा सके तो शूद्रक कालिदास के समकालीन अथवा उनके कुछ पूर्व के ही माने जायेंगे। परन्तु मृच्छकटिक की इतनी प्राचीनता स्वीकार करने में बहुतों को आपत्ति है।

 

  • वामनाचार्य ने अपनी काव्यालंकार सूत्र वृति में 'शूद्रकादिरचिषुप्रबन्धेषुशूद्रक विरचित प्रबन्ध का उल्लेख किया और 'द्यूतं हि नाम पुरूषस्य असिंहासनं राज्यम्इस मृच्छकटिक के द्यूत प्रशंसा परक वाक्य को उद्धृत भी किया हैजिससे हम कह सकते है कि आठवीं शताब्दी के पहले ही मृच्छकटिक की रचना की गई होगी । वामन के पूर्ववर्ती आचार्य दण्डी (सप्तम शतक) ने भी काव्यादर्श में 'लिम्पतीव तमोऽङानिमृच्छकटिक के इस पद्यांश को अलंकारनिरूपण करते समय उद्धृत किया है। इन बहिरंग प्रमाणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि मृच्छकटिक की रचना सप्तम शताब्दी के पहले ही हुई होगी। समय-निरूपण में मृच्छकटिक के अन्तरंग प्रमाणों से भी बहुत सहायता मिलती है। नवम अंक मे वसन्तसेना की हत्या करने के लिए शकार आर्य चारूदत्त पर अभियोग लगता है। अधिकरणिक के सामने यह पेश किया जाता है अन्त में मनु के अनुसार ही धर्माधिकारी निर्णय करता है।

 

अयं हि पातकी विप्रो न बध्यो मनुरब्रवीत् 

राष्ट्रादस्मातु निर्वास्यो विभवैरक्षतैः सह ।

 

 

  • इससे स्पष्ट ही है कि मनु के कथनानुसार अपराधी चारूदत्त अवध्य सिद्ध होता है और धनसम्पति के साथ उसे देश से निकल जाने का दण्ड दिया जाता है। यह निर्णय ठीक मनुस्मृति के अनुरूप है।

 

न जातु ब्राह्मणं हन्यात् सर्वपापेष्वपि स्थितम् । 

राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात् समग्रधनमक्षतम् ॥ 

न ब्राहमणवधाद् भूयानधर्मो विद्यते भुवि । 

तस्मादस्य वधं राजा मनसपि न चिन्तयेत् ॥

 

  • अतः मृच्छकटिक की रचना मनुस्मृति के अनन्तर हुई होगी। मनुस्मृति का रचना काल विक्रम से पूर्व द्वितीय शतक माना जाता है जिसके पीछे मृच्छकटिक को मानना होगा। भास कवि के दरिद्र चारूदततथा शूद्रक के 'मृच्छकटिकमें अत्यन्त समानता पाई जाती है। मृच्छकटिक का कथानक बहुत विस्तीर्ण हैदरिद्र चारूदत्त का संक्षिप्त । 


  • मृच्छकटिक भास के रूपक के अनुकरण पर रचा गया हैअतः शूद्रक का समय भास के पीछे चाहिए। मृच्छकटिक के नवम अंक में कवि ने बृहस्पति को अंगारक (अर्थात् मंगल) का विरोधी बतलाया है परन्तु वराहमिहिर ने इन दोनों ग्रहों को मित्र माना है। प्रसिद्व 1 अङारकविरूद्वस्य प्रक्षीणस्य बृहस्पतेः ग्रहोऽयमपरः पार्श्वे धूमकेतुरिवोत्थितः ।। (मृच्छ0 9 133)

 

  • ज्योतिषी वराहमिहिर का सिद्धांत ही आजकल फलित ज्योतिष में सर्वमान्य है। आज कल भी मंगल तथा बृहस्पति मित्र ही माने जाते हैपरन्तु वराहमिहिर के पूर्ववर्ती कोई-कोई आचार्य इन्हें शत्रु मानते थेजिसका उल्लेख बृहज्जातक में ही पाया जाता है । वराहमिहिर का परवर्तीग्रन्थकार बृहस्पति को मंगल का शुत्र कभी नहीं माना जा सकता । अतः शुद्रक वराहमिहिर से पूर्व के ठहरते है। वराहिमिहिर की मृत्यु 589 ईस्वी में हुई थीइसीलिए शूद्रक का समय छठी सदी के पहिले होना चाहिये ।

 

  • इन सब प्रमाणों का सार है कि शूद्रक दण्डी (सप्तम शतक) और वराहमिहिर (षष्ट शतक) के पूर्ववर्ती थेअर्थात् मृच्छकटिक की रचना पंचम शतक में मानना उचित है । और यह अविर्भावकाल नाटक में वर्णित सामाजिक दशा से पुष्ट होता है।

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