श्री हर्ष व्यक्तित्व एवं कृतियो का विस्तृत परिचय |श्रीहर्ष कृत रचनाएँ | Shree Harsh Jeevan evam Rachnayen

Admin
0

श्री हर्ष व्यक्तित्व एवं कृतियो का विस्तृत परिचय,  श्रीहर्ष कृत रचनाएँ  

श्री हर्ष व्यक्तित्व एवं कृतियो का विस्तृत परिचय |श्रीहर्ष कृत रचनाएँ  | Shree Harsh Jeevan evam Rachnayen


श्री हर्ष का व्यक्तित्व परिचय  

  • श्री हर्ष का व्यक्तित्व क्या है श्री हर्ष का जीवन चरित्र का वर्णन बाणभट्ट के ग्रन्थ हर्ष चरित में प्राप्त होता है। श्री हर्ष के पिता प्रभाकर वर्धन तथा माता यशोमती है। ये अपने पिता के दूसरे पुत्र इनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम राज्य वर्धन था। राज्य श्री ' नाम की इनकी बहिन योग्य विदुषी थी। बाल्यकाल में इन्हें समुचित शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी। महाराजा हर्ष एक महान कवि थे। उन्होने स्वयं भी अनेक रमणीय और सरद ग्रन्थों की रचना कर सरस्वती के विपुल भण्डार को भरा है। इनका व्यक्तित्व ही महान था। श्री हर्ष एक महान दानी थे। श्री हर्ष ने बड़ी भारी सम्पति कवियों को दे डाली। श्री हर्ष महा उदार और सरल हृदय वाले थे। उन्होने तीन ग्रन्थों का निर्माण किया है।


श्री हर्ष व्यक्तित्व एवं कृतियो का विस्तृत परिचय

 

  • बाणभट्ट के हर्षचरित' तथा ह्वेनसांग के यात्राविचरण से हमें स्फुटरूप से ज्ञात है कि हर्षवर्धन हूण-हरिण-केसरीप्रभाकरवर्धन तथा यशोमती के पुत्र थे ये अपने पिता के दूसरे लड़के थे । इनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम राज्यवर्धन था । 'राज्यश्री' नाम की इनकी बहिन योग्य विदुषी थी ।


  • बाल्यकाल में इन्हें समुचित शिक्षा दी गई थी। पिता ने पंजाब में रहनेवाले हूणों को पराजित करने के लिए राज्यवर्धन के साथ इन्हें भेजा। राज्यवर्धन आगे जाकर शत्रुओं का विनाश कर रहे थे, इधर हर्षवर्धन आखेट आदि मनोरंजन के साथ-साथ शत्रुओं का पीछा कर रहे थे इतने में पिता की अस्वस्थता के दुःखद समाचार को लिए हुए एक दूत आया राजधानी लौट आने पर हर्ष ने पूज्य पितृदेव को मृत्युशैय्या पर पाया।


  • प्रभाकरवर्धन ने हर्षवर्धन को 'निरवशेषाःशत्रवो नेया:' का उपदेश देकर इस असार संसार से विदाई ली । मन्त्रियों के कहने पर ज्येष्ठ भ्राता के आगमन में कुछ विलम्ब जानकर हर्षवर्धन ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली । कुछ समय के अनन्तर राज्यवर्धन ने आकर शासन भार अपने ऊपर लिया, परन्तु वह स्वयं ही वङीय नरेश शशांक की कुटिल नीति का शिकार बन गया। शशांक ने विश्वास दिला कर राज्यवर्धन को मार डाला। 


  • हर्ष के हृदय में भ्रातृवध का समाचार सुनकर प्रतिहिंसा की प्रबल अग्नि प्रज्वलित हो उठी हर्षवर्धन ने यथासमय शशांक का विनाश कर बंगाल को अपने राज्य में मिला लिया। रिक्त सिंहासन की बागडोर हर्षवर्धन में अपने सुमृद्धतथा राज्यकाल 6060 से लेकर 6470 तक माना जाता है।

 

  • महाराजा हर्षवर्धन केवल वीर-लक्ष्मी के उपासक न थे, अपितु ललित कलाओं के भी अत्यन्त प्रेमी थे । आपकी सभा को अनेक गुण और गौरव युक्त विद्वान् सर्वदा सुशोभित किया करते थे । बाणभट्ट, मयूरभट्ट तथा मातंगदिवस कर जैसे कवियों से मण्डित इनकी सभा साहित्य-संसार में सदा प्रख्यात रही है। सुना जाता है कि दिवाकर का जन्म नीच (चाण्डल) जाति में हुआ था, परन्तु ये अपनी गुणगरिमा से बाण और मयूर के समान ही राजा के आदरपात्र थे। 


इस बात को राजशेखर ने सरस्वती के प्रभाव को दिखलाते हुए बड़े ही अच्छे ढंग से कहा है- 

अहो प्रभावो वाग्देव्या यन्माङदिवाकरः 

श्रीहर्षस्याभवतृ सभ्य: समो वाणमयूरयोंः ॥

 

दशवीं शताब्दी में उत्पत्र होने वाले महाकवि पद्मगुप्त ने अपने नवसाहसांकचरित' महाकाव्य में महाराज हर्ष की सभा में बाण और मयूर की उपस्थित का वर्णन इस प्रकार किया हैः- 

स चित्रवर्णविच्छितिहारिणोरवनीपतिः 

श्रीहर्ष इव संघटचके बाणमयूरयोः ॥ 


  • महाराज हर्ष केवल कवि और पण्डितों के ही आश्रयदाता और गुणग्राही न थे, बल्कि उन्होंने स्वयं भी अनेक रमणीय और सरद ग्रन्थों की रचना कर सरस्वती के विपुल भण्डार को भरा है इस बात को हम अच्छी तरह से कह सकते हैं कि महाकवि कालिदास की यह सरल सूक्ति ‘‘निसर्गभित्रस्पदमेकसंस्थमस्मिन् द्वयं श्रीश्च सरस्वती चं महाराज हर्ष के विषय में अच्छी तरह से चरितार्थ होती है । 


  • इस भारतवर्ष में विकमादित्य, शूद्रक, हाल प्रभृति अनेक विद्या के उपासक राजा हो गये है, परन्तु उन सब में महाराज हर्ष (हर्षवर्धन) अद्वितीय हैं । महाकवि पीयूषवर्ष जयवेद ने अपने 'प्रसन्नराघव' नाटक में महाराज हर्ष को कविताकामिनी का हर्ष (हर्षोहर्षः) कहा है। उन्होनें वाणभट्ट के साथ हर्ष का नामोल्लेख भी किया है। विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में उत्पन्न होने वाले सोड्ढल ने अपनी 'उदयसुन्दरीकथा' नामक चम्पू में श्रीहर्ष की, सरस्वती को हर्ष प्रदान करने के कारण, 'श्रीहर्ष' कहकर प्रशंसा की है:--

 

श्रीहर्ष इत्यवनिवर्तिषु पाथिवेष नाम्नैव केवल जायत वस्तुतस्तु । 

'श्रीहर्ष' एष निजसंसदि येन राज्ञा सम्पूजितः कनककोटिशतेन बाणः ।।

 

  • इसी तरह दामोदर गुप्त ने 'कुटनीमत' नामक ग्रन्थ में 'रत्नावली' का नाम लेकर संकेत किया है। यह नाटिका किसी राजा के द्वारा बनाई गई है और उसके निर्माता महाराज हर्ष है, ऐसा कहते हुए उन्होंने उनकी हर्ष की काव्यचातुरी की अत्यन्त प्रशंसा की है इत्सिङ नामक चीनी बौद्ध परिव्राजक अपने धर्मग्रन्थों को पढ़ने की इच्छा से हर्ष की मृत्यु के बाद भारतवर्ष में आया था।  उसने अपने यात्रा विवरणात्मक ग्रन्थ में महाराज हर्ष को 'नागान्द' नाटक का रचयिता होना स्पष्ट ही लिखा है। 


  • उसने यह लिखा है:-- 'राजा शीलादित्य (हर्ष) ने बोधिसत्व जीमूतवाहन की आख्यायिका को नाटकरूप में परिणत किया और उस नाटक का संगीतादि सामग्री के साथ नंटों के द्वारा अभिनय कराया।' इस प्रमाण से स्पष्ट है कि महाराज हर्ष ने 'नागान्द' नाटक का निर्माण किया था, परन्तु इन प्रमाणों के होते हुए भी जो विद्वान् महाराज हर्ष के ग्रन्थ-रचयिता होने में सन्देह करते है वे बाणभट्ट के इस कथन पर विचार कर अपने सन्देह को दूर कर लें। 


  • श्री बाणभट्ट ने 'हर्षचरित' में दो बार राजा (श्री हर्ष) की काव्य- व्याकरणचातुरी की प्रशंसा की है। बाणभट्ट का यह कथन हर्ष की काव्य चातुरी को प्रकट कर रहा है। 'अस्य कवित्स्य वाचो न पर्याप्तो विषयः । इस प्रकार से बाणभट्ट ने हर्ष की काव्य रचना की चतुरता को स्पष्ट ही प्रकट किया है । इन ऊपर लिखित प्रमाणों से हमें विश्वास होता है कि महाराज हर्षवर्धन अच्छे कवि थे एवं कविता करने में खूब दक्ष थे। श्रोहर्ष का ग्रन्थ मिलते है--रत्नावली, नागानन्द और प्रियदर्शिका । 


  • साहित्य-संसार में रत्नावली के रचयिता के में सम्बन्ध बड़ा आन्दोलन हो चुका है। इस बड़ी गड़बड़ी का मूल कारण मम्मट के काव्यप्रकाश का एक वाक्यांश है मम्मट ने काव्य के प्रयोजनों में अर्थप्राप्ति भी एक प्रयोजन माना है--हजारों महाकवि कविता देवी की पूजा कर लक्ष्मी के कृपापात्र बन गये हैं। उदाहरणार्थ, धावकादि कवियों ने हर्षवर्धन से असंख्य धन पाया (श्री-हर्षादेःधावकादीनामिव धनम्) | काव्यप्रकाश के कतिपय टीकाकारों ने इससे यह अर्थ निकाला है कि घावक ने रत्नावली की रचना हर्षवर्धन के नाम से करके असंख्य सम्मति पाई। काव्यप्रकाश के किसी-किसी काश्मीरी प्रति में धावक के स्थान पर बाण का नाम उल्लिखित है, जिसके आधार पर कितने ही विद्वान् बाणभट् पर ही रत्नावली के कर्तृत्व का भार आरोपित करते है। परन्तु ये सब आधुनिक विद्वानों की अनिश्चित कल्पनायें हैं।

 

  • काव्य - प्रकाश के उल्लेख का यही आशय है कि श्रीहर्ष ने बड़ी भारी सम्पति कवियों को दे डाली। श्रीहर्ष जैसे उदाराशय तथा महादानी नरेश के लिये यह बात असम्भव नहीं जान पड़ती। जब असंख्यों ब्राहम्ण, भिक्षु तथा जैनों का आदर होता था तथा उनको प्रशंसनीय दान मिलता था, तब गुणग्राही हर्ष के लिये उसकी कीर्तिलता को पल्लवित करनेवाले कवियों को दान देने में-- आदर करने में--भला संकोच कैसे हो सकता है ? काव्यप्रकाश के उल्लेख का प्रकरणगम्य तात्पर्य यही है। अनेकों अर्वाचीन तथा प्राचीन कवियों ने श्रीहर्ष के समीचीन कवि-समाश्रय की शतशः प्रशंसा की है। अभिनन्द कवि ने मम्मट के कथन को दुहराया है:-- श्रीहर्षों विततार गद्यकवये बाणाय वाणीफलम् । एक दूसरे काव्य मर्मज्ञ ने ठीक ही लिखा है:--

 

हेम्नो भारशतानि वा मदमुचां वृन्दानि वा दन्तिनां 

श्रीहर्षण समर्पितानि कवये बाणय कुत्राद्य तत् । 

या बाणेन तु तस्य सूक्तिनिकरैरूटङिताः कीर्तय

स्ता: कल्पप्रलयेऽपि यान्ति न मनांग मन्ये परिम्लानताम् ॥

 

  • भावार्थ यह है कि हर्ष ने बाणभट्ट को हजारों दिग्गज तथा असंख्य सम्पति दे डाली, परन्तु आज उनका नामोनिशान नहीं हैं; किन्तु बाण ने हर्ष की कीर्ति को काव्यरूप में जो जड़ दिया वह कराल काल के फेर में पड़कर भी मलिन नहीं हो सकती। इससे स्पष्ट है कि ये सब उल्लेख हर्ष के आश्रयदान तथा कवि सत्कार को लक्षित करते है। 


  • हर्ष की स्वयं दर्शन में अच्छी गति थी वह ह्वेनसांग के संसर्ग से बौद्ध दर्शन का एक अभिज्ञ पण्डित बन गया था। ऐसे उदार दानी तथा विद्वान् सम्राट का ऊदार अपने नाम से काव्य गढ़ने की कालिमा पोतना काव्यजगत् में अत्यन्त कलुषित कार्य है । उसका अपने आश्रित कवियों से सहायता लेना असंभव कार्य नही प्रतीत होता, उसको इन नाटकों के कर्तृत्व से वंचित करना हर्ष के महान् गुणों की अवज्ञा करना है। एक क्षण के लिए बाण या घावक को रत्नावली का कर्ता मान भी लिया जाय, परन्तु नागानन्द तथा प्रिय-दर्शिका का कर्तृत्व तो हर्ष से ही सम्बद्ध है। कोई भी आलोचक बाणभट्ट को नागानन्द का कर्ता मानने को उद्यत नहीं है। सर्वसम्मति से इस नाटकत्रय की रचना हर्ष की लेखनी से हुई है। अत एव रत्नावली के कर्तृत्व को बाण पर आरोपित करना निन्दनीय जान पड़ता है। पूर्वोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इन तीन नाटकों की रचना स्वंय सम्राट् हर्षवर्धन ने की।

 

श्री हर्ष के ग्रन्थ

 

  • इनकी तीन रचनायें है--(1) प्रियदर्शिका (2) रत्नावली तथा (3) नागानन्द ये तीनों रूपक एक ही लेखक की रचनायें है; इसमें सन्देह करने के लिए स्थान नहीं है। तीनों में घटनाओं का आश्चर्यजनक साम्य है।


  • रत्नावली में सागरिका अपने चित्तविनोद के लिये राजा का चित्र खींचती है।नागानन्द में जीमूतवाहन उसी उद्देश्य से मलयवती का चित्र बनाता है। दोनों स्थानों पर चित्रों के द्वारा ही पात्रों के स्निग्ध हृदय तथा प्रणय की कथा का परिचय दर्शकों का मिलता है ।


  • रत्नावली में अपमानित होने पर सागरिका अपने गले को लतापाश से बाँधकर प्राण देने का उद्योग करती है। नागानन्द में भी यही घटना है नायिका मलयवती प्रणय में अनादृत होने से अपने गले को जकड़ कर मरने का प्रयास करती है। दोनों स्थानों पर नायक के द्वारा उनके प्राणों की रक्षा होती है।


  • इतना ही नहीं, बहुत से पद्य इनमें परस्पर उद्धृत किये गए हैं। फलत: ये तीनों ये ही लेखक की लेखनी की सुचारु रचनाये है। इन रुपकों में लेखनकर्म का भी निर्णय अन्तरंग परीक्षा के बल पर किया जा सकता है। 


  • प्रियदर्शिक तथा रत्नावली दोनों ही प्रणय नाटिकायें है और एक ही कथानक - उदयन के कथानक से सम्बन्ध रखती है। प्रिय दर्शिका में घटना का विन्यास बहुत ढंग का है । रत्नावली में हम घटनाओं के प्रस्ताव में तथा नायिका के प्रणवर्णन में सुधार पातें हैं, जो निश्चयेन रत्नावली' को परवर्ती सिद्ध कर रहा है। 


  • नागानन्द के अंतिम नाटक होने का प्रमाण उसके अभिनेय विषय की गम्भीरता तथा महनीयता है। इसके भी तीन अंको में प्रणय का वर्णन है, परन्तु यहाँ कवि विवाह सम्बन्ध को प्रतिष्ठित करने के लिए गंधर्व- विवाह की पद्धति अपनाता है, जहाँ परवर्ती नाटिकाओं में द्वितीय विवाह की सिद्धि प्रथम विवाहिता राजमहिषी की स्वेच्छा पर वह अवलम्बित करता है।


  • श्रीहर्ष का चित अब सांसारिक प्रपंचों से ऊब गया है और वह प्रणय से शान्ति की ओर जाता है। उसकी जीवन-सन्ध्या के अनुरूप शान्त रसात्मक नागानन्द का प्रणयन है, जहाँ राजाओं के भोगविलासमय नगर से हटकर प्रधान घटनायें आश्रम के शान्त वातावरण में ही घटित होती है।


श्री हर्ष-  वस्तुविन्यास 

  • रत्नावली संस्कृत साहित्य की प्रथम नाटिका है और बहुत ही सफल नाटिका है। शास्त्रीय पद्वति से नाटिका नाटक तथा प्रकरण के उद्भूत एक सुन्दर नाटकिय रचना है जिसमें नायक 'नाटक की भाँति इतिहास तथा परम्परा में प्रख्यात होता है तथा कथानक प्रकरण' के रहता है। दोनों नाटिकाओं का नायक कौशाम्बी-नरेश वत्सराज उदयन है, जो प्राचीन इतिहास में तुल्य कवि-कल्पित अपने रोमांचक प्रणय कारण पर्याप्त प्रख्यात है। दोनों का विषय कवि-कल्पित है। नाटिका की शास्त्रीय कल्पना कालिदास के 'मालविकाग्निमिंत्र के आधार पर गढ़ी गयी प्रतीत होती है। इसलिए इन नाटिकाओं के ऊपर कालिदास के इस नाटक का प्रचुर प्रभाव खोजा जा सकता है, तथापि इनमें पर्याप्तरूपेण मौलिकता है।

 

  • प्रियदर्शिका का सम्बन्ध भी उदयन के कथानक के साथ है। यह भी चार अंको की एक प्रणयनाटिका है। इसकी वस्तु उतनी सुन्दरता के साथ उपन्यस्त नहीं है। उसमें उतनी चुस्ती तथा आकर्षण नहीं है। वत्स का सेनापति विजयसेन दृढ़ध्यकेतु की पुत्री प्रियदर्शिका को दरबार में लाता है तथा आरण्यकाधिपति विन्ध्यकेतु की कन्या रूप में वहाँ रख देता है। 


  • महाराज उसे वासवदता को सौंप देते हैं, जो उसकी शिक्षा का प्रबन्ध करती है। द्वितीय अंक में राजा उदयन विदूषक के साथ उपवन में घूमने जाते है, जहाँ फूल चुनने के लिए आई प्रियदर्शिका कमलों पर उड़ हुए भौंरों से परेशान होती है और बिल्ला उठती है। राजा लताकुंज से प्रकट होकर उसे बचाया है । यहीं नायिका का प्रथम दर्शन नायक को होता है तथा अनुराग का बीज इतनी देर में कवि यहाँ बोता है।


  • तृतीय अंक में गर्भाक का सुन्दर निवेश है। मनोरमा (प्रियदर्शिका की सखी) तथा विदूषक की युक्ति से सम्मिलित कल्पित किया जाता है वासवदत्ता उदयन-चरित से सम्बद्व नाटक का अभिनय करना चाहता है जिसमें मनोरमा को उदयन बनाया है और आरण्यका (प्रिय दर्शिका ) को वासवदत्ता । बड़े कौशल से मनोरमा के स्थान पर स्वंय उदयन ही पहुँच जाता है। वासवदत्ता को संदेश होता है और मनोरमा की सारी चाल पकड़ ली जाती है। 


  • चतुर्थ अंक में वासवदत्ता इसलिए चिन्तित है कि उसका मौसा दृढ़वर्मा कलिंगराज के द्वारा बन्धन में पड़ा हुआ है | उदयन उसे छुड़ाने के लिए अपनी सेना भेजता है । दृढ़-वर्मा का कंचुकी आता है और प्रियदर्शिका को पहचान लेना है जिससे वासवदता उदयन के साथ उसका विवाह करा देती है। रत्नावली में चार अंक है। प्रथम अंक के आरम्भ में राजा का प्रधानामात्य यौगन्धरायण दैव की अनुकूलता तथा सहायता का संकेत करता है जिसके कारण उदयन के साथ परिणय के लिए आनेवाले सिंहलेश्वर की राजकन्या रत्नावली जहाज के डूब जाने पर भी बच जाती है तथा वह मन्त्री के पास किसी सामुद्रिक वनिये के द्वारा लाई जाती है। 


  • मन्त्री उसे सागरिका के नाम से वासदता की देख-रेख में रख आता है। कामदेव के उत्सव के प्रसंग में वासवदत्ता कामवपुः राजा के में उदयन की ही सद्य: पूजा करती है जिसे पेड़ो की झुरमुट से छिपे तौर से सागरिका प्रथम वार देखती है, उन्हें कामदेव समझती है तथा प्रणय के मधुर भाव के अंकुरण के लिए पात्र बनती है। 


  • द्वितीय अंक में सागरिका अपनी सखी सुसंगता के साथ चितविनोद के लिए राजा का चित्र अंकित करती है जिसके पास सुसंगता सागरिका का ही चित्र खींचकर उसे रतिसनाथ बना देती है कुछ गुप्त प्रणय की भी चर्चा है। वाजिशाल से एक बन्दर के तोड़कर भागने से महल में कोहराम मच जाता है। इसी हल्लागुल्ला में ये दोनों भाग खड़ी है। चित्रफलक वहीं छूट जाता है और राजा के हाथ पड़ने से वह गुप्त प्रेम के प्रकटन का साधन बनता हैं। इस प्रेम के प्रसारण में सारिका का भी कुछ हाथ हैं। 


  • तृतीय अंक इस नाटिका का हृदय हैं तथा कवि की मौलिक सूझ का उज्ज्वल उदाहरण हैं। वेश-परिवर्तन से उत्पन्न भ्रान्ति के कारण जायमान घटना- सांकर्य बड़ा ही सुन्दर हैं। तथा शेक्सपीयर के 'कॉमेडी ऑफ एरर्स' नामक नाटक के समान हैं। सागरिका वासवदत्ता का तथा सुसंगतता का दासी का 'चनमाला का वेश धारण कर राजा से पूर्व निश्चय के अनुसार : मिलने आती हैं, परन्तु असली वासवदत्ता के इनसे पहले ही आ जाने के कारण सारा गुड़ गोबर हो जाता है। असली और नकली का विभेद बड़ी ही हास्यजनक स्थिति पैदा करता हैं जिससे अपमानित मानकर सागरिका लतापाश के द्वारा मरने जाती हैं, परन्तु राजा उसे बचाता हैं। 


  • चतुर्थ अंक में जादूगर के 'अग्निदाह' का प्रभाव शाली दृश्य हैं। सागरिका भूगर्भ में कैद कर रखी गयी हैं। वह वहाँ से बचा कर सभा में लायी जाती हैं जहाँ उसके पिता के मन्त्रि वसुभूति तथा कंचुकी वाभ्रव्य उसे विदूषक के गले में लटकने वाली 'रत्नावली' की सहायता से पहचानते हैं,  तथा वासवदत्ता स्वयं प्रसन्न होकर अपनी भगिनीभूता रत्नावली से राजा का विवाह करा देती हैं। यही मंगलमय अवसान हैं।

 

नागानन्द नाटक

  • नागानन्द में पाँच अंक हैं। यह किसी बौद्ध अवदान के ऊपर आश्रित हैं। 
  • प्रथम अंक में जीमूतकेतु का आश्रम में जाना तथा उनके पुत्र जीमूतवाहन का भी पितृदत्त राज्य का परित्याग कर वहीं सेवार्थ जाना और गौरी के मन्दिर में मलयवती के वीणावादन से उसके हृदय के अनुराग का संचार वर्णित हैं। 
  • द्वितीय अंक में जीमूतवाहन तथा मलयवती के आनन्ददायक विवाह का विस्तृत वर्णन हैं। 
  • तृतीय अंक भी विवाह-कथा से ही सम्बद्ध हैं। 

  • चतुर्थ अंक में राज कुमार जीमूतवाहन का समुद्रतीर आना तथा प्रतिदिन एक नाग का गरूड़ के लिये भोजन बनने की बात वर्णित हैं। उस दिन अपनी माता के इकलौते पुत्र शंखचूड़ की बारी थी। उसकी माता के कारण रोदन से द्रवीभूत जीमूतवाहन स्वयं उसके स्थान पर गरूड़ का भोजन बनने जाता हैं, शंखचूड़ राजी नहीं होता हैं, परन्तु उसकी क्षणिक अनुपस्थित में जीमूत अपने शरीर को रक्तवस्त्र में ढँककर शिला पर बैठ जाता हैं। गरूड़ आकर अपनी चोंच में उसे पहाड़ के शिखर पर उठा ले जाता हैं तथा खाता हैं। जीमूत दृढ़ हैं, उसके इस त्याग पर पुष्पवृष्टि होती हैं। 


  • पंचम अंक में माता-पिता व्याकूल होकर जीमूत के समाचार के लिये सेवक भेजते हैं। शंखचूड़ से पूरी घटनाओं का पता चलता हैं। गरूड़ को भी इस नाग की दृढ़ता पर आश्चर्य होता हैं। वह पूरा हाल पूछता हैं तथा नागों को न खाने की प्रतिज्ञा कर वह जीमूत के खाने से विरत होता हैं। मंगल के साथ नाटक समाप्त होता हैं। रत्नावली की प्रसिद्धि अपने गुणों के कारण प्राचीनकाल से ही अक्षुण्ण चली आ रही हैं। शास्त्रीय पद्धती पर निर्मित एक सम्पूर्ण रूपक के रूप में इसकी प्रख्याति का पता हमें 'दशरूपक' के विशिष्ट विश्लेषण से चलता हैं। धनंजय ने इसकी कथावस्तु का विस्तृत तथा विशद विश्लेषण 'दशरूपक' में किया हैं। विश्वनाथ कविराज ने भी सन्धियों तथा सन्ध्यंकों के दृष्टान्त देने के लिए इसे ही विशेषतया चुना हैं । यह न समझना चाहिये कि नाटकीय विधिविधानों को प्रदर्शित करने के लिए ही हर्ष ने रत्नावली की रचना की।

 

  • यदि ऐसा होता तो यह नाटिका साधारण कोटि की ही ठहरती हैं, परन्तु तथ्य यह नहीं हैं। हर्ष ने एक आदर्श कथानक को लेकर एक भव्य रूप दिया हैं जिसके विश्लेषण करने से नाटयशास्त्र के  अनुसार वस्तु की पाँचों सन्धियाँ यहाँ सपस्ट रूप से उपस्थित हैं।


  • रत्नावली नाटिका का बीज वत्सराज के द्वारा रत्नावली की प्राप्ति का कारणभूत अनुकूल देव हैं, जो राजा के अनुराग को बढ़ाने में सहायक होता हैं । इस प्रकार प्रथम अंक में अनुराग-बीज का प्रक्षेप हैं और यहाँ मुख सन्धि भी वर्तमान हैं । बिन्दु का उपक्षेप 'अस्तायास्तसमस्तभासी नभसः पार प्रयाते रवौ' वाले श्लोक में हैं । प्रतिमुखसन्धि द्वितीय अंक में आती हैं। जहाँ वत्सराज और सागरिका के मिलन के लिये उद्योगशील सुसंगता और विदुषक उस अनुराग बीज को पूर्णतया जान लेते हैं। तथा वासवदत्ता भी चित्रफलक के वृतान्त से उस अनुराग का अनुमान करती हैं। इस प्रकार दृश्य और अदृश्य रूप से विकसित होने के कारण इस अंक में प्रतिमुख सन्धि हैं। 


  • गर्भ सन्धि तृतीय अंक में हैं, जहाँ वेश बदलकर सागरिका के अभिसरण से राजा के हृदय में उसकी प्राप्ति की आशा बंध जाती हैं । परन्तु वासवदत्ता के अड़ंगा लगा देने से उस आशा पर भी पानी फिरा हैं । 


  • अवमर्शसन्धि रत्नावली के चतुर्थ अंक में आग लगने तक के कथानक तक हैं। क्योंकि यहाँ वासवदत्ता की प्रसन्नता हो जाने से रत्नावली की प्राप्ति में किसी प्रकार का विघ्न दृष्टिगोचर नहीं होता हैं। निर्वहणसन्धि चतुर्थ अंक के अर्ध में हैं, जहाँ वसुभूति तथा बाभ्रव्य के साक्षात् प्रमाण एवं विदूषक के गले में विद्यमान रत्नावली को देखकर सागरिका के सच्चे रूप का बोध होता हैं। तथा राजा का उससे मिलन सम्पन्न होता हैं।

 

अति लघुत्तरीय प्रश्न -  

1. हर्षवधर्न के माता पिता का क्या नाम था । 

2. हर्षवर्धन की वहिन का क्या नाम था । 

3. दिवाकर का जन्म किस जाति में हुआ था । 

4. महाकविपद्यगुप्त किस शताब्दी में उत्पन्न हुए। 

5. नागानन्द नाटक के रचयिता कौन है। 

6. संस्कृत साहित्य के प्रथम नाटिका का क्या नाम है। 

7. प्रियदर्शिका के पिता का क्या नाम था । 

8. रत्नावली के नायक कौन है। 

9. नागानन्द मे कुल कितने अंक हैं। 

10. नागानन्द का नायक कौन है। 

11. जीमूतवाहन मलयवती को पहली बार कहाँ देखता है। 

12. उदयन ने चन्द्रमा की बराबरी किसके साथ की है। 

13. - हर्ष की प्रशंसा श्रीहर्षकहकर किसने किया है।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top