संस्कृत साहित्य में गुण सम्बन्धी अवधारणा |पण्डितराज जगन्नाथ की गुण सम्बन्धी अवधारणा | Concepts of Attributes in Sanskrit Literature

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संस्कृत साहित्य में गुण सम्बन्धी अवधारणा  (पण्डितराज जगन्नाथ की गुण सम्बन्धी अवधारणा)

 

Concepts of Attributes in Sanskrit Literature

संस्कृत साहित्य में गुण सम्बन्धी अवधारणा

  • सर्वप्रथम अग्नुिपराण ने गुण की स्पष्ट व्याख्या करते हुए लिखा है कि जो काव्य में महती शोभा को अनुगृहीत करता हैउसे गुण कहते हैं” (यः काव्ये महतीं छायामनुगृह्णात्यसौ गुणः) । अग्निपुराणकार के पश्चात वामन ने गुण की जो परिभाषा की है (काव्यशोभायाः कर्त्तारो धर्मा गुणाः)वह अग्नुिपुराण के गुण-लक्षण से बहुत कुछ साम्य रखता है। इस प्रकार काव्य में शब्दअर्थ अथवा दोनों को उत्कृष्ट बनाने वाले धर्म को गुण कहा गया है।

 

  • भरतमुनि ने सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र में दस गुणों का उल्लेख किया है-श्लेषप्रसादसमतासमाधिमाधुर्यओजसुकुमारताअर्थव्यक्तिउदारता और कान्ति। किन्तु भामह ने केवल तीन गुणों का विवेचन किया है- माधुर्यओजऔर प्रसाद तत्पश्चात् दण्डी ने गुणों का अधिक विस्तार से विवेचन किया है। उन्होंने भरत के अनुसार दस गुणों को स्वीकार किया है और श्लेषादि दस गुणों को वैदर्भमार्ग की प्राण बताया है (इति वैदर्भमार्गस्य प्राणः दश गुणाः स्मृताः) वामन ने गुणों का विशद विवेचन किया है और गुणों की संख्या 20 बताई है-दस शब्दगुण और दस अर्थगुण । इनके पूर्व अग्निपुराणकार ने गुणों के सामान्य और वैशेषिक दो भेद करके सामान्य गुणों को शब्दगुणअर्थगुण और उभयगुण-तीन वर्गों में विभाजित कर उन्नीस गुणों का निरूपण किया है। भोज ने गुणों के बाह्यआभयन्तर और वैशेषिक तीन भेद किये है और 24 शब्दगुण और 24 अर्थगुणों का उल्लेख किया है।

 

  • इसके बाद काव्यप्रकाशकार मम्मट ने पूर्व प्रचलित सभी मतों की समीक्षा की और पर्याप्त विचार-विमर्श कर दुतिदीप्ति और विकास इन तीन चित्तवृत्तियों के आधार पर भामहोक्त माधुर्यओज और प्रसाद इन तीन गुणों को पुनः प्रतिष्ठित किया । उन्होंने चित्त की द्रुति के कारण आह्लादकत्व के माधुर्य गुण माना है और शृशरकरूणविप्रलम्भ और शान्त रस में उत्तरोत्तर चमत्कारजनक कहा है। चित्त के विस्तार रूप दीप्तत्व को 'ओजगुण कहा जाता है जो वीरवीभत्स और रौद्र रसों में उत्तरोत्तर उद्दीपक होता है तथा जो सूखे इन्धन में अग्नि के समान एवं स्वच्छ वस्त्र में जल में समान चित्त को रस से व्याप्त कर देता हैउसे 'प्रसादगुण कहते हैं और सभी रसों में तथा समस्त रचनाओं में रहता । उपर्युक्त कथन का तात्पर्य यह है कि माधुर्यगुणयुक्त रसास्वादन से चित्त द्रवित हो जाता है। ओजगुणयुक्त रस के आस्वादन से चित्त उद्दीप्त हो जाता है और प्रसादगुणयुक्त रस के आस्वादन से चित्त विकसित हो जाता है। मम्मट के अनुसार गुण मुख्य रूप से रस के धर्म होते हैं किन्तु गौणीवृत्ति से अर्थात् उपचारतः शब्द और अर्थ के भी धर्म कहे गये हैं।

 

  • वामन ने दस शब्दगुणों और दस अर्थगुणों का जो वर्णन किया है। मम्मट ने उनमें से अधिकांश गुणों को अपने माधुर्यओज और प्रसाद गुणों में अन्तर्भाव कर लिया है कुछ को दोषभाव मात्र कहा है और दस नहीं । कुछ को दोष रूपमें स्वीकार किया है। इस प्रकार मम्मट के अनुसार तीन ही गुण हैं, दस नही । 

 

पण्डितराज जगन्नाथ की गुण सम्बन्धी अवधारणा

  • पण्डितराज जगन्नाथ ने अपने पूर्ववर्ती भरतवामन आदि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित दस शब्दगुणों और अर्थगुणों का विवेचन अपने ग्रन्थ में किया है और उनकी समीक्षा की हैकिन्तु मम्मट के अनुसार तीन गुणों को ही स्वीकार किया है - माधुर्यओज और प्रसाद। यह वर्गीकरण उन्हें चित्त की तीन अवस्थाओं द्रुतिदीप्ति और विकास के आधार पर किया है।

 

  • पण्डितराज का कहना है कि माधुर्यओजप्रसाद गुणों के द्वारा क्रमशः द्रुतिदीप्ति और विकास नामक चित्तवृत्तियाँ उत्तथापित की जाती हैं अर्थात् उन-उन गुणों से युक्त रसों के आस्वादन (चर्वण) से ये चित्तवृत्तियाँ उद्भूत होती हैं। इस प्रकार इन गुणों की केवल रसधर्मता सिद्ध होने पर यह रचना मधुर है यह बन्ध ओजस्वी है इत्यादि व्यवहार (कथन) औपचारिक हैंकल्पित हैं। जैसे जब हम कहते हैं कि आकार से यह व्यक्ति शूर वीर है यह कथन औपचारिक हैं कल्पित है। यह मम्मटभट्ट आदि प्राचीन आचार्यों का मत है। किन्तु पण्डितराज जगन्नाथ इस कथन से सहमत नहीं है। उनका कहना है कि मम्मट ने जो माधुर्यादि गुणों को रस का धर्म बताया हैइसमें क्या प्रमाण है यदि कहें कि प्रत्यक्ष प्रमाण है तो यह ठीक नहीं है। जैसे अग्नि का कार्य दग्ध करना है और उष्ण-स्पर्श उसका गुण है किन्तु दोनों का अनुभव भिन्न-भिन्न है। इसी प्रकार रसों के कार्य जो द्रुति आदि चित्तवृत्तियाँ है उनसे भिन्न रसगत गुणों का अनुभव हमें नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि उन माधुर्यादि गुणों से विशिष्ट रस ही द्रुत्यादि चित्तवृत्तियों के कारण होने से कारणतावच्छेदक के रूप में हम अनुमान कर लेंगेयह भी ठीक नहीं हैक्योंकि यदि रस को गुणों के बिना ही उन वृत्तियों का कारण मान लेगे तो गुणों की कल्पना में गौरव होगा। 
  • यदि कहें कि श्रृंगारकरुण और शान्त रसों में प्रत्येक को द्रुति का कारण मानने की अपेक्षा माधुर्यगुणोंयुक्त को द्रुति का कारण मान लेने में लाघव है। इस पर कहते हैं कि मम्मटभट्ट आदि आचार्यों के अनुसार मधुर रस से द्रुत अत्यन्त मधुरता से द्रुतितर इत्यादि कार्यों के तारतम्य के कारण माधुर्यगुणायुक्त होने से रस को दुति का कारण मानना अजागलस्तन के समान गुणीभूत हैव्यर्थ है। अतः प्रत्येक रस को अलग-अलग कारण मानने में लाघव हैऔर यदि यह कहा जाय कि आत्मा निर्गुण शुद्ध चैतन्य रूप है और रस आत्मरूप है। अतः रस के निर्गुण होने से माधुर्यादि को रस का गुण मानना ठीक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि माधुर्यादि को रस के उपाधिरूप इत्यादि का गुण मान लेंगेकिन्तु यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है। दूसरे इत्यादि स्वयं गुण रूप हैं अतः उनमें अन्य गुणों का मानना ( गुण में गुणान्तर का मानना) सर्वथा अनुचित है। 


  • पण्डितराज जगन्नाथ का कथन है कि श्रृंगार रस मधुर होता है जो यह व्यवहार सर्वत्र प्रचलित हैवह कैसे होगाइस पर कहते हैं कि रसादि में रहनेवाली द्रुत्यादि चित्तवृत्तियों की प्रयोजकता सम्बन्ध से द्रुत्यादि ही माधुर्यादि है और उसी के रहने से रसों को मधुर कहा जाता है। अब प्रश्न होता है कि द्रुत्यादि चित्तवृत्तियाँ रसों में रहती ही नहींतो रसों को माधुर्ययुक्त कैसे कहा जा सकता है। इस पर कहते है कि जिस प्रकार अश्वगन्धा औषधि के खाने से उष्णता उत्पन्न होती हैअतः अश्वगन्धा उष्ण हैइस प्रकार का व्यवहार होता हैउसी प्रकार श्रृंगारादि रस के माधुर्यादि के प्रयोजक होने से उन्हें श्रृंगार मधुर है कहा जाता है। यह प्रयोजकता अदृष्टादि से विलक्षण शब्दअर्थरस और रचना में भी रहती है। अतः यह कि अदृष्टादि में जो प्रयोजकता है उससे भिन्न प्रयोजकता शब्दअर्थरस और रचना में होती हैअतः शब्द और अर्थ के माधुर्य को कल्पित नहीं कहना चाहिए।

 

  • पण्डितराज जगन्नाथ ने प्राचीन आचार्यों के मतानुसार दस शब्दगुणों और दस अर्थगुणों का विवेचन किया है। उनके अनुसार श्लेषप्रसादसमतामाधुर्यसुकुमारताअर्थव्यक्तिउदारताओजकान्ति और समाधि ये दस शब्दगुण है और ये ही दस अर्थगुण हैं दोनों प्रकार के गुणों के नाम वे ही हैं किन्तु लक्षण भिन्न-भिन्न हैं।

 

श्लेषः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता । 

अर्थव्यक्तिरुदारत्वमोजः कान्तिसमाधयः ॥ 


दस शब्दगुणों के लक्षण

 

1. शब्दानां भिन्नानामप्येकत्वप्रतिभानप्रयोजकः संहितयैकजातीयवर्णाविन्यासविशेषों   गाढत्वापरपर्यायः श्लेषः 

2. गाढत्वशैथिलाभयां मिश्रणं बन्धस्य प्रसादः 

3. उपक्रमादासमाप्ते रीत्यभेदः समता 

4. संयोगपरहसतिरिक्तवर्णघटितत्वे सति पृथक्पदत्वं माधुर्यम् । 

5. अपरुषवर्णघटितत्वं सुकुमारता । 

6. झटिति प्रतीयमानार्थान्वयकत्वमर्थव्यक्तिः । 

7. कठिनवर्णघटनारूपविकटत्वलक्षणोदारता । 

8. संयोगपरहृस्वप्राचुर्यरूपं गाढवमोजः । 

9. लोकोत्तरशोभारूपमौज्वल्पयं कान्ति । 

10. बन्धगाढत्वशिथिलत्वयों: क्रमोणावस्थापन समाधिः । 


दस अर्थगुणों के लक्षण

 

1. क्रियापरम्परया विदग्धचेष्टितस्य तदस्मुटवस्य तदुपपादकयुक्तेश्च सामानाधिकण्यरूपः संसर्गः श्लेषः । 

2. यावदर्थकपदत्वरूपमथवैमल्यं प्रसादः 

3. प्रक्रमाभशैनार्थघटनात्मकमवैषम्यं समता । 

4. एकस्या एवोक्तेर्भड्. ग्यन्तरेण पुनः कथनात्मकमुक्तिवैचित्र्यं माधुर्यम् । 

5. अकाण्डे शोकदायित्वाभावरूपमपारुष्यं सुकुमारता । 

6. वस्तुतों वर्णनीयस्यासाधारणक्रिारूप्योर्वर्णनमर्थव्यक्तिः । 

7. गाम्यर्थपरिहार उदारता 

8. एकस्य पदार्थस्य बहुभिः पदैरभिधानं बहूनां चैकेनतथैकस्य वाक्यार्थस्य बहुभिर्वाक्यैर्बहुवार्ज्याभिस्यैकवाक्येनाभिधानं विशेषणानां साभिप्रायत्वं चेति पऋचविधमोजः। 

9. दीप्तरसतवं कान्तिः । 

10. अवर्णितपूर्वोऽयमर्थः पूर्ववर्णितप्रायों वेति कवेरालोचनं समाधिः ।

 

उपर्युक्त गुणों का तीन गुणों में अन्तर्भाव

 

  • अन्य आचार्य (मम्मट आदि) उपर्युक्त गुणों में से कुछ गुण (माधुर्यओजप्रसाद) में कुछ आगे कहे जाने वाले दोषों के अभाव से और कुछ अलंकारों से गतार्थ करते हैंकुछ कुछ दोष रूप है । अतः वे बीस गुण न मानकर केवल तीन गुण ही से तो विचित्रतामात्र हैं और मानते हैं।

 

  • उन विद्वानों का कहना है कि शब्दगुणों में श्लेषउदारताप्रसाद और समाधि इन गुणों का ओजोव्यंजक रचना में अन्तर्भाव हो जाता हैं यदि यह कहें कि श्लेष और उदारता का सब अंशों में गाढ़ रचना रूप होने से ओजोव्यंजक रचना में अन्तर्भाव हो सकता हैकिन्तु प्रसाद और समाधि के गाढत्व और शिथिलत्व दोनों के मिश्रण रूप होने से एक अंश (गाढत्व) को ओज का व्यंजक होने पर दूसरे अंश (शिथिलत्व) का अन्तर्भाव कहाँ होगाइस पर कहते हैं कि माधुर्य अथवा प्रसाद गुण का अभिव्यंजक रचनाओं में अन्तर्भाव हो जायगा। समता का सर्वत्र होना अनुचित ही हैंग्राम्यत्व और कष्टत्व रूप दोष के परित्याग से कान्ति और सुकुमारता गतार्थ है। प्रसादगुण से अर्थव्यक्ति का ग्रहण हो जाता है।

 

  • इसी प्रकार अर्थगुणों में भी श्लेष और ओजगुणों के प्रथम चार भेद वैचित्र्यमात्र हैंगुणों में उनका के परिगणन उचित नहीं है। अनधिक पदत्व रूप प्रसादउक्ति-वैचित्र्य रूप माधुर्य अपारुष्य रूप सौकुमार्य और अग्राम्यत्व रूप उदारताअवशैषम्य रूप समता और साभिप्रायपदत्व रूप ओजगुण का पंचम भेद क्रमशः अधिकपदतअनवीकृतत्वअमलरूप अश्लीलताग्राम्यताभग्नप्रक्रमता तथा अपुष्टार्थत्व रूप दोषों के निराकरण मात्र हैंगुण नहीं । स्वभावोक्ति अलंकार के स्वीकरण से वस्तु के स्वभाव का स्पष्ट कथन रूप अर्थव्यक्ति तथा रसध्वनि एवं रसवद् अलंकार के स्वीकार के द्वारा दीप्तरसत्व रूप कान्ति को स्वीकार कर लिया गया है। समाधि तो कवि के अन्तःकरण में रहने वाले काव्य का कारण हैगुण नहीं । अतः गुण तीन ही हैंयह मम्मटभट्ट आदि का कथन है।

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