प्रयोगवाद हिन्दी काव्य । प्रयोगवाद का उद्भव एवं विकास । Prayogvaad Hindi Kavya

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 प्रयोगवाद हिन्दी काव्य 

प्रयोगवाद हिन्दी काव्य । प्रयोगवाद का उद्भव एवं विकास । Prayogvaad Hindi Kavya



प्रयोगवाद का उद्भव एवं विकास 

 

  • छायावादी एवं प्रगतिवादी कुछ कवियों का विद्रोह अपनी मूल प्रवत्ति में दब नहीं सका वह अनुकूल परिवेश एवं वातावरण में उभरता रहा और प्रयोगवाद के रूप में विकसित हुआ। वैसे प्रयोग प्रत्येक काल, युग या समय में होता रहता है किन्तु इस कालावधि में प्रवत्ति विशेष के रूप में विकसित हुआ। अपने क्रमिक विकास में प्रगतिवाद ने प्रयोगवाद को विकसित किया। 
  • हिंदी में काव्य की नवीनतम प्रवत्तियों का समारंभ तार सप्तक' के प्रकाशन सन् 1943 ई. से माना जा सकता है। पुरानेपन के प्रति सबके मन में असंतोष की भावना थी जिससे नवीनता की खोज में नए-नए प्रयोगों में जुट गए। 

तारसप्तक के कवि 

  • ऐसे ही वैचारिक संक्रांति बिंदु पर 'अज्ञेय' ने अपने मित्रों - डॉ. राम विलास शर्मा, गिरिजा कुमार माथुर, नेमिचंद जैन, प्रभाकर माचवे, गजानन माधव मुक्तिबोध तथा भारत भूषण अग्रवाल के सहयोग से 'तारसप्तक' का प्रकाशन किया। जिसके संबंध में पंत ने लिखा कि अज्ञेय ने 'तारसप्तक' का संपादन करके हिंदी पाठकों के लिए प्रयोगशील कविता का सर्वप्रथम संग्रह प्रस्तुत किया
  • 'तार सप्तक' के सात कवियों के एकत्र होने का एक विशिष्ट कारण एवं प्रयोजन था। वे एक स्कूल के नहीं थे, किसी मंजिल पर पहुंच हुए नहीं थे, राही थे, राही नहीं राहों के अन्वेषी थे। काव्य के प्रति इनका एक अन्वेषी दष्टिकोण था और दष्टिकोण की समानता ने ही इन्हें एकत्रित किया था।

 

  • 'तारसप्तक' के समान अज्ञेय द्वारा संपादित सन् 1946 ई. की पत्रिका प्रतीक को भी प्रयोगवादी कविता का मुख्यपत्र कहा जा सकता है क्योंकि द्वितीय महायुद्ध के आस-पास ही साहित्यिक चेतना 'प्रतीक' के माध्यम से ही सर्वप्रथम मुखरित हुई थी। प्रयोगवाद नाम से भ्रम उत्पन्न होता है कि इन कवियों ने प्रयोग को साध्य मानकर एक नया वाद चलाया। अज्ञेय के दृष्टिकोण से प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है वरन् वह साधन है। दोहरा साधन

 

  • (i) सत्य को जानने का साधन जिसे कवि प्रेषित करता है। 
  • (ii) उस प्रेषण- क्रिया को और उसके साधनों को जानने का साधन है।

 

'तारसप्तक' के कवियों में एकरूपता नहीं है। इनके तीन वर्ग दष्टिगोचर होते हैं 

  • (i) कुछ ऐसे हैं जो विचारों से समाजवादी हैं और संस्कारों से व्यक्तिवादी- जैसे शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता और नेमिचन्द्र जैन। 
  • (ii) कुछ ऐसे हैं जो विचारों और क्रियाओं दोनों से समाजवादी हैं जैसे राम विलास शर्मा तथा गजानन माधव मुक्तिबोध । 
  • (iii) कुछ ऐसे हैं जो प्रगतिशील कविता द्वारा व्यक्त होते हुए जीवन मूल्यों और सामाजिक प्रश्नों को असत्य या सत्याभास मानकर अपने व्यक्तिगत जीवन में तड़पने वाली गहरी संवेदनाओं को ही रूपायित करना चाहते हैं।


  • छायावादी काव्य की भाव-वस्तु और उसके शिल्प विधान के प्रति विद्रोह, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद दोनों का जन्म एक ही परिवेश में हुआ। प्रगतिवाद के मार्ग को अवरुद्ध करने वाली प्रतिक्रियावादी विचारधारा प्रयोगवाद है।

 

  • सन् 1951 ई. में दूसरे 'तारसप्तक' के कवि भवानी प्रसाद मिश्र, शकुंतला माथुर, हरि नारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंहनरेश कुमार मेहता, रघुवीर सहाय तथा धर्मवीर भारती हैं।

 

  • 'पाटल' तथा 'दष्टिकोण' नामक पत्रिकाओं में भी पर्याप्त प्रयोगवादी कविताओं को स्थान मिला। तारसप्तक की परंपरा में इधर सन् 1954 ई. से नई कविता' नाम से प्रयोगवादी कविताओं का एक अर्द्ध वार्षिक संग्रह निकलने लगा जिसके संपादक डॉ. जगदीश गुप्त थे। 


  • 1936-37 ई. में छायावाद का पतन हुआ और प्रगतिवाद नवीन युग चेतना के साथ अग्रसर हुआ। बेकारी और भुखमरी का युग था जनता में भयंकर असंतोष व्याप्त हो रहा था जिसके परिणामस्वरूप पूंजीवादी शोषकों और उसके द्वारा शोषित मजदूर वर्ग में संघर्ष प्रारंभ हो गया था। 
  • छायावाद पतनोन्मुख सामंतवाद और विकासोन्मुख पूंजीवाद की ही अभिव्यंजना कर रहा था। प्रगतिवाद ने शोषित वर्ग का समर्थन किया और प्रगतिवादी साहित्यिकों की वाणी में सामान्य, दुखी, दलित जनता का क्षोभ मुखरित हो उठा। पंत, निराला आदि छायावाद के उन्नायक प्रगतिवाद से प्रभावित होकर छायावाद की रंगीन स्वप्नों की दुनिया छोड़ कर जन-जीवन की ठोस कर्ममय भूमि पर उतर आए। 
  • प्रगतिवाद में जनता का स्वर, जनता की भावनाएं, जनता का क्षोभ और विद्रोह मुखरित हो रहा था। इस बीच शाश्वतवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यंजनावाद तथा स्वच्छंदतावाद आदि पानी के बुलबुलों रूपी वादों की पानी के ऊपर बाढ़ सी गई। ये सतही उथली चीजें जनता को अपनी ओर आकर्षित न कर सकीं। क्योंकि जनता साहित्य में अपनी समस्याओं का समाधान चाहती थी। ऐसे में प्रयोगवाद का श्रीगणेश हुआ। 
  • पूंजीवाद पतनोमुख था। रूस का सर्वहारा वर्ग क्रांति कर अग्रसर हो रहा था। इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में भी साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव बढ़ने लगा था। इस युग के कवियों की सारी शक्ति तकनीक के नए प्रयोगों की तरफ लग गई। 
  • पश्चिमी प्रयोग ने साहित्य को जनता का खिलौना बनाना चाहा जिसमें इसके जन्मदाता टी. एस. इलियट तथा आई.ए. रिचर्ड्स का नाम विशेष उल्लेखनीय है। कविता में सरलता, सहजता का स्थान दुरुहटा ने ले लिया। 
  • हिंदी का प्रयोगवाद पश्चिमी की जूठन है। इन लोगों का साहित्य, कला और जनता के प्रति जो दष्टिकोण है वह कुत्सित है, संकीर्ण और पूर्णतः प्रगति विरोधी है क्योंकि ये लोग कला को जीवन के लिए न मानकर केवल कला के लिए मानते हैं। 
  • प्रयोगवादी व्यक्ति की परिधि में केन्द्रित होकर साहित्य को सामाजिक जीवन से दूर रखने के लिए प्रयत्नशील हैं। प्रयोगवादी भी जीवन से पलायन कर रहा है परंतु सचेत रूप में जान बूझकर। शैली के क्षेत्र में छायावाद का अनुगामी है। प्रयोग शैली दुरूहतर होती गई है। 
  • प्रयोगवादियों का मूल उद्देश्य कविता द्वारा अपनी विद्रोहात्मक भावनाओं का प्रचार करना है। सामाजिक उत्तरदायित्व की समस्या प्रयोग वादियों के सम्मुख नहीं है, ऐसी स्थिति में प्रयोगवादी कविता का जन-जीवन से क्या संबंध हो सकता है। पुरानी भाषा प्रयोगवादी नवीनता की अभिव्यक्ति करने में समर्थ नहीं है।

 

  • प्रयोगवादी नवीन दष्टि द्वारा न्यूनता उत्पन्न न कर मात्र शब्दों तथा अलंकारों की विलक्षणता द्वारा भाव उत्पन्न करना चाहते हैं। चौकाने, ध्यान आकृष्ट करने तथा नई शैली का आभास पैदा करने की ओर ज्यादा उन्मुख हैं। इन्हें नवीनता का मोह सता रहा था। इसलिए ये नवीन विषय, नवीन भाषा, सब कुछ नवीन लाना चाहते हैं। निराला की सरस्वती वंदना का यही भाव देखा जा सकता है। 'तारसप्तक' द्वितीय को ही प्रयोगवादी कविताओं का प्रथम संग्रह माना जाना चाहिए। 
  • प्रयोगवाद एक वर्ग विशेष का साहित्य है जिसका तात्कालिक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि समस्याओं से कोई संबंध न होकर केवल काव्य शैली शिल्प में नए-नए परिवर्तन करने के लिए उपमानों, प्रतीकों और नए-नए शब्दों को ढूंढने से ही संबद्ध है। नए-नए प्रयोग करते हैं-

 

"चांदनी उस रूपये सी है जिसमें 

चमक पर खनक गायब है। 

हम कहेंगे जोर से: 

मुंग घर अजायब है। 

जहां पर बेतुकु, अनमोल, जिंदा और मुर्दा भाव रहते हैं।"

 

  • ये लोग जन-भाषा को अपनाने का नारा लेकर आगे आए हैं लेकिन इनका काव्य इतना दुरूह और जटिल है कि उसके सींग-पूंछ का भी पता नहीं लगता है। इन कवियों के शब्द, पद, वाक्य, छंद, वर्णावस्तु, विचार, मानसिक दशाएं, रूचि, क्षेत्र सब भिन्न हैं। प्रयोगवादी 'सर्वथा नवीन' की ही टोह में रहते हैं। डॉ. प्रेम नारायण शुक्ल ने प्रयोगवादियों की प्रवृत्ति को थोथा एवं निस्सार माना है।

 

  • प्रयोगवादी कविता के विषय में पंत का है "प्रयोग की निर्झरिनी कल-कल, छल-छल करती हुई फ्रायडवाद से होकर, उपचेतन की रुद्ध-क्रुद्ध ग्रंथियों को मुक्त करती हुई, दमित कुंठित आकांक्षाओं को वाणी देती हुई लोक चेतना के स्रोत में नदी के द्वीप की तरह प्रकट होकर अपने पथक अस्तित्व पर अड़ गई। अपनी रागात्मक विकृतियों के कारण अपने निम्न स्तर पर इसकी सौंदर्य भावना, केंचुओं, घोघों, मेढ़कों के उपमानों के रूप में सरीसपों के जगत से अनुप्राणित होने लगी।"

 

  • अरविंद वादी पंत प्रगतिवाद के विरोधी हैं। प्रगतिवाद भी प्रयोगवाद का विरोध कर रहा है। वही पंत प्रयोगवाद में विकृतियों को मानने वाले उसी में रागात्मकता की खोजकर उसकी प्रशंसा करने लगे थे। 
  • डॉ. देवराज ने नए मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए नवीन प्रयोगों को स्वीकारा है।

 

  • नंद दुलारे वाजपेयी ने लिखा है, "किसी भी अवस्था में यह प्रयोगों का बाहुल्य वास्तविक साहित्य- सजन का स्थान नहीं ले सकता।" क्योंकि काव्य का क्षेत्र प्रयोगों की दुनिया से बहुत दूर है। 
  • प्रयोगवादी कविताएं चौहद्दी में नहीं आती, वैचित्र्य प्रिय हैं तथा अनुभूति के प्रति ईमानदार नहीं है। प्रयोगवादी साहित्य मात्र चमत्कार के चक्कर में पड़कर काव्य के अभिन्न अंगों को भूल गया है। वह व्यक्तिवादी तथा अंतर्मुखी हो गया है। परिचित का परित्याग कर अपरिचित की तलाश में लगा रहता है। 


कुछ लोग प्रयोगवाद को परराष्ट्रीय प्रतीकवाद का दूसरा रूप मानते हैं तो कुछ प्रभावित स्वीकारते हैं। उपमा का नवीन मोह अवलोकनीय है-

 

"मेरे सपने इस तरह टूट गए 

जैसे भुंजा हुआ पापड़ "

 

कहीं-कहीं मात्र क्रियाहीन शब्दों के प्रयोग से ही क्रिया को ध्वनित करने का प्रयत्न किया जाता है-

 

"मेंढक पानी झप्प"

 

यह चीनी कविता की नकल है।

 

  • प्रायः सभी कवि मध्य वर्ग के हैं। प्रयोगवादी कविता हासोन्मुखी मध्यवर्गीय समाज के जीवन का चित्र है। प्रयोगवादी कवि ने जिस नए सत्य के शोध और प्रेषण के माध्यम की नई खोज की घोषणा की थी, वह सत्य इसी मध्यवर्गीय समाज के व्यक्ति का सत्य था। वास्तविकता यह है कि हमने लिए हुए अंश को कितना जिया है कितना भोगा और कितनी ईमानदारी और सच्चाई के साथ व्यक्त किया है। वह अपने जिए हुए जीवन के ही विभिन्न दर्दों को अंकित करना पसंद करता है।

 

  • प्रयोगवादी कवि यथार्थवादी नहीं हैं। वे भावुकता के स्थान पर ठोस बौद्धिकता को स्वीकारते हैं। इनमें दमित कामवासना की अभिव्यक्ति अधिक परिलक्षित होती है। काम संवेदना में तीव्रता है जिससे यौन वासना का उभार कुंठित हो गया है। यह कुंठा ही दर्द, टीस या पीड़ा बन गई है। उन्होंने कल्पना का रंगीन आवरण हटाकर दमित यौन-वासनाओं के नग्म रूप को स्पष्ट कर दिया है। फ्रायड का नाम सिद्धांत इनका प्रधान जीवन दर्शन बन गया है। इन कवियों ने कहीं स्पष्ट रूप से कहीं बारीक प्रतीकों तथा बिंबों के माध्यम से दमित काम वासनाओं और उलझी हुई संवेदनाओं को रूपायित किया है।

 

  • अज्ञेय, शमशेर, गिरिजा कुमार माथुर तथा धर्म वीर भारती इस संदर्भ में विशिष्ट कवि हैं। प्रयोगवादी कवियों ने व्यक्ति के अंतः संघर्षो, क्षणिक अनुभूतियों तथा सूक्ष्म में सूक्ष्म, लघु से लघु संवेदनाओं और मन की विभिन्न स्थितियों को लेकर छोटी-छोटी तीव्र प्रभावशाली कविताएं लिखी हैं।

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