उत्तर छायावादी काव्य की धारा । उत्तर छायावाद धाराएं । Uttar Chaya Vaad Kavya Ki Dharayen

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उत्तर छायावादी काव्य की धारा (Uttar Chaya Vaad Kavya Ki Dharayen)

उत्तर छायावादी काव्य की धारा । उत्तर छायावाद धाराएं । Uttar Chaya Vaad Kavya Ki Dharayen


 

उत्तर छायावादी कवि और उनका काव्य

  • उत्तर छायावादी काव्य की अनेक प्रवत्तियों हैं क्योंकि इसे अनेक वादों एवं धाराओं को पार करना पड़ा है जिसके परिणामस्वरूप अनेक जीवन दष्टियां तथा काव्य की वस्तु और शिल्प संबंधी मान्यताएं दष्टिगोचर हुई। वैयक्तिक अनुभूति की प्रधानता हुई। रोमानी दष्टिकोण आया। बुद्धिवादी यथार्थ दष्टि का प्राधान्य हुआ। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर छायावादी काव्य धारा में उत्तर छायावाद, वैयक्तिक गीति काव्य, राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, नवगीति तथा समकालीन कविता आदि अनेक काव्य धाराओं का आविर्भाव हुआ जिसमें राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य एवं उत्तर छायावाद धाराएं नवीन नहीं हैं। 


छायावादी काव्यधारा छायावाद में अपना चरम विकास करने के पश्चात् परंपरा का निर्वाह करती हुई परवर्ती काल तक आई। 


इन कृतियों का वर्गीकरण निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है-

 

राष्ट्रीय सांस्कृतिक

  • नहुष', 'अजित', 'जयभारत', 'कुणालगीत', 'हिमतरंगिनी', 'हिमकिरीटिनी', 'माता', 'समर्पण', 'युगचरण, 'अपलक', 'क्वासि', 'हम विषपायी जनम के', 'विनाबा स्तवन', 'नकुल', 'नोआखाली', 'जयहिंद', 'आत्मोत्सर्ग', 'उन्मुक्त', 'गोपिका', 'हुंकार', 'द्वंद्व गीता', 'इतिहास के आंसू' 'कुरुक्षेत्र' 'दिल्ली', रश्मिरथी', 'धूप और धुंआ', 'कुणाल', 'वासव-दत्ता', 'भैरवी, चित्रा', 'युगाधार', 'सूत की माला', 'हल्दी घाटी, 'जौहर', 'विक्रमादित्य 'मानसी विसर्जन, अमत और विष यथार्थ और कल्पना. 'युगदीप', 'विजय पथ', 'एकला चलो रे', 'तप्त गह', 'काल दहन', 'कैकेयी', 'दानवीर कर्ण' आदि। इनमें गोपिका', 'क्वासि', 'अपलक एवं चित्रा आदि में राष्ट्रीय स्वर गौण है तथा प्रेम का स्वर प्रधान है।

 

उत्तर छायावाद- 

  • तुलसीदास', 'अर्चना', 'अणिमा', 'आराधना', 'स्वर्णकिरण', स्वर्णधूलि', 'मधु ज्वाल' युग पथ', 'उत्तरा', 'रजत शिखर', 'शिल्पी', 'अतिमा', 'कला और बूढ़ा चांद', 'लोकायतन', 'दीपशिखा रूप अरूप', 'शिप्रा', 'अवन्तिका', 'गेघगीत आदि। अणिमा में कुछ कविताएं राष्ट्रीय और सांस्कृतिक व्यक्तियों पर आधारित हैं। पंत की इस काल की सभी उत्तर छायावादी कृतियों में सांस्कृतिक स्वर सुनाई पड़ता है। भौतिकवाद एवं अध्यात्मकवाद के समन्वय की एक बेचैनी इनमें बराबर लक्षित होती है। इस तरह इन कृतियों का मूल स्वर छायावाद है किन्तु विषय की दृष्टि से इन्हें अन्याय धाराओं से भी जोड़ा जा सकता है।


वैयक्तिक गीति काव्य- 

  • निशा- निमंत्रण', 'आकुल अंतर', 'सतरंगिनी', 'मिलन', 'यामिनी रसवंती' 'प्रभात फेरी प्रवासी के गीत', 'पलाशवन', 'मिट्टी और फूल', 'कदली वन', 'मधुलिका अपराजिता', 'लाल चूनर' 'किरण बेला', 'संचयिता', कलापी', 'जीवन और यौवन', 'पांचजन्य', 'रूपरश्मि', 'छायालोक', 'उदयाचल', 'मन्वंतर', 'दिवालोक', 'पंछी', 'पंचमी, रागिनी', 'नवीन', "नींद के बादल', 'मंजीर तथा छवि के बंधन आदि। वैयक्तिक गीति काव्य की रोमानी धारा में आने वाली कृतियां छायावाद से अलग हैं। ये कृतियां नई प्रवृत्ति की सूचक हैं।

 

प्रगतिवादी धारा- '

  • युगवाणी', 'ग्राम्या', 'कुकुरमुत्ता', 'युग की गंगा', 'युगधारा', 'जीवन के गान', 'प्रलय सजन', 'अजेय खंडहर', 'पिघलते पत्थर, 'मेघावी', 'मुक्ति मार्ग', 'जागते रहो आदि कतियों के अतिरिक्त नरेंद्र शर्मा', 'अंचल', 'आरसी प्रसाद सिंह तथ शंभूनाथ सिंह की उपर्युक्त कृतियों की अनेक कविताएं इसी धारा के अंतर्गत आती हैं। प्रगतिवादी और वैयक्तिक धारा की कविताओं का श्रीगणेश सन 1935 ई. के आस पास हो गया था।

 

प्रयोगवादी धारा- 

  • तार सप्तक (प्रथम), 'इत्यलम्, 'हरी घास पर क्षण भर', 'नाश और निर्माण', 'ठंडा लोहा, तार सप्तह (द्वितीय) प्रगतिवादी और वैयक्तिक कविता धारा की कृतियों के साथ-साथ कुछ ऐसी भी सामने आई जिन्हें प्रयोगवादी कहा गया। प्रयोगवादी कविताओं का श्री गणेश सन् 1943 ई. के आस-पास हुआ। फिर भी दोनों धाराएं साथ साथ चलती रहीं।

 

नई कविता- 

  • 'तारसप्तक' (द्वितीय) कुछ कविताएं तार सप्तक (ततीय)' 'बावरा अहेरी', 'अरी ओ करुणा प्रभामय', 'इंद्रधनुष रौंदे हुए', 'कितनी नावों में कितनी बार', 'आंगन के पार द्वार', 'शिलापंख चमकीले', 'धूप के धान' 'अनागता की आंखे', 'अर्द्ध शती', 'माध्यम मैं', 'कुछ और कविताएं 'कुछ कविताएं', 'खंडित सेतु', 'गीत फ्रोश', 'बुनी हुई रस्सी', 'चकित है दुख', 'स्वप्न भंग', 'अनुक्षण कोपल', 'चांद का मुंह टेढ़ा', 'ओ अप्रस्तुत मन', 'वन पाखी सुनो, संशय की एक रात', 'सात गीत वर्ष', 'अंधा युग', 'कनुप्रिया', 'मग और तष्णा, मछलीकर, काठ की घंटियां', बांस के पुल', 'एक सूनी नाव', 'चक्रव्यूह', 'आत्मजयी', 'परिवेश हम तुम', 'सीढ़ियों पर धूप में', 'आत्म हत्या के विरुद्ध', 'वंशी और मादल', 'नाव के पांव', 'हिम विद्य', 'माया दर्पण', इतिहास पुरुष', 'अकेले कंठ की पुकार', 'एक कंठ विषपायी मुक्ति प्रसंग', 'अतुकांत', 'आत्म निर्वासन तथा अन्य कविताएं', 'अभी बिलकुल अभी', 'पक गई धूप', 'उजली कसौटी', 'इतिहास का दर्द आदि तथा वे सभी कृतियां जिनकी चर्चा तार सप्तकों के बाहर के कवियों के संदर्भ में की गई है', 'नई कविता की कृतियां हैं। प्रतीक', 'नई कविता', 'निकष', 'संकेत', 'विविधा', 'आदि में संकलित कविताएं भी नई कविता के अंतर्गत आती हैं। कल्पना', 'कृति', 'लहर तथा ज्ञानोदय आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएं भी नई कविता में आती हैं।

 

  • प्रयोगवाद ही आगे चलकर नई कविता में परिवर्तित हो गया है। इसलिए नई कविता में प्रयोगवाद के अनेक तत्वों का समावेश मिलता है फिर नई कविता का स्वतंत्र विकास हुआ है। बहुत से ऐसे कवि भी हैं जो दोनों धाराओं में कविता करते रहे हैं। इसलिए उनकी कृतियों के संदर्भ में स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि उनका मिश्रित रूप है। यह कहना कठिन है कि कहां तक प्रयोगवादी है कहां से नई कविता के कवि बन जाते हैं। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि सन् 1950 ई. के बाद की नए भावबोध की कविताओं को नई कविता की संज्ञा दी जा सकती है और प्रयोगवादियों की भी सन् 1950 ई. के बाद की कविताओं को नई कविता कह सकते हैं। फिर भी सन् 1952 ई. में प्रकाशित तारसप्तक (द्वितीय) की अधिकांश कविताएं अपने व्यक्तिवादी दष्टिकोण के कारण प्रयोगवाद में ही समाविष्ट की जाती हैं। इसलिए नई कविता को प्रयोगवाद के क्रम में ही मानना औचित्यपूर्ण है। यदि सन् 1950 ई. को विभाजक रेखा मान लिया जाये तो द्वितीय तार सप्तक की कुछ कविताएं नई कविता के अंतर्गत आ जाती हैं।

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