भारतेन्दु युग के रचनाकार उनकी रचना और साहित्यिक विशेषताएं । भारतेन्दु युगीन रचनाकार- भाग 01। Bhartendu Yug Pramukh rachnkar 01

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भारतेन्दु युग के रचनाकार उनकी रचना और साहित्यिक विशेषताएं

भारतेन्दु युग के रचनाकार उनकी रचना और साहित्यिक विशेषताएं । भारतेन्दु युगीन रचनाकार- भाग 01। Bhartendu Yug Pramukh rachnkar 01



भारतेन्दु युगीन प्रतिनिधि रचनाकार

 

➽ भारतेन्दु युग के मूर्धन्य रचनाकार भारतेंदु हरिश्चन्द्र हैं उन्होंने अपने सहयोगियों का एक संगठन बनाया था जो 'भारतेंदु मंडल' के नाम से जाना जाता है जिसमें अनेक प्रमुख रचनाकार थे। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य गौण रचनाकारों का योगदान भारतेन्दु युग को प्राप्त था।

 

भारतेंदु हरिश्चन्द्र -

 

➽ भारतेंदु युग का नाम प्रमुख रचनाकार के नाम पर रखा गया। भारतेंदु ने युग में जन-जागरण ला दिया। इसीलिए इस युग को पुनर्जागरण काल भी कहा गया। भारतेंदु ने साहित्य को नवीन दिशा प्रदान की। 


भारतेंदु हरिश्चन्द्र का व्यक्तित्व 

➽  कविवर भारतेंदु हरिश्चन्द्र का (सन् 1850-18850) इतिहास प्रसिद्ध सेठ अमीचंद की वंश परंपरा में जन्म हुआ था। उनके पिता बाबू गोपाल चंद्र गिरिधरदास भी अपने समय के प्रसिद्ध कवि थे। 

➽ भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने पांच वर्ष की अवस्था अर्थात् बाल्यकाल में काव्य सजन प्रारंभ कर दिया था। पांच वर्ष की आयु में मां का स्वर्गवास हो गया. 10 वर्ष की अवस्था में पिता का। भारतेन्दु का मूल नाम हरिश्चन्द्र है। अल्पायु में ही हरिश्चन्द्र ने कवित्व प्रतिभा एवं सर्वतोमुखी रचना क्षमता का ऐसा परिचय दिया कि तत्कालीन साहित्यकारों तथा पत्रकारों ने सन् 1880 ई. में उन्हें 'भारतेन्दु' की उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया। 

➽ भारतेंदु, कवि, साहित्यकार, पत्रकार सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी थे। 'कवि वचन सुधा' तथा 'हरिश्चन्द्र चंद्रिका भारतेंदु के संपादन में प्रकाशित होने वाली प्रसिद्ध पत्रिकाएं थीं। साहित्य में नाटक, निबंध आदि की रचना द्वारा उन्होंने खड़ी बोली की गद्य शैली के निर्धारण में महत्वपूर्ण योगदान किया। 

➽ उनकी कविताएं विविध विषय-विभूषित हैं जिनमें भक्ति, श्रंगारिकता, देश प्रेम, सामाजिक परिवेश तथा प्रकृति के विभिन्न संदर्भों को लेकर उन्होंने विपुल परिमाण में काव्य रचना की।

 

भारतेंदु हरिश्चन्द्र कृतित्व

 

➽ भारतेंदु ने काव्य, नाटक, स्त्री शिक्षा तथा इतिहास आदि पर लेखनी उठाई। भारतेंदु ग्रंथावली उनके समग्र साहित्य का संकलन है । 

 

भारतेंदु की काव्य रचना 

 

➽ 'प्रेम मालिका', 'सतसई श्रंगार', 'भारत वीणा', 'प्रेम तरंग', 'भक्त सर्वस्व', 'प्रेम सरोवर गीत गोविंद वर्षा विनोद', 'विनय प्रेम-पचासा', 'प्रेम फुलवारी', 'वेणुगीत' 'दशरथ विलाप', 'फूलों का गुच्छा', 'विजयिनी - विजय वैजयंती आदि प्रमुख काव्य रचनाएं हैं।

 

भारतेंदु के नाटक

 

➽ 'नील देवी', 'भारत जननी', 'भारत दुर्दशा, प्रेम योगिनी', 'चन्द्रावली नाटिका', 'वैदिकी', 'हिंसा, हिंसा न भवति', 'सती प्रताप', दुर्लभ बंधु एवं 'अंधेर नगरी' आदि नाट्य कृतियां हैं। अन्य पुस्तक काल चक्र है।

 

स्त्री शिक्षा - बालाबोधिनी । 

संपादन- कवि वचन सुधा', 'हरिश्चन्द्र मैगजीन', 'हरिश्चन्द्र चंद्रिका' 

इतिहास- 'काश्मीर कुसुम', 'बादशाह दर्पण', 'अग्रवालों की उत्पत्ति', 'दिल्ली दरबार दर्पण', 'महाराष्ट्र देश का इतिहास 

अनूदित- बंगला से हिंदी अनुवाद विद्या सुंदर नाटक' 'मुद्राराक्षस', 'पाखंड विडंबन', 'धनंजय विजय निबंध 'सुलोचना', 'मदालसा' लीलावती' परिहास वंचक, कर्पूर मंजरी 'सत्य हरिश्चन्द्र 'कर्पूर मंजरी', 'सत्य हरिश्चन्द्र' ।।

 

भारतेंदु हरिश्चन्द्र की साहित्यिक विशेषताएं:

 

➽ इनकी प्रमुख विशेषता यह है कि अपनी अनेक रचनाओं में जहां वे प्राचीन प्रवत्तियों का अनुगमन करते रहे हैं वहीं नवीन काव्य धारा के प्रवर्तन का श्रेय भी इन्हीं को है। राजभक्त होते हुए भी देश भक्त हैं, दास्य भक्ति के साथ साथ माधुर्य भक्ति का निर्वाह किया है।

➽ एक ओर उन्होंने नायक-नायिकाओं के सौंदर्य का चित्रण किया है तो दूसरी ओर उनके लिए नए कर्तव्य क्षेत्र भी निर्देशित किए हैं। शैली इतिवत्तात्मक होते हुए हास्य-व्यंग्य का तीखा प्रहार करने वाली भी है। अभिव्यंजना क्षेत्र में भी उन्होंने परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली प्रवत्तियों को स्वीकारा है। 

➽ यह उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का प्रमाण है। प्रबल हिंदीवादी होते हुए भी उन्होंने उर्दू शैली को कविता के लिए चुना है। काव्य भाषा हेतु ब्रजभाषा को अपनाया है किन्तु खड़ी बोली में 'दशरथ विलाप तथा फूलों का गुच्छा की रचना की है। काव्य रूपों की विविधता उनकी अनन्य विशेषता है। छंदोबद्धता का निर्वाह करते हुए भी गेय पद शैली को अपनाया है। 

➽ भारतेंदु काव्य क्षेत्र के नवयुग में वे अग्रदूत थे। अपनी ओजस्विता, सरलता, भाव- व्यंजना एवं प्रभ विष्णुता में उनका काव्य इतना सशक्त एवं प्राणवान हो गया है कि तत्कालीन सभी कवियों को अत्यधिक प्रभावित किया है। 

➽ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का भाषा और साहित्य दोनों पर अत्यधिक गहन प्रभाव पड़ा है। उन्होंने जिस प्रकार गद्य भाषा को परिमार्जित करके उसे अति मधुर, चलता एवं स्वच्छ स्वरूप प्रदान किया है उसी प्रकार हिंदी साहित्य को भी नए मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया है। भाषा को संस्कारित किया है। 

➽ भारतेंदु को वर्तमान गद्य का प्रवर्तक माना गया। भाषा का शिष्ट सामान्य निखरा हुआ रूप भारतेंदु की कला ने उपस्थित किया। पुराने पड़े हुए शब्दों का स्थानांतरण करके काव्य भाषा में भी वे चलतापन एवं सफाई लाने में सफल हुए हैं।

 

➽ साहित्य को नवीन मार्ग पर लाकर उसे शिक्षित जनता का सहचर बनाया। भारतेंदु ने पुराने रास्ते पर पड़े हुए साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर जन-जन के साथ जोड़ दिया। जनता एवं साहित्य के बीच बढ़ती हुई खाई को उन्होंने पाट दिया। 

➽ साहित्य को नवीन प्रवत्ति एवं नई दिशा देने का श्रेय भारतेन्दु को है। हरिश्चन्द्र की भाषा को हरिश्चन्द्री हिंदी नाम दिया गया। इसके  आविर्भाव के साथ नए-नए लेखक तैयार होने लगे। 

➽ भारतेन्दु ने दो शैलियों को व्यवहृत किया है भावावेश की शैली तथा तथ्य निरूपण की शैली। भावावेश में उनकी भाषा में वाक्य प्रायः लघुतर होते जाते हैं तथा पदावली सरल आम बोल-चाल की होती है जिसमें बहु प्रचलित आम बोल चाल में प्रयोग में आने वाले अरबी फारसी शब्दों का भी समावेश कभी कभी हो जाता है। 

➽ जहां चित्त के किसी स्थायी क्षोभ की व्यंजना है तथा चिंतन हेतु अवकाश मिलते ही उनकी भाषा में साधुता एवं गंभीरता आने के साथ साथ वाक्यों का आयाम विस्तृत होने लगता है किन्तु अन्वय में जटिलता नहीं आने पाती है। 

➽ तथ्य निरूपण अथवा वस्तु वर्णन के अवसर पर उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, तत्सम शब्दावली प्रधान हो जाती है किन्तु इसे भारतेन्दु की वास्तविक भाषा नहीं कहा जा सकता। उनकी वास्तविक भाषा संस्कृतनिष्ठ नहीं थी। भाषा चाहे जैसी हो उनके वाक्यों के अन्वय में जटिलता को स्थान न मिलकर सरलता विद्यमान थी। वाग्वैदग्ध्य या चमत्कार के स्थान पर उनके भावों में हृदय स्पर्शिता एवं मार्मिकता विद्यमान है।

 

पंडित प्रताप नारायण मिश्र

 

➽ भारतेंदु मंडल में भारतेंदु के पश्चात् प्रतापनारायण मिश्र (सन् 1856- 1894 ई.) का प्रमुख स्थान है। 


प्रतापनारायण मिश्र व्यक्तित्व

 

➽  प्रतापनारायण मिश्र प्रतिभा सम्पन्न निबंधकार थे। इनमें रचना क्षमता की अद्वितीयता विद्यमान थी। किसी भी सामान्य से सामान्य विषय पर निबंध लिख देना इनके बाएं हाथ का काम था। 

➽  लेखन कला में भारतेंदु हरिश्चन्द्र को अपना आदर्श स्वीकारा। फिर भी मिश्र की शैली में भारतेंदु की शैली से अत्यधिक भिन्नता दष्टिगोचर होती है। ये विनोदी स्वभाव के थे। वाग्वैग्ध्य इनकी वाणी की प्रमुख विशेषता थी।

 

प्रतापनारायण मिश्र कृतित्व

 

➽  अनेक निबंध लिखे जिनमें प्रमुख निबंध नाखून क्यों बढ़ते हैं'? 'मूंछ', 'भाँ', दांत', 'पेट' आदि शारीरिक अंगों पर लिखे गए निबंध '', '' जैसे वर्णमाला के अक्षरों पर लिखे गए निबंध 'बेगार', 'रिश्वत', देशोन्नति, बाल-शिक्षा, धर्म और मत, उन्नति की धूम', 'गोरक्षा', 'बाल विवाह', 'विलायत यात्रा', 'अपव्यय आदि विषयों से संबंधित विचार प्रधान निबंध 'न्याय', 'ममता', 'सत्य', 'स्वतन्त्रता' आदि वैचारिक निबंध। 

➽  'घूरे क लत्ता बिनै', 'कनातन का डौल बांधै', 'समझदार की मौत है', 'बात', 'मनोयोग', 'वद्ध', आदि कहावतों लोकोक्तियों, सूक्तियों को शीर्षक बनाकर लिखे गए निबंध।

 

प्रतापनारायण मिश्र  के नाटक 

➽  'कलि कौतुक रूपक', 'कलि प्रभाव', 'हठी हमीर', 'गौ संकट', 'जुवारी खुवारी

 

प्रतापनारायण मिश्र की साहित्यिक विशेषताएं

 

➽  मिश्र की प्रमुख विशेषताएं किसी भी सामान्य से सामान्य विषय को शीर्षक बना कर निबंध लिख देना थी। विचार प्रधान विषयों का प्रतिपादन अपेक्षाकृत संयमित ढंग से किया है अन्यथा उनका विनोदी स्वभाव ही दष्टिगोचर होता है। 

➽  उनकी सबसे बड़ी विशेषता पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाना है। उस स्तर पर वे अद्वितीय हैं। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण सदैव सुधारात्मक रहा है। रूढ़ियों का उन्होंने कहीं समर्थन नहीं किया है अपितु उनका विरोध किया है। 

➽  निबंधों में इनका सच्चा देशभक्त, समाज सुधारक, एवं हिंदी प्रेमी रूप ही परिलक्षित होता है। उन्होंने भारतेंदु के आदर्श को अपना आदर्श बनाया तथा आजीवन इन्हीं को प्रशस्त करने में लगे रहे। 

➽  मिश्र के निबंधों में उनकी स्वच्छंदता, आत्म व्यंजकता, हास्यप्रियता, सरलता, वाग्वैदम्य, लोकोन्मुखता, व्यंग्य क्षमता, चपलता तथा सहजता सर्वत्र दष्टिगोचर होती है। यद्यपि उनकी प्रवृत्ति हास्य विनोद प्रधान थी किंतु जब गंभीर विषयों पर वे निबंध लिखते थे तब संयत एवं साधु भाषा का व्यवहार करते थे।

 

पंडित बालकृष्ण भट्ट

 

➽  पंडित बाल कृष्ण भट्ट (सन् 1844 19140) भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों में प्रमुख रहे हैं।

 

पंडित बाल कृष्ण भट्ट व्यक्तित्व -

 

➽  संवत् 1933 वि. में पंडित बाल कृष्ण भट्ट ने गद्य साहित्य का मार्ग प्रशस्त करने हेतु हिन्दी प्रदीप का संपादन प्रारंभ किया। 

➽  सामाजिक, साहित्यिक, राजनीतिक एवं नैतिक आदि विभिन्न विषयों पर लिखे गए लघु निबंधों जिनकी संख्या लगभग 50 से भी अधिक रही होगी बत्तीस वर्षों तक प्रकाशित करते रहे। भट्ट संस्कृत के पंडित थे। 

➽ अंग्रेजी साहित्य का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। तत्कालीन वैज्ञानिक प्रगति से वे पूर्णरूपेण अवगत थे। वे अपने युग के सर्वाधिक प्रगतिशील व्यक्ति थे। भट्ट अपने विचारात्मक निबंधों के लिए प्रसिद्ध हैं।

 

पंडित बाल कृष्ण भट्ट कृतित्व

 

➽ उन्होंने छोटे-छोटे अनेक निबंध लिखे। वे कहा करते थे कि न जाने कैसे लोग बड़े-बड़े लेख लिख डालते हैं।

 

पंडित बाल कृष्ण भट्ट के निबंध

 

➽ (i) वैज्ञानिक- 'वायु', 'प्रकाश', 'धूम केतु', 'पेड', 'सीसा', 'वनस्पति', 'विज्ञान', 'भूगर्भ निरूपण' पदार्थवाद' आदि । 

➽ (ii) शारीरिक अंग -'आंख', 'कान', 'नाक', आदि पर निबंध लिखे साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है, प्रमुख निबंध हैं। प्रेम और भक्ति', 'तर्क और विश्वास', ज्ञान और भक्ति', 'विश्वास प्रीति', 'अभिलाषा', 'आशा', 'स्पर्धा', 'धैर्य', 'माधुर्य', 'आत्म त्याग', 'सुख क्या है?" आदि प्रमुख वैचारिक निबंध हैं। 'सच्ची कविता', 'भाषा कैसी होनी चाहिए', 'उपमा', उपयुक्त विशेषण और विशेष्य, खड़ी और पड़ी बोली का विचार', 'हिंदी की पुकार आदि साहित्यिक चिंतन प्रधान निबंध हैं।

 

पंडित बाल कृष्ण भट्ट के उपन्यास

  • 'नूतन ब्रह्मचारी तथा सौ अजान और एक सुजान आदि ।

 

➽ संपादन एवं प्रकाशन- हिन्दी प्रदीप'

 

पंडित बाल कृष्ण भट्ट की साहित्यिक विशेषताएं:

 

➽ उनके विचारात्मक निबंधों में उनकी खीझ, आक्रोश, भावावेश तथा झुंझलाहट स्पष्ट दष्टिगोचर होती है। साथ ही उनका खरापन भी उभरकर आ जाता है। 

देशभक्ति पर सबसे अधिक बल दिया है। अंग्रेजों द्वारा लगाए जाने वाले टैक्स, पुलिस अत्याचारकृषि की दुर्गति, हिंदी की उपेक्षा, हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डालने वाली नीति आदि का भट्ट ने निर्भय होकर विरोध किया है। 

➽ राजनीतिक विचारधारा संबंधी उनके प्रेरणा स्रोत बाल गंगाधर तिलक थे। भट्ट तिलक के समर्थक थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों के विरोधी थे। वे निभ्रांत रूप से यह स्वीकारते थे कि कांग्रेस अंग्रेजी सरकार को दढ़ और पुष्ट करने हेतु स्थापित की गई है। सामाजिक चेतना की दृष्टि से भट्ट ने अपने युग का अतिक्रमण किया था। 

➽ वे सभी प्रकार के बाह्याडंबरों का विरोध करते थे। विधवा-विवाह का समर्थन किया। अंघ - विश्वास, बाल-विवाह, छुआछूत, पर्दा प्रथा, अनमेल विवाह, जाति पांति के भेद भाव आदि का प्रबल विरोध किया। उनकी यह प्रबल धारणा एवं मान्यता थी कि सुखमय दाम्पत्य जीवन हेतु नारी का शिक्षित होना, विवेकी होना तथा आधुनिक होना अनिवार्यता है।

 

➽ भट्ट की भाषा एवं साहित्यिक निबंधों का विशेष महत्व है। भट्ट द्वारा लिखित निबंध, साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है' आज भी साहित्य चिंतन के क्षेत्र में भट्ट की क्रांति दर्शिता का परिचायक बना हुआ है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भट्ट ने शारीरिक अंगों, प्रकृति, विज्ञान, साहित्य, भाषा और साहित्य चिंतन एवं मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों पर निबंध लिखकर अपने को बहुत आयामी बना दिया है।

 

➽ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से पूर्व ही मनोवैज्ञानिक विषयों पर गंभीर चिंतन का कार्य प्रारंभ हो चुका था जिसका श्रेय पं. बाल कृष्ण भट्ट को है। इनका उद्देश्य मनोवत्तियों को समक्ष प्रस्तुत करके उनके नैतिक प्रयोजन को उकेरना था। 

➽ समाज कल्याण की दृष्टि से उसका आकलन किया है। वैज्ञानिक विषयों का प्रतिपादन अति सहजता से किया है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से पूर्व ही भट्ट ने ज्ञान कांड के प्रथम अध्याय का प्रारंभ कर दिया था।

 

➽ शैली की दृष्टि से भट्ट के निबंधों का अत्यधिक महत्व है। निबंधकार का व्यक्तित्व निबंधों में पूर्ण रूपेण व्यंजित हुआ है। मानसिक दढ़ता, देश-प्रेम, आत्म विश्वास, विवेक, खरापन, त्याग, निडरता, कष्ट सहिष्णुता, उदारता एव निष्ठा से समद्ध उनके व्यक्तित्व की आभा से उनके निबंध दीप्त है। 

➽ निबंधों में प्रचलित वर्गीकरण की दृष्टि से उनके अधिकांश निबंध विचारात्मक कोटि के हैं। किन्तु उन्होंने वर्णात्मक, वर्णनात्मक भावात्मक कथात्मक एवं हास्य व्यंग्य प्रधान विविध प्रकार के निबंधों की रचना की है। 

➽ भट्ट के सभी निबंध लोक हितकारी होने के परिणामस्वरूप कहीं न कहीं भावना से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं।

 

➽ भाषा जीवंत भाव दीप्त एवं व्यावहारिक है। यत्र-तत्र समास गर्मित पदों का प्रयोग मिल जाता है। भाषा परिष्कृत एवं परिमार्जित नहीं है। भारतेंदु मंडल के अन्य रचनाकारों की भांति इसका इस्के, उसके उस्के, ले-लै, दे-दै, करना किया आदि बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है। अन्यत्र आकर आय, जाकर-जाय आदि के प्रयोग भी हुए हैं। इस दष्टि से इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि भट्ट की भाषा भारतेन्दु युगीन भाषा का पूरी तरह अतिक्रमण नहीं कर सकी है। अपनी मौज में आकर भट्ट ने अरबी-फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है। स्थान-स्थान पर कोष्ठकों में एजूकेशन', 'सोसायटी', 'नेशनल विगर एण्ड स्ट्रेन्थ', 'स्टैंडर्ड', 'करेक्टर आदि आंग्ल भाषा के शब्दों का रोमन लिपि में प्रयोग किया गया है। यह भट्ट की शैली एवं भाषा का निरालापन है। पदविन्यास अत्यधिक रोचक एवं अनूठापन लिए हुए है। हास्य विनोद के साथ साथ कहीं कहीं उनका चिड़चिड़ा स्वभाव भी झलकता है।

 

➽ मुहावरों की उनकी सूझ बहुत अच्छी थी। शारीरिक अंगों से संबंधित मुहावरों की झड़ी लगा दी है। आंख को लेकर आंख आना जाना, उठना बैठना लड़ना, लगना, मारना आदि। 


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भट्ट के विषय में लिखा है-

 

➽ "हिन्दी प्रदीप" द्वारा भट्ट जी संस्कृत साहित्य और संस्कृत के कवियों का परिचय अपने पाठकों को समय-समय पर कराते रहे। पंडित प्रताप नारायण मिश्र और पंडित बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया है जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था।"

 

➽ 'आत्म निर्भरता' नामक निबंध में भट्ट ने भारतवर्ष की जनसंख्या पर करारा व्यग्य किया है और कूकर-सूकर की भांति पराश्रित दास दस संतानों से एक संतान को श्रेयस्कर माना है।

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