किरातार्जुनीयम् काव्य का कथानक एवं कथावस्तु | Kiraata Arujniyam Ke Kathanak evam Katha Vashtu

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किरातार्जुनीयम् काव्य का कथानक एवं कथावस्तु | Kiraata Arujniyam Ke Kathanak evam Katha Vashtu

किरातार्जुनीयम् काव्य का कथानक एवं कथावस्तु

 

  • भारवि की अमरकीर्ति का आधार उनके सुप्रसिद्ध महाकाव्य किरातार्जुनीय ” पर अवलम्बित है । 


  • किरातार्जुनीयम् काव्य का मूल स्त्रोत महाभारत के वन पर्व से लिया गया है। इन्द्र तथा शिव को करने के लिए की गयी अर्जुन की तपस्या को आधार बनाकर कवि ने 18 सर्गों में इस महाकाव्य का सृजन किया है। इसकी कथावस्तु इस प्रकार है-


18 सर्गों में किरातार्जुनीयम् काव्य महाकाव्य की कथावस्तु इस प्रकार है - 

किरातार्जुनीयम् काव्य का प्रथम सर्ग

➽ द्यूत क्रीड़ा में हारने के पश्चात् युधिष्ठिर अपने अनुजों के साथ द्वैतवन में रहने लगे, - किन्तु यहाँ भी वे दुर्योधन की ओर से चिन्तित हैं । अतः वे दुर्योधन की प्रजापालन सम्बन्धी नीति को जानने के लिए एक वनेचर दूत को नियुक्त करते हैं। ब्रह्मचारी बना हुआ वह वनेचर दूत लौटकर दुर्योधन के शासन की पूर्ण जानकारी युधिष्ठिर को देता है और साथ ही यह संकेत करता है कि दुर्योधन द्यूत में जीती हुई पृथ्वी को नीति से भी जीत लेने के प्रयत्न में है। अभीष्ट जानकारी देने के पश्चात् वह चला जाता है । द्रौपदी युधिष्ठिर को उनके पूर्व भुक्त ऐश्वर्य एवं पराक्रम का स्मरण कराती है। साथ ही शत्रुओं के प्रति असामयिक उदासीन एवं क्षमाशी से होने वाली अनुजों की दयनीय दशा की ओर ध्यान आकर्षित करती हुई युधिष्ठिर को उत्तेजित करती है तथा उसकी शान्तिपूर्ण नीति की भर्त्सना करती है ।

 

किरातार्जुनीयम् काव्य का द्वितीय सर्ग - 

➽ द्रौपदी के विचारों का समर्थन करते हुए भीम कहते हैं कि हे प्रजानाथ आपके अनुजों की पराक्रमशाली भुजाएँ फिर कब सफल होंगी उनके पराक्रम को कौन सह सकता हैं किन्तु युधिष्ठिर भी उनके उत्तेजित वचनों को सयुक्तिक नीतिमय उपेदेशों से शान्त कर देते हैं। इसी सर्ग में भगवान व्यास का आगमन होता है

 

किरातार्जुनीयम् काव्य का तृतीय सर्ग 

➽ युधिष्ठिर के व्यास जी से आगमन का कारण पूछने पर व्यासजी ने पाण्डवों के विजय लाभ का ध्यान रखते हुए उत्तर दिया- पराक्रम से ही आपको पृथ्वी पर अधिकार करना होगा । आपके शत्रु आपसे अधिक बलशाली हैं। अतः शत्रु से बढ़ने के लिए आपको उपाय करना आवश्यक है।जिस मन्त्र विद्या से अर्जुन तपस्या करके पाशुपतास्त्र प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे और भीम प्रभूति वीरों का नाश करने में समर्थ होंगे। वह मंत्र विद्या प्रदान करने के लिए मैं आज उपस्थित हुआ हूँ। बाद में अर्जुन को उक्त मंत्र विद्या प्रदान कर दिव्यास्त्र प्राप्ति के लिएइन्द्र की तपस्या करने के लिए कहते हैं। साथ ही मार्ग निर्देशन करने के लिए एक यक्ष को आदेश देकर अन्तर्हित हो जाते हैं । 


➽ व्यास के भेजे यक्ष के साथ अर्जुन तपस्या करने के हेतु इन्द्रकील पर्वत पर पहुँचता है । यक्ष अर्जुन को तप और तप में होने वाले विघ्नों के बारे में कहता है और आशीर्वाद देकर चला जाता है। वनेचरों के मुख से अर्जुन की कठोर तपस्या का वृतान्त सुनकर इन्द्र भयभीत होता है और उसके तप में विघ्न डालने के लिए अप्सराओं को भेजता हैपरन्तु जितेन्द्रिय अर्जुन के प्रति उन अप्सराओं के सभी प्रयत्न विफल हो जाते हैं । अर्जुन के तपानुष्ठान देखने के लिए मुनिवेश धारण कर इन्द्र उपस्थित होता है। अनेक युक्ति प्रयुक्ति से समझाने पर भी अर्जुन के तपानुष्ठान न छोड़ने पर प्रसन्नता से इन्द्ररुप में प्रकट होकर अर्जुन को शिव की तपस्या करने का उपदेश देता है । अर्जुन पुनः तपस्या प्रारम्भ करता है। एक मायावी दैत्य अर्जुन को मारने के लिए वराहरुप धारण करता है। इस तथ्य को जानकर शंकर अर्जुन की रक्षा करने के हेतु किरात का मायावी रुप धारण करते हैं।

➽  भगवान शंकर वराह को लक्ष्य कर बाण चलाते हैं और अर्जुन भी उसी समय बाण चलाता है परिणामतः दोनों के बाणों के लगने से वह सूकर कटे वृक्ष की तरह गिरकर पंचतत्त्व को प्राप्त होता हैं बाद में अर्जुन अपने बाण को लेना करते है । चाहता है। और इस पर किरात तथा अर्जुन का वाद-विवाद चलता है। यह विवाद पंचदश में युद्ध का रुप धारण करता है । युद्ध में प्रथम शिव और अर्जुन अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध पश्चात् दोनों बाहुयुद्ध पर तैयार होते हैं। अर्जुन की वीरता तथा एकनिष्ठता से शंकर प्रकट होते हैं और फलतः अर्जुन को पाशुपतास्त्र की प्राप्ति होती है। जाओ शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो इस प्रकार शंकर के द्वारा आशीर्वाद प्राप्त करअर्जुन जो उनके चरण कमलों में नत थादेवताओं द्वारा प्रशंसित होते हुएउसने महान् विजयलक्ष्मी के साथ अपने घर पहुँचकर अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर को प्रणाम किया। यहीं पर काव्य समाप्त होता है । 

➽ आदर्शकाव्य ( महाभारत ) कथानक अत्यन्त सरल है। किन्तु भारवि के कवि ने अपनी कल्पना व पाण्डित्य से नाटकीय संवादोंरमणीय एवं कलापूर्ण वर्णनों से 4 या 5 सर्ग की कथासामग्री को विस्तारपूर्वक 18 सर्गो में फैलाया है। यहाँ तक कि कथा की गति अवरुद्ध हो जाती है और 6 सर्गो के पश्चात् कवि पुनः छूटे हुए इतिवृत्त के सूत्र को पकड़ने में समर्थ होता । यद्यपि ये प्रसंग अर्थात् शरद ऋतु के इतिवृत्त के सूत्र को पकड़ने में समर्थ होता है । 


➽ यद्यपि ये प्रसंग अर्थात् शरद ऋतु वर्णन ( सर्ग 4 ), हिमालय वर्णन ( सर्ग 5 ), इन्द्रकील पर्वत पर अर्जुन की तपस्या में विघ्न डालने के लिए इन्द्रप्रेषित अप्सराओं के गमन का वर्णन ( सर्ग 6 ), गन्धर्वों और अप्सराओं के क्रीड़ादि का वर्णन ( सर्ग 7,8 ),सांयकाल आदि का वर्णन ( सर्ग 9 ), अर्जुन को आकर्षित करने के लिए अप्सराओं का आगमन आदि ( सर्ग 10 ), कथोद्भूत दिखाई न देकर लक्षणग्रंथोक्त नियमों की पूर्ति करने के लिए ऊपर से लादे हुए प्रतीत होते हैंतथापि इनके नियोजन उद्देश्य विद्यमान हैं ।

 

किरातार्जुनीयम् का महाकाव्यत्व

 

आचार्य दण्डी ने महाकाव्य का लक्षण इस प्रकार बतलाया है -

सर्गबन्धो महाकाव्यमुच्यते तस्य लक्षणम् । 

आषीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देश वापि तन्मुखम् ॥ 

इतिहासकथोद्भूतमितरद् वा सदाश्रयम् । 

चतुर्वर्गफलायत्त चतुरोदात्तनायकम् ।। 

नगरार्णवषैलर्तु चन्दारर्कोदयवर्णनैः । इत्यादि ।

 

Q. किरातार्जुनीयम् काव्य को कितने सर्ग में सृजन किया गया है?

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