हिन्दी साहित्य का अददिकाल
उद्भव एवं विकास
आदिकाल की अवधारणा और सीमा निर्धारण
आदिकाल या वीरगाथा काल
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा हिन्दी साहित्य
के काल विभाजन में प्रथम काल -खण्ड को वर्गीकृत करते हुए नाम दिया गया था -
वीरगाथा काल ( आदिकाल - सं0
1050-1350) ।
-
विकल्प रूप में उन्होंने वीरगाथा काल को आदिकाल भी कहा क्योंकि बारह आधार ग्रन्थों
में से चार अपभ्रंश भाषा की रचनाएँ थी। उन्होंने बताया कि जयचन्द्र प्रकाश, जयमंयक जसचंद्रिका (भट्ट केदार और
मधुकर कवि) सूचना (नोटिस ) मात्र है। हम्मीर रम्सो (शारंगधर कवि) का आधार
प्राकृत-पैगंलम् में आगत कुछ पद्य हैं और वह काव्य आधा ही प्राप्त है। विजयपाल
रासो के सौ छन्द ही प्राप्त हुए है, इस
प्रकार यह ग्रन्थ भी अधूरा और वीसलदेव रासो की भाँति प्रेमगाथा काव्य है। वीरगाथा
नहीं। अमीर खुसरो की पहेलियाँ भी वीरगाथा के अंतर्गत ग्राह्य नहीं है। पृथ्वीराज
रासों की प्रामाणिकता जितनी संदिग्ध है उतनी ही परमाल रासो की क्योंकि वह लोक
(श्रुत) काव्य आल्हा है। मूल पाठ का निर्धारण असंभव है।
- आचार्य शुक्ल के पास जो अन्य सामग्री स्त्रोत
उपलब्ध होते थे, वे उन्होनें धार्मिक एवं सांप्रदायिक
मूलक बताए थे, पर परवर्ती शोध कार्यों से यह विदित
होता है कि ये धार्मिक और सम्प्रदाय मूलक ग्रन्थ साहित्यिक उदारता से शून्य नहीं
थे। तभी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि धार्मिक प्रेरणा या आध्यत्मिक
उपदेश होना काव्य का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए अन्यथा हमें रामायण, महाभारत, भागवत एवं हिन्दी के रामचरित मानस, सूरसागर आदि साहित्यिक सौन्दर्य संवलित अनुपम ग्रंथ रत्नों को भी
साहित्य की परिधि से बाहर रखना पड़ जाएगा।
- साहित्य का इतिहास न तो इतिहास के वृत्ति
प्रस्तुति का निरूपण है और न प्रशस्ति मूलक सम्वेदना । उसमें साहित्येतिहासकार के
भीतर साहित्यकार की सम्वेदना का समाहार अनिवार्य है। तभी वह साहित्यिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक प्रवृत्तियों की
संरचना से ही काल विशेष की संज्ञा प्राप्त कर सकता है।
आदिकाल या वीरगाथा काल नामकरण वैविध्य और आधार
- हिन्दी साहित्य के इस आदिकाल विकल्प की उपेक्षा
करते हुए रामचन्द्र शुक्ल से पूर्ववर्ती मिश्रबन्धु (मिश्रबन्धु
विनोद) ने उसे प्रारम्भिक काल, महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने उसे बीजवपन काल, रामकुमार
वर्मा ने उसे संधिकाल एवं चारण काल, विश्वनाथ
प्रसाद मिश्र ने वीरकाल एवं बच्चन सिहं ने अपभ्रंशकाल नाम दिया है।
- काल विभाजन और
नामकरण प्रवृत्तिपरक होता है। यह आप समझ चुके हैं, पर यह भी समझना उचित होगा कि ये दो अलग प्रश्न नहीं है, मूलतः एक ही है। जिस प्रकार रचना की
प्रवृत्ति काल विभाजन का आधार है, उसी
प्रकार वह नामकरण का भी महत्वपूर्ण आधार है।
- नामकरण के निर्मिति में तद्विषयक रचना कृतियों की 'बहुलता है और उन रचनाओं में प्रवृत्ति
मूलक प्रतिशत निकालकर काल खण्ड विशेष का नामकरण किया जाता है। परिवर्ती हिन्दी
साहित्येतिहाकारों में सभी एकमत से स्वीकार करते हैं कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का
हिन्दी साहित्य का इतिहास सर्वमान्य है. कुछ मूल प्रश्नों को छोड़ कर शेष सम्पूर्ण
ढांचा लगभग सर्वमान्य है.
आदिकाल या वीरगाथा काल सीमा निर्धारण
- हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल पर विद्वानों में
पर्याप्त मत भेद है। इस के मूल में महत्वपूर्ण कारण अपभ्रंश भाषा की हिन्दी में
स्वीकृति या हिन्दी से बहिष्कृति की मानसिकता है। पूर्व खण्ड के अध्ययन के बाद आप
यह अवश्य ही जान गए हैं कि सम्पूर्ण भारतीय वाङमय में अपभ्रंश भाषा प्रचलित थी।
उसमें कौन से परिवर्तनकारी बिंब कब आरंभ हुए इसको सहज रूप में कह पाना संभव नहीं
है, किन्तु यह तो स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा
में ये परिवर्तन सहज ही गए है। वास्तव में अपभ्रंश भाषा जब परिनिष्ठित और
साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित हुई,
- तब
तक वह जनभाषा से दूर हो गई और उस अपभ्रंश से इतर जनभाषा से ही हिन्दी का विकास
होता है। उस समय यह अपभ्रंश ही एक नई भाषा (या पुरानी हिन्दी ) के रूप में विकसित
हो थी हिन्दी के आरंभिक रूप का परिचय बौद्ध तांत्रिकों की रचनाओं में मिलता है।
तभी गुलेरी ने लिखा है कि "अपभ्रंश या प्राकृतभास हिन्दी के पद्यों का सबसे
पुराना पता तांत्रिकों और योगमार्गी बौद्धों की सांप्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम
की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है। "
- जार्ज ग्रियर्सन आदिकाल को 'चारण काल' कहते हैं और इसका आरंभ 643 ई0 से
मानते हैं जबकि चारण काव्य परम्परा का विकास तब नहीं हुआ था क्योंकि वह काल खण्ड
नाथों-सिद्धों का सर्जन काल था।
- चारण काल एवं साहित्य का आविर्भाव दसवीं शताब्दी
के बाद ही होता है। इसलिए ग्रियर्सन के विचार त्याज्य है। मिश्रबंधुओं ने आदिकाल
का नामकरण करते हुए प्रवृत्ति का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। डॉ. रामकुमार
वर्मा ने इस काल खण्ड को 'संधिकाल' और 'चारण काल' कहा है।