रीति काल का प्रवर्तक कौन है | रीति ग्रंथों के प्रवर्तक कवि केशव या चिंतामणि | Reeti kal Ka pravartak

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रीति काल का प्रवर्तक कौन है, रीति ग्रंथों के प्रवर्तक कवि केशव या चिंतामणि

रीति काल का प्रवर्तक कौन है | रीति ग्रंथों के प्रवर्तक कवि केशव या चिंतामणि | Reeti kal Ka pravartak



क्या रीति ग्रंथों के प्रवर्तक कवि केशव है या अन्य कोई कवि

रीति काल में संस्कृत ग्रंथों को अपना कर रीति ग्रंथों के रचना की अनूठी परंपरा रही है। इस विस्तत परंपरा को देख कर मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या रीति ग्रंथों के प्रवर्तक कवि केशव है या अन्य कोई कवि. 

हिन्दी साहित्य के रीतिग्रंथो के प्रवर्तक आचार्य के विषय में विद्वानो में पर्याप्त मतभेद है। डा. श्यामसुदंर दास जैसे विद्वान केशव को रीतिकाव्य का प्रवर्तक मानते है। उन्होने अपने हिन्दी साहित्य में केशव को रीतिकाल के प्रारम्भ में स्थान देते हुए लिखा है- "यद्यपि समय विभाग के अनुसार केशव भक्तिकाल में पड़ते हैं और यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन होने तथा राम चन्द्रिकाआदि ग्रंथ लिखने के कारण रीतिवादी नहीं कहे जा सकतेपरन्तु उन पर पिछले काल के संस्कत साहित्य का इतना अधिक प्रभाव होकर वे चमत्कारवादी कवि हो गए और हिन्दी में रीति-ग्रंथों की परम्परा के आदि आचार्य कहलाए।"

 

डा दास के विपरीत आचार्य शुक्ल  केशव को रीतिग्रंथ के प्रथम आचार्य मानते हुए भी उनहे रीतिग्रंथो की परम्परा का वास्तविक प्रर्वतक स्वीकार किया है। शुक्ल जी के मन में रीतिग्रंथों की परम्परा का वास्तविक प्रर्वतक स्वीकार किया है। शुक्ल जी के मन में रीतिग्रंथों की अखंड परम्परा केशव के समय से नहीं चिंतामणि से है। केशव के पश्चात लगभग पचास वर्षों तक हिन्दी साहित्य में रीतिग्रंथों की रचना नहीं हुई। यदि केशव से आगे भी हिन्दी साहित्य में रीतिग्रंथों की रचना माना जा सकता था। शुक्ल जी के अनुसार केशव को रीति-ग्रंथकार कवियों ने केशव को आदर्श न मानकर उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से निम्न मार्ग को अपनाया गया है।

 

केशवदास सर्वप्रथम रीतिकाव्य के सर्वानिरूपक प्रौढ़ कवि के रूप में हमारे सामने आते है। शुक्ल जी के अनुसार उन्हें रीतिकाव्य का प्रवर्तक न मानने में भी आपत्ति है। केशव के बाद लगभग पचास वर्ष तक रीतिग्रंथों की रचना न होने के कारण भी केशव को रीतिग्रंथ प्रवर्तक के स्थान से च्युत करना उचित नहीं है। जब कभी कोई प्रभावशाली लेखक किसी नवीन प्रवति का प्रवर्तन करता है। तब यह आवश्यक नहीं होता कि उसके बाद एक साथ ही उस प्रकति की परंपरा प्रतिष्ठित हो जाए। कभी-कभी लोगों को उस प्रवति को समझने या अपनाने में पर्याप्त समय लग जाता है। ऐसी दशा में केशव के पश्चात पचास वर्षो तक रीतिग्रंथ कवियों ने केशव के दिखाये हुए मार्ग का अनुसरण नहीं किया। यह भी ऐसी तर्कपूर्ण और सबल युक्त नहीं जो कि केशव को रीतिकाव्य के प्रर्वतको को रूप उनका नाम गिना जा सके। केशव ने काव्य के विविधांगो के निरूपण का मार्ग दिखाया था और इस रूप में आकर्षक मार्ग का अनुसरण किया है। यह बात दूसरी है कि परवर्ती कवियों ने संस्कत के उन आचार्यों को आदर्श नहीं माना जिनको केशव ने माना था। इसके अतिरिक्त केशव के आचार्यत्व का जितना प्रभाव परवर्ती रीतिग्रंथकार कवियों पर पड़ा हैउतना चिंतामणि त्रिपाठी पर नहीं। चिंतामणि का उनके परवर्ती आचार्य कवियों ने रीतिकाल के प्रवर्तक के रूप में उल्लेख नहीं किया जबकि केशव को देव और दास जैसे प्रतिभाशाली आचार्यों ने भी अपनी श्रद्धांजलि भेट की है। इसमें कोई संदेह नहीं कि केशव ने 'कविप्रियाऔर 'रसिक प्रियामें संस्कत के लक्षण-ग्रंथो के आधार पर काव्यशास्त्र कि विविधागों का जो निरूपण किया हैउसमें मौलिकता का आभाव है। काव्य-शास्त्र विषयक मौलिक सिद्धान्तो के प्रतिपादन की क्षमता केशव में नहीं थी। परम्परागत सिद्धान्तों की व्याख्या में भी उनको सफलता नहीं मिली। इतना होते हुए भी केशव का महत्व इस बात में है कि उन्होंने संस्कत के लक्षण ग्रन्थों को आधार पर काव्यशास्त्र के विविध विषयों पर लक्षण ग्रन्थों के आधार पर काव्यशास्त्र के विविध विषयों पर लक्षण उदाहरण पूर्ण ग्रंथ लिखने की परंपरा स्थापित की। 

काव्य- रसिकोंअध्येताओंप्रणेताओं (रचना करने वाले) के लिए काव्य-शिक्षा संबधी विपुल सामग्री केशव के लक्षण ग्रंथों में वर्तमान है। संस्कृत की रीति काव्य परम्परा को हिन्दी में अवतरित करने का गौरव केशव को ही प्राप्त है। केशव की 'कवि-प्रियाऔर 'रसिक प्रियाने परवर्ती अनेक आचार्य कवियों को प्रभावित किया। परवर्ती अनेक आचार्य ने उन्हे पढ़कर रीतिग्रंथ लिखने की प्रेरणा प्राप्त की है। चिंतामणि त्रिपाठी ने अपनी श्रंगार मंजरीमें अनेक संस्कृत ग्रंथो के साथ केशव की रसिक प्रियाको भी अपनी स्थान का आधार स्वीकार किया है। परवर्ती आचार्य कवियों की परम्परा में केशव की कवि प्रिया' 'और 'रसिक प्रियाका पठन-पाठन आचार्यत्व का एक अंग समझा जाता है।


केशव को रीतिकाव्य का प्रवर्तक न मानने के मुख्य कारण  

रीतिकाव्य परम्परा में केशव का महत्वपूर्ण स्थान होने पर भी हम उन्हें रीतिकाल का प्रवर्तक आचार्य स्वीकार करना उचित नहीं समझते। केशव को रीतिकाव्य का प्रवर्तक न मानने में निम्नलिखित मुख्य कारण हैं-

 

1. केशव के पश्चात रीतिग्रन्थों की परम्परा अखण्ड रूप से प्रचलित नहीं हो सकी। हिन्दी में रीतिकाव्य की अविरल परम्परा केशव के लगभग पचास वर्ष बाद प्रचलित हुई ।

 

2. केशव विशुद्ध रीतिग्रंथकारी कवि नहीं थे। उन्होंनें 'राम-चंद्रिकाऔर 'विज्ञान-गीताजैसी रचनाओं में अपने समय अर्थात भक्तिकाल परम्परा का अनुसरण किया। केशव ने रीतिग्रंथों प्रणयन के नवीन मार्ग को खोलते हुए भी अपने समय की तथा उससे पूर्ववर्ती परम्परा का त्याग नहीं किया। उनकी रचनाओं में भक्तिकाल की भक्ति भावना और परवर्ती रीतिकाल की श्रंगारी मनोवति का सामंजस्य दष्टिगत होता है।

 

3. केशव के समय में रीतिकाव्य का स्वयं सर्वप्रधान नहीं था। केशव का युग तुलसी और सूर के प्रभावजोकि सर्वव्यापी था से आक्रान्त था । उस काल के प्रमुख प्रवति भक्ति हो रही और उस पर रीति काव्य का कोई उल्लेख प्रभाव नहीं पड़ा। इस काल का रीतिकाव्य गुण और परिमाण में भक्ति का विषय श्रेष्ठतर और प्रचुरतर नहीं है। 

4. केशव की रीतिग्रंथ लिखने की प्रवति को जनरुचि का बल प्राप्त नहीं हो सका। उन्होंने रीतिकाव्य की जो परम्परा चलाई थीउसे तत्कालीन अन्य कवियों का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ।  

5. केशव अंलकारवादी कवि थे। उनके अलंकार सिद्धान्तों को परवर्ती रीतिग्रंथकारों-कवियों ने स्वीकार नहीं किया। जिस प्रकार संस्कृत के परवर्ती आचार्यों ने अलंकार - सिद्धान्त को अस्वीकार करके रस या ध्वनि को काव्य में प्रधानता दी हैउसी प्रकार परवर्ती रीतिग्रंथकारों ने केशव द्वारा स्वीकृत अलंकार - सिद्धान्त को छोड़कर रस - सिद्धान्त को अपने लक्षण ग्रंथों में प्रमुख स्थान दिया है।

 

इस प्रकार हम केशव को हिन्दी में रीतिग्रंथकार आचार्य ही स्वीकार करते हैरीतिग्रंथो तथा रीतिकाव्य का प्रवर्तक नहीं। रीतिकाल का प्रवर्तक तो चिंतामणि को मानना उचित है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि चिन्तामणि में केशव सा प्रभावशली पाण्डित्य एवं अचार्यत्व का आभाव है। पर चिंतामणि त्रिपाठी के बाद रीतिग्रंथों की अविच्छन्न परंपरा के प्रचलित हो जाने से रीतिकाव्य के प्रवर्तक हाने का श्रेय उन्हीं को मिलना चाहिए। चितामणि को रीतिकाव्य का प्रवर्तक होना संयोगजन्य है। उनके समय से रीतिग्रथों की धारा अखण्ड रूप से लगभग दो सौ वर्षों तक बहती रही। चिंतामणि तक भक्ति काव्य का स्वर मंद पड़ चुका था और रीतिकाव्य को प्रमुख रूप से अपनाने की प्रवति बलवती हो चुकी थी। चिन्तामणि को जनरुचि का समर्थन भी प्राप्त हो चुका था। वे एक विशुद्ध रीतिकाव्य-प्रणेताकवि और आचार्य के रूप हमारे सामने आते हैं। उन्होनें काव्य-शास्त्र के प्रायः सर्वांगों का निरूपण किया है। चिंतामणि के परवर्ती कवियों ने उन्हीं की पद्धती और प्रणाली का अनुसरण किया है। इसलिए चिंतामणि को ही हिन्दी में रीति परम्परा का प्रवर्तक आचार्य मानना युक्ति संगत प्रतीत होता है और रीतिकाल का प्रारंभ भी उन्हीं के समय से अर्थात सम्वत 1700 से मानना समीचीन है। इस प्रकार आचार्य चिंतामणि से रीति ग्रंथ के निर्माण की आर्कषक पंरपरा का श्रीगणेश हुआ है।

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