जगनिक का परमाल रासो ( आल्हा खंड ) | Jagnik Parmal Raso Aalha Khand

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 जगनिक का परमाल रासो ( आल्हा खंड )

जगनिक का परमाल रासो ( आल्हा खंड ) | Jagnik Parmal Raso Aalha Khand
 

जगनिक का परमाल रासो ( आल्हा खंड )

➽ जगनिक कालिंजर (चलेद राज्य) के राजा परमार्दिदेव का दरबारी कवि था । परमार्दिदेव कन्नौज - नरेश जयचंद का सामन्त था या अधीनस्थ कोई राजा था। परमार्दिदेव राजा जयचंद की सदा सहायता किया करता था। एक दफा पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल राज्य पर किसी ब्याज से आक्रमण किया जिसमें बनाफर शाखा के दो क्षत्रिय वीर आल्हा और ऊदल वीरगति को प्राप्त हुए। जगनिक ने इन्हीं दो वीरों की गाथा को लेकर काव्य लिखा । बहुत दिनों तक इस काव्य को पृथ्वीराज रासो का खंड 'महोबा खंडके रूप में समझा गया। सं. 1976 में नागरी प्रचारिणी सभा काशी से यह रचना प्रकाशित हुई है जिसके संपादक डॉ. श्यामसुंदर दास ने भूमिका में लिखा है, " जिन प्रतियों के आधार पर यह संस्करण संपादित हुआ हैउनमें यह नाम नहीं है। उनमें इसको चंद्रकृत पृथ्वीराज रासो का महोबा खंड लिखा हुआ है। किंतु वास्तव में यह पृथ्वीराज रासो में दिये हुए एक वर्णन के आधार पर लिखा हुआ एक स्वतंत्र ग्रंथ है। यद्यपि इस ग्रंथ का मूल नाम प्रतियों में पृथ्वीराज रासो दिया हुआ है पर इस नाम से प्रकाशित करना लोगों को भ्रम में डालना होगा। अतएव मैंने इसे परमाल रासो नाम देने का साहस किया है। "

 

➽ फर्रूखाबाद के कलक्टर मि. चार्ल्स इलियट ने लोक में प्रचलित आल्हा ऊदल संबंधी गीतों का संग्रह आल्हाखंड के नाम से छपवाया था। डॉ. हजारीप्रसाद इस ग्रंथ के संबंध में लिखते हैं- " निःसंदेह इस नये रूप में बहुत-सी नई बातें आ गई हैं और जगनिक के मूल काव्य का क्या रूप थायह कहना कठिन हो गया है। अनुमानत: इस संग्रह का वीरत्वपूर्ण स्वर तो सुरक्षित हैलेकिन भाषा और कथानकों में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है। इसलिए चंदबरदायी के पृथ्वीराज रासो की तरह इस ग्रंथ को भी अर्द्ध-प्रामाणिक कह सकते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि या तो जगनिक का काव्य बहुत दिनों तक बुन्देलखंड के बाहर प्रसारित नहीं हुआ या यह रचा ही बहुत बाद में गया। पुराने साहित्य में इस अत्यंत लोकप्रिय काव्य का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता और गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस श्रेणी के काव्य को शायद सुना ही नहीं था। यदि उन्होंने सुना होता तो अपने स्वभाव और नियम के अनुसार इस पद्धति को भी अवश्य राममय बनाते । "

 

➽ नि:संदेह इस रचना में अनेक परिवर्तन तथा परिवर्द्धन हुए फिर भी इसमें जगनिक की हृदयस्पर्शी भावधारा अजस्रगति से प्रवाहित होकर आज तक रसिकों के मन को आप्लावित करती आई है- कवि के लिए यह कम महत्त्व की बात नहीं है। यह आल्हा खंड आज भी वर्षा ऋतु में गाया जाता है। इन गीतों को आल्हा रासो भी कहा जाता हैक्योंकि उस समय गेय साहित्य को रासो की संज्ञा से अभिहित किया जाता था।

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