पाश्चात्य चिन्तन : मध्यकालीन युग | Western Thinker in Medieval Period

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पाश्चात्य चिन्तन : मध्यकालीन युग  (Western Thinker in Medieval Period)

पाश्चात्य चिन्तन : मध्यकालीन युग | Western Thinker in Medieval Period


 


पाश्चात्य चिन्तन : मध्यकालीन युग  (Western Thinker in Medieval Period)


सेन्ट ऑगस्टीन (353 - 430 ईस्वी)

 

  • आपने देखा कि प्राचीन ग्रीस से लेकर तितिक्षावाद तक पाश्चात्य चिन्तन की परम्परा ज्ञानमार्गी है। विवेक और ज्ञान से व्यक्ति सदाचार को प्राप्त होता हैय सन्मार्ग पर चलकर उसे सुखशान्ति और आनन्द की प्राप्ति होती है। मध्यकालीन युग में सेन्ट ऑगस्टीन से एक नयी विचारधारा का अभ्युदय होता है। सुख की नहींबल्कि ईश्वर की प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य है। धरती पर हमारा जीवन ईश्वर तक पहुँचने की तीर्थयात्रा है। प्रेम से ही ईश्वर प्राप्ति सम्भव हैअतः प्रेम ही व्यक्ति का सर्वोच्च धर्म (Virtue) है।

 

  • धर्म के मार्ग पर मुड़ने के लिए तीन गुण आवश्यक हैं श्रद्धाआशा एवं दान - (Faith, Hope and Charity ) । ऑगस्टीन कहते हैं "प्रेम के बिना श्रद्धा की - अर्थवत्ता नहीं है। श्रद्धा के बिना आशा नहीं हैआशा के बिना प्रेम नहीं हैऔर प्रेम के बिना आशा नहीं है। तथा श्रद्धा के अभाव में न तो प्रेम सम्भव हैन ही आशा ।" परन्तु ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति मिलेगी कैसे ?

 

  • ज्ञानमार्गी ग्रीक की मान्यता थी कि ज्ञानविवेकसदाचार की प्राप्ति चिन्तनमननध्यानसाहससंयम और तपस्या से होती है। यानिमनुष्य की इच्छाशक्तिसंकल्प और लगन उसे सब कुछ दिला सकती है। मनुष्य चाहे तो कुछ भी प्राप्त कर सकता है। इन स्थापित मान्यताओं के विपरीतपहली बार ऑगस्टीन ने सीख दी कि यह ईश्वरीय प्रेम और भक्ति हमारे आपके प्रयास से नहीं मिलने वाली यह केवल प्रभु की कृपा (Divine Grace) से प्राप्त होती है। कुछ ऐसी ही बात कठोपनिषद् में कही गयी है-

 

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । 

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ।। 


  • यह आत्मा न तो प्रवचनन मेधान बहुत पढ़ने-सुनने से मिलती हैय यह स्वयं जिसका वरण करती हैउसी को प्राप्त होती है। 

  • मार्ग प्रतिपादित करते हुए ऑगस्टीन कहते हैं कि प्रभु की कृपा का आग्रहवान बनने के लिए संसार और सामाजिक जीवन का त्याग कर मठ में तपस्वियों का जीवन जीना होगा।

 

2 सेन्ट टॉमस अक्वाइनस (1225 – 1274 ईस्वी)

 

  • ऑगस्टीन और अक्वाइनस के मध्य नौ शताब्दियों का अन्तराल हैपरन्तु दोनों के चिन्तन में बेहद साम्यता है। इन तमाम विचारकों के अध्ययन से एक और बात स्पष्ट होती है कि ये सब के सब पूर्णरूप से अपनी परम्परा में स्थापित हैं। अगर यह दस बात कहते हैंतो उनमें से नौ उनके पूर्वजों द्वारा पहले ही कही जा चुकी हैवे सिर्फ पुनः उन्हें नये ढंग से व्याख्यायित कर रहे हैं। उदाहरण स्वरूपजब अक्वाइनस कहते हैं कि चिन्तन और ध्यान मनुष्य का सर्वोच्च कर्म हैतो हम पाते हैं कि वे सोलह सौ वर्ष पूर्व अरस्तू की कही बात को दोहरा रहे हैं। इसी तरह अपनी व्याख्या में वे ऑगस्टीन की प्रेम और कृपा की अवधारणा को पुनः स्थापित करते हैं।

 

  • तितिक्षावाद की मान्यता दोहराते हुए अक्वाइनस सृष्टि की अर्थवत्ता व्याख्यायित करते हैं। वह कहते हैं कि प्रभु के सत्यं शिवं सुन्दरम् स्वरूप का प्राकट्य ही सृष्टि का प्रयोजन है। हर व्यक्ति या वस्तु सृष्टि का अभिन्न अंग हैइसलिए उसका भी प्रयोजन यही प्राकट्य है। इसी प्राकट्य में व्यक्ति आत्मबोध या अपना वास्तविक स्वरूप प्राप्त करता है।

 

  • पुण्यकर्म जन्मना नहीं प्राप्त होतेय वे व्यवहरित होने पर ही फलते फूलते हैं। ऑगस्टीन के बताए हुए सद्गुण - श्रद्धाआशा और दान - मानवीय प्रयास से नहीं प्राप्त होते। प्रभु के अनुग्रह और उनकी कृपा (Divine Grace) से ही अन्तरात्मा में सद्गुणों का अभ्युदय होता है। परन्तु सदाचार से वैकुण्ठ की प्राप्ति नहीं होतीय वह तो एकमात्र प्रभु की कृपा से ही मिलता है। ऑगस्टीन की तरह अक्वाइनस भी मानते हैं कि आध्यात्मिक जीवन के लिए ब्रह्मचर्यभोग की वस्तुओं का सर्वथा त्याग तथा आदेश - पालन (celibacy, poverty, and obedience) अनिवार्य हैं। ऐसा जीवन केवल मठ में ही सम्भव है ।

 

  • स्टोइक्स की तीव्र वासनाओं (passions) पर टिप्पणी करते हुए अक्वाइनस कहते हैं कि इन्द्रियजन्य वासनाएं स्वयं में बुरी नहीं हैवे बुरी बनती हैं विवेक के अभाव में अनियन्त्रित होने से वस्तुएं अपनी उत्पत्तिरूप और प्रभाव के दोष से दोषपूर्ण होती हैं। परन्तु व्यक्ति के नैतिक दुराचार या पापकर्म उसके संकल्प में आधारभूत दोष के कारण हैं। बुद्धि और विवेक द्वारा शुभ की परिकल्पना ही व्यक्ति की संकल्पशक्ति का निर्धारण करती है। परन्तु जब आत्मा की दृष्टि या विवेक के नियन्त्रण का अभाव होतो संकल्पशक्ति के मूलाधार में भयंकर दोष उत्पन्न हो जाता है। आत्मदृष्टिहीन धृतराष्ट्र ही सभी पापों और शैतानी ताकतों के जनक हैं।

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