बाणभट्ट की कादम्बरी का विस्तृत परिचय | कादम्बरी - कथा का मूल स्रोत |कादम्बरी का कथानक | Kadambari Details in Hindi

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बाणभट्ट की कादम्बरी का विस्तृत परिचय

 

बाणभट्ट की कादम्बरी का विस्तृत परिचय | कादम्बरी - कथा का मूल स्रोत |कादम्बरी का कथानक | Kadambari Details in Hindi

1 कादम्बरी - कथा का मूल स्रोत

 

यद्यपि 'कादम्बरीके प्रथम पात्र 'शूद्रक' को अनेक विद्वान् इतिहास प्रसिद्ध राजा सिद्ध करते है तथापि कथानक वस्तुतः कविकल्पित (उताद्य ) है गुणाढ्य कृत 'बृहत्कथाका मकरन्दिकोपाख्यान को कादम्बरी-कथा का मूलस्रोत माना जाता है। बृहत्कथा पैशाची प्राकृत में निबद्ध थी और वर्तमान में अनुपलब्ध है किन्तु बाणभट्ट ने अवश्य ही उसका अवलोकन किया होगा। सम्प्रति बृहत्कथा के दो पद्यात्मक संस्करण प्राप्त होते हैं-सोमदेवकृत कथासरित्सागर और क्षेमेन्द्रकृत बृहत्कथामंजरी । इसके अतिरिक्त 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रहभी प्राप्त होता है । इन तीनों में ही 'मकरन्दिकोपाख्यानप्राप्त होता है। 'मकरन्दिकोपाख्यानके पात्रों के नाम कादम्बरी कथा के पात्रों से भिन्न हैं किन्तु दोनों के ही कथानकों का ढांचा प्रायः मिलता-जुलता है। चूँकि बाण सप्तम शताब्दी ई० के हैं और गुणाढ्य ई० पूर्व चतुर्थ शताब्दी के आस-पास के अतः निश्चय ही कादम्बरी का कथानक बृहत्कथा से प्रभावित है। 


➽  कादम्बरी - कथा में और कथासिरत्सागर के राजा सुमनस् की कथा में बहुत अधिक समानता है। कथासरितसागर की यह कथा बृहत्कथा में रही होगी। बाण ने कादम्बरी की रचना में इससे प्रेरणा ग्रहण की है। किन्तु में ने अपनी काव्यप्रतिमावैदुष्य (पाण्डित्य)उत्प्रेक्षाशक्ति के बल पर उसे पूर्णतः स्पोज्ञ (मौलिक) बना दिया ।

➽ कादम्बरी के शूद्रकचाण्डाल-कन्यावैशम्पायन (शुक)जाबालिहारीततारापीडविलासवती,     चन्द्रापीडशुकनासमहाश्वेतापुण्डरीक और कादम्बरी क्रमशः कथासरित्सागर के सुमनस् मुक्तलताशास्त्रगप्रपौलस्त्यमारीचज्योतिष्प्रभहर्षवतीसोमप्रभप्रभाकरमनोरथप्रभारश्मिवान् और मकरन्दिका हैं। कुछ अन्य गौड़ पात्रों और स्थानों के नाम भी भिन्न हैं।

 

➽  बाणभट्ट ने अपनी प्रतिभा और रचना-शक्ति से मूलकथा में पर्याप्त परिवर्तन करके कादम्बरी को वैसा ही नवीन रूप दे डाला है जैसे फाल्गुन के महीने में शोभांजन वृक्ष (सहजन या सहिजन का पेड़) नवीन कलेवर धारण कर लेता है। उन्होनें उत्स के रूप में एक सामान्य लोककथा को लेकर उसे संस्कृत वाड्.मय की उत्कृष्टतम कथा के रूप में प्रस्तुत कर लिया । 


➽  यह बाण के लोकोत्तरवर्णन निपुण कतिकर्म का ही परिणाम है। उन्होंने अलंकृत गद्य-शैली के आश्रय से काल्पिक प्रणय कथा को अत्यन्त हृदयावर्जन बनाने के साथ ही शुकनासोपदेश जैसे जीवन के व्यावहारिक पक्ष को भी अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है । औचित्य और रस के निर्वाह की दृष्टि से मूल कथा में आवश्यक परिवर्तन भी किये गये है।

 

2 कादम्बरी का कथानक

 

➽  संस्कृत गद्य-साहित्य का समुज्ज्वल रत्न 'कादम्बरीएक कथा-ग्रंथ है । आधुनिक काव्यशास्त्रीय दृष्टि से इसे एक मनोरम 'उपन्यासकहा जा सकता है। कादम्बरी का कथानक चन्द्रापीड और पुण्डरीक के तीन जन्मों से संबंध है। गद्यकाव्य कादम्बरी का आरंभ पद्यबद्ध रूप से होता है। इन पद्यों के द्वारा महाकवि बाणभट्ट ने अजरूप परब्रह्मशिव और विष्णु को नमस्कार करने के पश्चात दुजर्न- निन्दा और सज्जन प्रशंसा की है। माननीय कथा का स्वरूप् प्रतिपादित करने के पश्चात् क्रमश: वात्स्यायन वंश में उत्पन्न कुबेरअर्थपति और अपने पिता चित्रभानु की महिमा का निरूपण कर अन्ततः अपना परिचय दिया है। तत्पश्चात् कथा प्रारंभ होती है। 

 

➽  विदिशा नरेश शूद्रक एक प्रतापी राजा थे। कला-पारखीगुणज्ञगोष्ठीप्रिय विद्वान शासक थे। एक दिन एक चाण्डाल कन्या पिंजड़े में वैशम्पायन नाम का तोता लेकर राजा की सेवा में उपस्थित हुई और उसने पक्षिरत्नभूत उस शुक को राजा को उपहार के रूप में समर्पित कर दिया। वैशम्पायन सभी शास्त्रों का ज्ञाताबुद्धिमान् और मनुष्यवाणी में स्पष्ट बोलने वाला था । उसने अपना दाहिना पैर उठाकर राजा की जयकार की और उनके सम्बन्ध में एक 'आर्याका पाठ किया राजा अत्यन्त विस्मित और प्रसन्न हुआ। उसने मध्याह्न भोजन के पश्चात् राजा को कथा सुनायी ।

 

➽  विन्ध्याटवी में अगस्त्य आश्रम के समीप पम्पा सरोवर है। पम्पा सरोवर के पश्चिम तट पर विशाल सेमलवृक्ष की कोटर में एक वृक्ष पक्षी अपने शावक के साथ रहता था। एक दिन शबरों की सेना भीषण कोलाहल करती हुई उधर से गुजरी। सेना के निकल जाने के पश्चात् एक वृद्ध उस विशाल सेमल के वृक्ष पर चढ़ गया और कोटरों से शुकों को निकला कर मारकर जमीन पर फेंक देता। उसने उस वृद्ध शुक को मारकर फेंक दिया और उसके साथ ही अपने पिता के पंखों में चिपका हुआ वह शिशु शावक भी नीचे गिर पड़ा। पुण्य बाकी रहने के कारण वह सूखे पत्तों के ढेर पर गिरा। 


➽  शबर के भूमि पर उतरने के पूर्व ही अपने प्राणों के मोह में वह शुकशावक पास के तमाल वृक्ष की जड़ में जाकर छिप गया। वह शबर जमीन पर पड़े शुकों को बटोर कर (लेकर) चला गया। जब प्यास से व्याकुल वह डरा हुआ भी रेंगता हुआ पानी की खोज में धीरे-धीरे चल पड़ा। स्नान करने के लिए सरोवर की ओर जाते हुए जाबालि-पुत्र हारीत की दृष्टि उस पर पड़ी। वे एक ऋषिकुमार के द्वारा शुक-शावक को सरोवर के पास ले गयेउसके मुँह में पानी की कुछ बूँदें डाली हौर स्नान करने के बाद उसे अपने रमणीय आश्रम में ले गये । शुक-शावक को अशोक वृक्ष के नीचे रखकर उन्होंने पूज्य पिता जाबालि का चरण-स्पर्शपूर्वक अभिवादन किया मुनियों पूछने पर उन्होंने शुक शावक की प्रगति का वृत्तान्त बतलाया और कहा कि पंख निकलने तक इसे इसी आश्रम में पाला जायेगा । तब महर्षि जाबालि ने शुक-शावक की ओर देखकर कहा कि यह अपने ही अविनय का फल भोग रहा है। यह सुनकर हारीत समेत सभी मुनियों को बड़ा कुतूहल हुआ। उन्होंने उसके रहस्य को जानना चाहा। तब सन्ध्याकालिक कृत्य सम्पन्न करके महर्षि जाबालि ने शुक के पूर्व जन्म का वृत्तान्त बताया।

 

➽  उज्जयिनी के राजा तारापीड ने अपने योग्य महामन्त्री शुकनास पर समस्त राज्यभार छोड़कर चिरकाल तक यौवन सुख का उपभोग किया। जब आयु अधिक होने लगी और और कोई सन्तान नहीं हुई तो उनकी चिन्ता बढ़ने लगी एक दिन महारानी विलासवती भी अपनी निःसन्तान के कारण अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगी। महाकाल के दर्शनों के लिए गयी हुई महारानी ने वहां हो रही महाभारत की कथा के एक प्रसंग में सुना कि पुत्रहीनों को शुभ लोक नहीं मिलते । महाराज तारापीड ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा कि दैवाधीन वस्तु के लिए सन्तप्त होना उचित नहीं है। गुरुऋषि और देवों की अर्चना अपने अधीन है। भक्तिपूर्वक ऐसा करने पर वे प्रसन्न होकर मनोवांछित उत्तम वर देते हैं। राजा और रानी ने ऐसा ही किया। तारापीड को विलासवती से चन्द्रापीड नामक पुत्र तथा मन्त्री शुकनास को अपनी पत्नी ब्राह्मणी मनोरमा से वैशम्पायन नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। 


➽  दोनों बालक परस्पर मित्रभाव से साथ ही साथ रहने लगे। दोनों को आचार्यों ने समग्र विद्याओं की शिक्षा दी। विद्या प्राप्त कर चन्द्रापीड इन्द्रायुध नामक अश्व पर सवार होकर वैशम्पायन के साथ राजभवन लौटा और माता-पिता के दर्शन कर आनन्दित हुआ । माता विलासवती ने चन्द्रापीड की ताम्बूलकरंकवाहिनी के रूप में कुलूतेश्वर की पुत्री पत्रलेखा को नियुक्त किया ओर वह कुमार का विश्वास अर्जित कर उनकी सेवा में लग गयी। तारापीड ने चन्द्रापीड को युवराज पद पर अभिसिक्त किया और चन्द्रापीड ने तीन वर्षों में दिग्विजय कर पृथ्वी मण्डल के राज्यों को अपने अधीन कर लिया । यौवराज्यभिषेक से पूर्व मन्त्री शुकनास ने चन्द्रापीड को राजनीति और आचार-व्यवहार की शिक्षा (उपदेश) दी।

 

➽  किरातों के नगर सुवर्णपुर का जीत कर वह सेना को विश्राम देने के लिए कुछ दिनों के लिए वहां रुक गया। एक दिन उसने एक किन्नर युगल को देखा। कुतूहल वश उनका पीछा करते हुए वह वन में दूर तक निकल गया। किन्नर युगल तो पर्वत शिखर पर चढ़ गया और चन्द्रपीड जल खोजता हुआ अच्छोद सरोवर पर पहुँच गया। वहाँ शिवमन्दिर में वीणा बजाकर तन्मयतापूर्वक शिवाराधन में निरत एक दिव्यकन्या को देखा। बाद में वह उसके साथ बैठकर उसका सारा हाल जानने लगा। उस कन्या का नाम 'महाश्वेताथा और वह गन्धर्वराज 'हंसतथा अप्सराकन्या गौरी की एकमात्र कन्या थी। एक दिन वह अपनी माता के साथ स्नानार्थ अच्छोद सरोवर पर आयी थी। वहां उसे एक दिव्य सुगन्धि का अनुभव हुआ हौर उस सुगन्धि का अनुसरण कर वह आगे बढ़ी तो मुनिपुत्र पुण्डरीक और कपिंजल से उसकी भेंट हुई। पुण्डरीक ने वह पारिजात मंजरी महाश्वेता को दे दी दोनों के बीच प्रणय अंकुरित हो गया। दोनों अपने-अपने घर लौट गये और परस्पर वियोग से सन्तप्त रहने लगे। एक दिन कपिंजल ने आकर पुण्डरीक की गम्भीर अवस्था का निवेदन महाश्वेता से किया । अपनी दासी तरलिका के साथ जब महाश्वेता पुण्डरीक को देखने उसके आश्रम पहुँची तब तक उसके प्राण निकल चुके थे। महाश्वेता विलाप करने लगी और आत्मदाह के लिए उसने तरलिका से चिता तैयार करायी । इसी समय चन्द्रमण्डल से एक दिव्य पुरुष उतरा और पुण्डरीक का निर्जीव शरीर लेकर चला गया । उसने महाश्वेता को पुण्डरीक से पुनर्मिलन का विश्वास दिलाया और प्राणत्याग न करने के लिए कहा कपिंजल भी उसका पीछा करता हुआ आकाश में उड़ गया।

 

➽  महाश्वेता ने बताया कि गन्धर्व चित्ररथ की पुत्री कादम्बरी उसकी सखी है उसने निश्चय किया है कि जब तक महाश्वेता शोकावस्था में रहेगीतब तक वह अपना विवाह नहीं करेगी। फिर वह चन्द्रापीड को लेकर कादम्बरी से मिलने उसके वास स्थान हेमकूट गयीं। महाश्वेता ने कादम्बरी से चन्द्रापीड का परिचय कराया। कादम्बरी ने चन्द्रापीड को शेषनामक दिव्य हार उपहार में दिया और साथ ही अपना हृदय भी अर्पित कर दिया। कुछ दिन वहां रहकर चन्द्रापीड और महाश्वेता वापस अच्छोद सरोवर के समीपस्थ आश्रम में लौट आए। कुछ दिन बाद कादम्बरी में का सन्देश-वाहक केयूरक वह हार लेकर आया जो चन्द्रापीड वहीं छोड़ आया था । उसने कादम्बरी की कामावस्था को भी चन्द्रपीड से निवेदित कर गया। तब चन्द्रपीड पत्रलेखा के साथ पुनः हेमकूट गया और पत्रलेखा को वही छोड़कर वापस आ गया। पिता तारापीड का सन्देश पाकर चन्द्रपीड ने वैशम्पायन को सेना समेत आने के लिए कहकर स्वयं इन्द्रायुध पर सवार होशीघ्र उज्जयिनी पहुँच कर माता-पिता के दर्शन किये। कुछ दिनों बाद पत्र लेखा आयी । उसने कादम्बरी और महाश्वेता का हाल बताकर चन्द्रपीड से कहा कि उसने कादम्बरी से आपको मिलाने का वचन दिया है। (यहां तक बाण - रचित कादम्बरी का पूर्वभाग समाप्त होता है और आगे भूषणभट्ट द्वारा लिखित कादम्बरी उत्तरभाग की कथा आरम्भ होती है)।

 

➽  मेघनाद के साथ केयूरक और पत्रलेखा को पुनः कादम्बरी के पास जाने के लिए रवाना करके चन्द्रापीड स्वयं दशपुर तक आयी सेना के साथ आ रहे अपने मित्र शुकनासपुत्र वैशम्पायन से मिलने चले पड़ा । किन्तु स्कन्धावार में वैशम्पायन को न पाकर बहुत दुःखी हुआ। बाद में पता लगा कि वैशम्पायन तो अच्छोद सरोवर पर ही रह गया। तब चन्द्रापीड वापस उज्जयिनी आया और तारापीड तथा शुकनास से यह वृत्तान्त बताकर वैशम्पायन को खोजने शीघ्रतापूर्वक अच्छोद सरोवर पहुँचा। वहाँ उसे न पाकर जब उसने महाश्वेता से उसके बारे में पूछा तो उसने रोते हुए बताया कि वह ब्रह्मण युवक आया था और वह हठपूर्वक मुझसे प्रणय निवेदन कर रहा था। मेरे निषेध करने पर भी जब उसने अपनी हट नहीं छोड़ी तो मैने उसे शुक हो जाने का शाप दे दिया। वह निष्प्राण हो गिर पड़ा बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि वह आपका मित्र था इतना सुनते ही चन्द्रापीड का हृदय विदीर्ण हो गया और वह भी निष्प्राण हो धराशायी हो गया। उस समय कादम्बरी भी महाश्वेता क आश्रम पर पहुँच गयी ओर चन्द्रापीड को मरा देखकर व्याकुल हो विलाप करने लगी। उसी समय चन्द्रापीड के शरीर से एक ज्योति निकली और आकशवाणी हुई कि चन्द्रापीड का शरीर सुरक्षित रखना। उससे कादम्बरी का समागम अवश्य होगा। तत्काल बाद पत्र-लेखाइन्द्रायुध को लेकर अच्छोद सरोवर में कूद गयी। कुछ देर बाद अच्छोद सरोवर से कपिंजल निकल कर बाहर आया उसने महाश्वेता को चन्द्रमा और पुण्डरीक के शाप प्रतिशाप की कथा बतायी। उसने यह भी बताया कि उस समय आकाशमार्ग से जाते हुये एकक्रोधी वैमानिक का उल्लंघन कर दिया था तो उसने मुझे अश्वयोनि में जाने का शाप दे दिया। बाद में उसने मुझे बताया कि चन्द्रदेव ही तारापीड के पुत्र चन्द्रापीड होंगे और पुण्डरीक उनका मित्र वैशम्पायन होगा। तुम चन्द्रापीड का वाहन बनोगे और चन्द्रापीड की मृत्यु के पश्चात् जब तुम स्नान कर लोगों तो मेरे शाप से मुक्त होकर पुनः कपिंजल हो जाओगे। उसने प्रणय निवेदन करने वाला वैशम्पायन ही पुण्डरीक था- यह जानकर महाश्वेता विलाप करने लगी। 


➽ कपिंजल ने उसे आश्वस्त किया तथा चन्द्रापीडवैशम्पायन और पत्रलेखा के पुनर्जन्म का पता लगाने श्वेतकेतु मुनि ने यहां चला गया। दूतों से यह वृत्तान्त जानकर तारापीड अपने परिजनों के साथ अच्छोद सरोवर पर जा पहुँचे और चन्द्रापीड के सुरक्षित शरीर को देखकर आश्वस्त हुए। इतनी कथा सुनकर महर्षि जाबालि ने कहा कि महाश्वेता के शाप के कारण शुक-योनि में जन्मा यह शावक ही वैशम्पायन है । फिर शुक-शावक ने महाराज शूद्रक को बताया कि कपिंजल मुझे ढूँढता हुआ जाबालि-आश्रम में आया था और पिता श्वेतकेतु की कुशलता बता गया थाजब मैं उड़ने योग्य हो गया था तो एक दिन उत्तर दिशा की ओर जाते हुए एक व्याध के जाल में फँस गया और आज स्वर्ण-पिंजरे में इस चाण्डाल कन्या ने मुझे श्रीमान् के चरणों में पहुँचा दिया है। शुक-शावक की बातें सुनकर महाराज शूद्रक ने चाण्डाल-कन्या को बुलवाया । उसने आकर कहा कि महाराज आपने इसके पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुन ही लिया है। अब इसके शाप की निवृत्ति सन्निकट है । मैं ही इसकी माता लक्ष्मी हूँ। आप चन्द्रापीड हैं और यह वैशम्पायन अर्थात् पुण्डरीक है। अब शाप की समाप्ति के बाद आप दोनों सुखपूर्वक साथ-साथ रहेंगे । इतना कह क रवह आकाश में उड़ गयी। तब शूद्रक को भी अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो आया । उधर महाश्वेता के आश्रम पर बसन्त के आगमन के साथ ही कादम्बरी ने चन्द्रापीड के शरीर को अलंकृत कर उसका आलिंगन किया चन्द्रापीड जीवित हो गया। पुण्डरीक भी कपिंजल के साथ गगन तल से उतर आया । तारापीडविलासवतीशुकनासमनोरमाचित्ररथहंस आदि सभी आनन्दित हो गये। कादम्बरी का चन्द्रापीड के साथ और महाश्वेता का पुण्डरीक के साथ विवाह हो गया और सभी सुखपूर्वक रहने लगे।

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