हर्ष का नाट्यवैशिष्ट्य | श्री हर्ष के नाटकों की विशेषता | Shree Harsh Ke Natak

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 हर्ष का नाट्यवैशिष्ट्य  (श्री हर्ष के नाटकों की विशेषता) 

हर्ष का नाट्यवैशिष्ट्य | श्री हर्ष के नाटकों की विशेषता | Shree Harsh Ke Natak



हर्ष का नाट्यवैशिष्ट्य

 

  • हर्ष संस्कृत नाटक कारों में रोमांचक 'प्रणय-नाटिकाके निर्माता के रूप में अत्यधिक प्रसिद्ध है । उनके ऊपर भास और कालिदास का प्रकृष्ट प्रभाव तथा प्रेरणा अवश्य विद्यमान दिखाई देती हैं । भास ने भी उदयन से सम्बद्ध दो नाटकों की रचना की हैं स्वप्नवासवदत्ता और - प्रतिज्ञायौगन्धरायण । इन दोनों नाटकों का प्रभाव विषय की एकता तथा कथानक की अभिन्नता होने के कारण हर्ष की इन दोनों नाटकों के ऊपर पड़ा हैं। इस प्रकार कालिदास के नाटकों की भी घटनाओंवर्णनों तथा वार्तालापों में विशेष साम्य दृष्टिगोचर होता हैं- विशेषतः मालविकाग्निमित्र काइस प्रकार हर्ष की मौलिकता तथा नवीन कल्पना में किसी प्रकार का सन्देह दृष्टिगोचर नहीं होता है।

 

  • रोमान्टिक ड्रामा के जितने कमनीय तथा उपादेय साधन होते हैंउन सब का उपयोग हर्ष नें इन रूपकों में किया हैं। कालिदास के ही समान हर्ष भी प्रकृति और मानव के पूर्ण सामंजस्य के पक्षपाती हैं। मानव-भाव को जाग्रत करने के लिये दोनों नें प्रकृति के सभी पक्षों के साथ सुन्दर परिस्थिति उत्पन्न की है। 'कामोत्सवके द्वारा पूर्ण आनन्द का साम्राज्य जब चारों और व्याप्त हों जाता हैतब सागरिका और उदयन के प्रथम दर्शन की अवतारणा की जाती है। गौरी के मन्दिर में वीणावादन की माधुर्य से शान्त वातावरण में जीमूतवाहन मलयवती को पहली बार देखता है। इस प्रकार स्थानऋतु तथा सामग्री उपस्थित कर हर्ष ने रोमांचक प्रणय के उन्मेष के लिये उपयुक्त अवसर प्रदान किया है। इस प्रकार वे प्रणय-नाटिका के प्रथम सफल नाटककार है ।


  • 'गर्भाककी योजना उनकी दूसरी शास्त्रीय विशेषता है जिसका अनुसरण भवभूती नेउत्तररामचरित में और राजशेखर ने बालरामायण में बड़े कौशल से किया है। हर्ष की काव्यशैली सरल तथा सुबोध है। उनका वर्णन इतना विशद है कि पूरा दृश्य आँखों के सामने से गुजरता हुआ दिखाई पड़ता है। 


  • रत्नावली में होली का चमत्कारिक वर्णन अन्यत्र अपनी समानता नहीं रखता। नागानन्द का आश्रमवर्णन भी बड़ा सुन्दरसरस तथा नैसर्गिक है। इस प्रकार काव्यकला तथा नाट्यकला-उभय दृष्टियों से हर्ष एक सफल कवि तथा रूपक-निर्माता हैं (रत्नावली 3113) -

 

किं पास्य रूचिं न हन्ति नयनानन्द विधते न किं पद्मस्य 

वृद्धिं वा झषकेतनस्य कुरूते नालोकमात्रेण किम्। 

वक्त्रेन्दौ तव सत्ययं यदपरः शीतांशूरूज्जृम्भते 

दर्प: स्यादमृतेन चेदिह तवाप्यस्त्येव बिम्बाधरे ||

 

राजा उदयन सागरिका से कह रहा है कि तुम्हारे चन्द्रवदन के रहने पर यह दूसरा चन्द्रमा क्यों उदय ले रहा है उदय से यह अपनी जड़ता क्या नहीं प्रदर्शित करता इसके उदय होने की जरूरत ही क्या थी तुम्हारा मुख क्या कमल की शोभा को नहीं नष्ट कर देताक्या वह नेत्रों को आनन्द नहीं देतादेखें जाने से ही क्या वह काम वासना को प्रबल नही बनाता चन्द्रमा के कार्य विदित है। वे तो तेरे मुख में भी विद्यमान है यदि अमृत धारण करने के कारण चन्द्रमा को गर्व हैक्या तेरे बिम्बाधर में सुधा नही है तब फिर तुम्हारे चन्द्रवदन के सामने चन्द्रमा के उदय लेनें की क्या जरुरत है यह पद्य काव्यप्रकाश में उद्धृत किया गया है ।

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